Sajida Akram

Drama

5.0  

Sajida Akram

Drama

रेखा

रेखा

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"बोल के लब आज़ाद हैं ! तेरे.....”


"प्यारी रेखा”


"कल कोई कह रहा था, शब्द तो शोर है, तमाशा, मौन ही भावना की भाषा है"


 दिल वाले अक्सर ऐसी ही बातें किया करते हैं। यह बात और है कि मौन को पढ़ने की ताक़त और हिम्मत बिरलों में ही होती है।


 “मुझे लगता है कि ज़िन्दगी जब सीधे मुठभेड़ को खड़ी हो जाए, तो मौन मदद नहीं करता”


 "अभिव्यक्ति के ख़तरे तो उठाने ही होंगे”


"फैज़ भी तो यही कहते है”


"बोल के लब आज़ाद हैं तेरे"


बोल के ज़ुबाँ अब तक तेरी है,


तेरा सुतवां जिस्म है तेरा,


बोल के जां अब तक तेरी है"


इस रेखा को पति सुमेंरनाथ सिरे से रद्द करता था। सुमेंरनाथ को पाने के लिए पूजा-पाठ, व्रत- उपवास, वंशी करण मंत्र सब किया तुमने। तुम्हारा साधारण रंग-रुप थोड़ा गदबदाया बदन, गंवाई परिवेष।

वर्दी वाले शहरी पति का मन तुमसे, "कैसे लगता?" फिर शहर की "दूसरी" के प्रति प्रेम भी


 तंग आकर तुमने "कुएँ-बावड़ी का विचार नहीं बुना...! बस चुप !


सिर्फ देवर जानता था, हर तरफ से हारती...रेखा न जीने में है न हारने में। बाल किशन चाहता था, भाई के लिए ज़ख्म-मवाद न पड़े न नासूर बने यही जुगत जुटा रहा हूँ।, "मुझे लगा परित्यक्ता का लेबल लगाए तुम "कमज़ोर"हो कर, कहीं बहन, बुआ, बेटी बनकर परिवार के लिए होम होती मायके में दो रोटी की जुगत में मर-खप जाओगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, एकदम विपरीत परिस्थितियों में से बिना किसी संघर्ष के तुमने न केवल अपने लिए रास्ता साफ किया, बल्कि औरों की ज़िन्दगी ही साफ कर दी। व्यक्तित्व का ऐसा रुपांतरण क्या इन परिस्थितियों में संभव है ? बारीक सी रेखा के उस पार तुम खलनायिका बन सकती थी, पर तुम्हारी रचनाकार ने तुम्हारी जिजीविषा को उकेरा। परिस्थितियां रिश्तों में बदलाव लाती हैं, पर बदली हुई परिस्थितियों में ताक़त कैसे बटोरी जाए यह तुमसे सीखा।


"सास और तुम्हारे रिश्ते ....जब तुम दुखी थी, दो स्त्रियों के रिश्ते थे, एक परित्याक्ता दूसरी विधवा, जो मिलकर मुठभेड़ कर रही थीं.... वक़्त से...! जैसे ही तुम्हें... "बालकिशन" का साथ मिला (जो तुम्हारी सास ने उपलब्ध करवाया था)...!


तुम प्रतिस्पर्धा की मुद्रा में आ गई 'वर्चस्व के लिए खींचतान। अम्माँ सोचती है कि "औरत के जादू से माँ का दूध ख़ारिज नहीं होता"


'तुम्हारा पलटवार है कि.... बेटा क्या है पीछे बूढ़ी माताओं की छातियों से दूध टपकने लगे तो...। यह दूध विष ही बन जाएगा...?


'क्या यह सच है कि माँ अपने बेटे के शादीशुदा ज़िन्दगी में दीमक लगाती है? माँ के लाल बीबियों के लिए बेकार हो जाते हैं ?


 "उस बालकिशन को जो हाथ बंधवा गुलाम हो गया था। जिसने अपने "भैय्या की मैली पाग" अपने सिर रखी थी। देवर से वर होते ही, वो तुम्हारे लिए पंचायत, गांव, समाज से भिड़ गया था, सज़ा दे दो "रेखा" के ख़िलाफ़ समझौता नहीं करूंगा।


"देह, परिवार और पूंजी पर सम्पूर्ण स्वामित्व ताक़तवर बनाता है, तुमने इन्हीं क्षेत्रों में ताक़त बटोरी"...!


खेती की नए-नए गुण सीखें, पैदावार में बढ़ोत्तरी, बैंक में पैसा रखकर, पैसे पर से सास के नियंत्रण पर से मुक्ति रहन-सहन में बदलाव, बालकिशन के व्यक्तित्व विकास के तुम्हारे प्रयत्न....


 "नारी मुक्ति, समानाधिकार, न्याय, स्वतंत्रता, सम्मान, पहचान, गरिमा जैसे भारी-भरकम शब्दों से परहेज़ रखते हुए भी, तुमने अपनी शक्ति के स्त्रोत पहचाने।


वरन् कैसे संभव था कि पति द्वारा रद्द कर दी गई स्त्री समाज के कानूनों को रदद् करने की हिम्मत करें।


बिना किसी रीति-नीति के बालकिशन के साथ रहना। सास द्वारा उप विवाह का दबाव समाज ने डाला।


लेकिन तुम्हारा साफ इंकार रीति-रस्म कोई.... लिखा हुआ रूका नहीं होता। उप -विवाह के इंकार के बावजूद तुमने "बालकिशन" का साथ क्यों चुना, ये कोई नहीं समझ नहीं पाया।


2. "तुम्हारे व्यक्तित्व की परतें धीरे-धीरे खुली, एक जिस्म एक जान के रिश्ते तुम बालकिशन के साथ निभाती रही। सुमेंरनाथ के खेती के बंटवारे का सवाल उठते ही, तुमने पैंतरा बदला, क्या वह उस स्त्री के लिए संभव था, जो ब्याहते ही त्याग दी गई थी। बालकिशन तो ऐसे ही है, हमारे लिए जैसे तुम्हारे लिए दूसरी औरत बिन ब्याही मन -मर्जी की, सच मानो तो "बालकिशन" इससे ज़्यादा और कुछ नहीं ...। एक और तो तुम कहती हो अम्मा से अपने बेटे को "जेठ" का कायदा सीखाओं, दूसरी ओर सुमेंरनाथ को जतलाती हो "शादीशुदा" पत्नी तो 'मैं हूँ"।


मीठी कटार से संभव हो सका, बालकिशन और सुमेंरनाथ की दुखती रग...। "सुमेंरनाथ सरकारी अफसर का पूर्नविवाह उसकी नौकरी खा सकता है, यही वो अमोघ अस्त्र था जिसके बल पर तुमने सबकी नाक में नकेल डाल रखी थी। "यदि तुम "बालकिशन से उप -विवाह कर लेती तो यह सब संभव हो पाता? तुम्हारे बेटे ने भांवर डालकर भी, हमें ज़िन्दगी से बेदखल कर दिया... तो क्या ये कोर्ट-कचहरी भी उनके अपने हैं कि "कानून से ख़ारिज कर दे।


"तुम ख़ूब जानती हो कि ये बढ़ा वक़्त उखड़ेगा नहीं तो नया ज़माना आएगा कैसे? तुमने अपने अधिकार पहचाने, उनका दोहन भी किया, कम पढ़ी-लिखी होकर भी अपनी जगह, अस्तित्व की तुम्हारी ये तलाश स्त्रीत्ववाद के नारों, वादों, क़वायदों पर फिर गौर की सलाह देती है।


 "बिरादरी से बाहर किया जाना भी कभी कमज़ोर नहीं कर सका” उपेक्षा, अपमान, अकेलेपन की जगह तुमने इस निर्णय से ताक़त बटोरी...समाज से कटते ही उसके निर्णयों, बंदीशों, नियम -कानूनों से मिली मुक्ति का तुमने जमकर दोहन किया, तुम मनमर्जी का जी सकीं।


 "विपरीत परिस्थितियों में अपनी सांसों की ही तलाश नहीं कि, वरन् पैरों के नीचे ठोस ज़मीन भी तलाशी"


 "तुम चुप रहती तो क्या ? यह संभव था इस तरह"


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