राजरानी
राजरानी
उनका नाम राजरानी था।साँवले रंग व भरे शरीर वाली राजरानी दी का दो मंज़िला घर मेरे घर के पिछले दरवाजे की तरफ खुलने वाली गली की तरफ था।गली में दलित जाति के कुछ लोगों के मकान थे।पिछले दरवाजे पर अक्सर ताला जड़ा रहता ताकि हम बच्चे उस गली में खेलने के लिए न जाएँ।जब माँ को कूड़ा फेंकना होता या कहीं जाना होता तभी वे पिछले दरवाजे का इस्तेमाल करती।आगे के दरवाजे से माँ कहीं नहीं जाती थीं क्योंकि बाहर के हिस्से में हमारा होटल था और वहाँ ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी।पिताजी और नौकर –चाकर उसे चलाते थे|माँ ज्यों ही पिछला दरवाजा खोलती हम गली की तरफ खेलने के लिए भाग जाते ,माँ चिल्लाती रह जाती।राजरानी दी के दो छोटे भाई और हम दो भाई बहन थोड़ी दूर पर स्थित राधा-कृष्ण के मंदिर के अहाते में जाकर खेलते।वहाँ हमें कोई नहीं रोकता था।
राजरानी दी उम्र में मुझसे दस साल बड़ी थीं और इंटरमीडिएट में पढ़ती थीं।उन दिनों लड़कियों को पढ़ाने का आम रिवाज नहीं था।इसलिए राजरानी दी का कालेज जाना जिन मोहल्ले वालों की आँखों को खटकता था ,उसमें मेरी माँ भी थी।वे अक्सर मज़ाक उड़ाती हुई कहती—‘बेटी चमारे के नाम रजरनिया’| राजरानी दी का पिता हीरालाल मजबूत जिस्म का छोटी-छोटी मिचमीची आँखों वाला काला-कलूठा शख्स था।बड़ा ही मुँहफट और घमंडी।वह एक सरकारी दफ्तर में चपरासी था और अपनी लड़की को पढ़ाकर अधिकारी बनाना चाहता था। माँ जब गली में कूड़ा फेंकती तो वह झगड़ा करता क्योंकि कूड़ा उसके घर के सामने से दिखता था।उसका अपना घर बड़ा ही साफ-सुथरा और लिपा-पुता दिखता।सरकारी नौकर होना उन दिनों बहुत बड़ी बात थी।इसलिए उच्च जाति के लोग उससे और भी जलते थे।एक तो जाति .....ऊपर से उसका अकड़ू स्वभाव उसके अपराध को और बढ़ा देता।वह किसी से नहीं दबता था क्योंकि जाति को छोड़कर वह हर दृष्टि से हमसे बेहतर स्थिति में था।कहीं न कहीं माँ को यह भी खलता था।वह ईश्वर .... भाग्य को कोसते-कोसते गांधी बाबा को कोसने लगती ....जिसने दलितों को इतने अधिकार दे दिए हैं कि उनके शब्दों में वे ‘सिर पर चढ़कर हगने लगे हैं।’बड़ जात बतियाए नीच जाति लतियाए’ की व्यवस्था में माँ पली थी और उसी को उपयुक्त मानती थी।इसलिए अक्सर कहती –नीच जाति के पास पैसा आ जाए त उ आगी में मूते लागे ला।
माँ की इन बातों को हम नहीं समझते थे।वैसे भी हम बच्चे थे और बच्चे इंसान-इंसान में भेद करने वाली व्यवस्था की जानकारी हमें नहीं थी। नीच जाति और उच्च जाति का अंतर समझने की वह उम्र भी नहीं थी। पर माँ के द्वारा उनके घर न जाने देने की जिद हमें खलती थी।भाई मुझसे छोटा था।वह हर बात में मेरा अनुकरण करता ,इसलिए सारी लानत-मलामत मेरी थी पर मुझे इन सबसे कोई खास फर्क नहीं पड़ता था।वैसे भी राजरानी दी हमारे बचपन की फिल्मी हीरोइन थीं।वे मोहल्ले में किसी के घर आती-जाती नहीं थी।बस कालेज से घर और घर से कालेज।हाँ , वह अपने पिता जी के साहब के बंगले अक्सर जाती थीं।उन्हें हम कालेज आते-जाते या फिर अपनी छत पर किताब लिए पढ़ते देखते।उन्हें देखकर मैं स्माइल पास करती पर वे नजरें फेरकर चली जातीं।मुझे बुरा लगता।माँ से शिकायत करती तो माँ अपनी सारी भड़ास निकाल देतीं –‘पढ़-लिखकर कलेक्टर बनेगी न .....|सहबवा के यहाँ जाती है उसके बेटे से फंसी है बर्बाद कर देगा तब पता खलेगा।’ माँ की बात मुझे समझ में नहीं आती थी।
राजरानी दी जब सज-संवकर कालेज जाने लगीं तो माँ का शक और पक्का हो गया।माँ अनुभवी थी और इन सब बातों को ज्यादा समझती थी।वह भले ही हीरा लाल से चिढ़ती पर बिना माँ की बेटी राजरानी से कहीं न कहीं उसे सहानुभूति भी थी।वह कहती –लड़कियां बेवकूफ होती हैं।प्रेम-प्यार के चक्कर में पड़ जाती हैं।मर्द जाति प्रेम कर ही नहीं सकता।उसकी फितरत ही नहीं है।वह तो बस इस्तेमाल कर सकता है।प्रेम का नाम तो वह चारे के लिए लेता है ताकि मछली को फँसा सके। हीरालाल को यह समझना चाहिए कि लड़की क्यों साहब के घर ज्यादा समय बिताती है ?’मांस की मोटरी और कुत्ता रखवार’|पछताएगा और क्या? हो सकता है कि उसकी भी नजर साहब के लड़के पर हो।सोचता हो कि लड़का फंस जाएगा तो शादी हो जाएगी पर यह नहीं जानता कि राजरानी एक तो दलित है दूसरे सुंदर भी नहीं है और जमाना अभी इतना नहीं बदला है कि जाति बाहर विवाह हो जाए।साहब का लड़का ऊंची जाति का है और सुंदर तथा धनी-मानी भी।वह करना भी चाहे तो उसका साहब पिता करने नहीं देगा।वैसे भी ऊंची जाति के लोगों ने छोटी जाति की स्त्रियों का उपभोग तो खूब किया ,पर उन्हें विवाह योग्य कभी नहीं समझा।
काफी दिनों तक जब राजरानी दी कालेज आते-जाते या अपनी छत पर नहीं दिखीं तो मैं बेचैन हो गयी।माँ भी परेशान दिखी।उसने मुझसे कहा कि खेलने के बहाने उसके भाइयों से जानकारी ले आऊँ|मैंने आश्चर्य से माँ को देखा पर कुछ कह न सकी।इदधार राजरानी दी के घर का दरवाजा हमेशा बंद ही रहता..कभी खुला दिखता भी तो हीरालाल की भयावह मूर्ति वहाँ जाने से रोक देती।उनके भाई भी आजकल खेलने नहीं आते।एक दिन उनका छोटा भाई गली के बाहर दिख गया तो मैंने उसे घेर लिया और फुसला कर मंदिर की तरफ ले आई।वह उदास और चुप था।बड़ी मुश्किल के बाद उसने किसी को न बताने की शर्त पर बताया कि दीदी को दिमागी बीमारी हो गयी है।रात-रात भर नहीं सोती।जाने क्या-क्या बड़-बड़ करती है।इधर-उधर भागने लगती है इसलिए उसे बांधकर रखा जा रहा है।
मुझे बहुत दुख हुआ जी चाहा जाकर उन्हें देखूँ पर .....|इसी बीच मुझे नानी के घर जाना पड़ गया।एक महीने बाद लौटी तो पता चला राजरानी दी छत से गिरकर मर गईं।माँ ने गहरी सांस भर कर कहा कि मुझे पहले से ही अनुमान था कि यही होगा।राजरानी दी साहब के बेटे से प्यार कर बैठी थीं और गर्भवती हो गयी थीं।पर पिता के दबाव में लड़के ने शादी से इंकार कर दिया।तो वह मानसिक संतुलन खो बैठी।साहब ने हीरालाल को धमकी दी कि यदि बात फैली तो नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा।हीरालाल को समझ में आ गया था कि संविधान ने सभी जातियों को बराबर जरूर माना है पर समाज आज भी उंच-नीच की बुनियाद पर ही खड़ा है।
फिर जाने क्या हुआ और कैसे हुआ पर एक दिन राजरानी अपनी आँखों में अनेक जगमगाते सपने लिए मात्र सत्रह की उम्र में दुनिया से चली गयीं।कहीं कुछ नहीं हुआ।राजरानी दी की मृत्यु को दुर्घटना मानकर सब चुप हो गए पर कुछ लोग दबी जुबान में कहते हैं कि हीरालाल ने खुद ही अपनी इज्जत बचाने के लिए राजरानी को छत से धक्का दे दिया था।घटना के कुछ दिन बाद ही पिताजी ने वह शहर छोड़ दिया।हम दूसरे शहर आ गए।पर राजरानी दी की कहानी मेरे साथ ही चली आई।
तबसे बहुत कुछ बदल गया पर यह समाज .उच्च जातियों की सोच ...राजरानियों की नियति आज भी नहीं बदली है।यह अनुभव मुझे तब हुआ जब एक बुजुर्ग साहित्यकार से मैंने राजरानी की कहानी सुनाई।उन्हें राजरानी से सहानुभूति हुई पर साहब के बेटे पर क्रोध नहीं आया।उन्होंने साफ कहा –‘प्रेम-प्यार स्वाभाविक बात है पर क्या वह ब्राहमण होकर दलित.....की लड़की से शादी कर लेता ?हाँ ,उसकी भी कहीं व्यवस्था कर देनी थी।’मैं उनकी बात सुनकर हैरान रह गयी।वे प्रगतिशोल साहित्यकार जरूर थे पर ठाकुर साहब पहले थे।