प्यास
प्यास
"ये चिड़ियों के लिए क्यों रोज व्यर्थ पानी भर कर रखती हो। ये कौवे पता नहीं क्या क्या गंद फैला डालते हैं पानी में। अरे, वो पालतू पक्षी नहीं हैं जिन्हे हमारे पानी की जरूरत हो। उन्हें मिल ही जाता होगा पानी कहीं न कहीं। "
दयाशंकर जी ने आज फिर अपनी पत्नी विद्यावती को टोका।
पति की टोक सुन विद्यावती सब काम छोड़ पहले दयाशंकर जी का नाश्ता लगाने लगी। दयाशंकर जी ने पूरी तन्मयता से खाया-पिया और पेट को भली भाँती तृप्त करने के बाद आरामकुर्सी पर बैठ अख़बार पढ़ने लगे।
कुछ एक मिनट ही बीते थे कि अचानक दयाशंकर जी को लगा कि वे अपने शरीर से अलग हो गए हैं। अपनी देह उन्हें आरामकुर्सी पर शांत लेटी नजर आ रही थी। जाने कैसे पर उन्हें अपना शरीर बेहद हल्का महसूस होने लगा ।
वो कुछ सोच समझ पाते इससे पहले ही उनकी नजर सामने शीशे से टकराई....उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ, अति विचित्र और अविश्वसनीय, पर वो एक कौवे में परिवर्तित हो चुके थे।
वो कुछ कर पाते, इससे पहले ही उनका आठ वर्षीय पोता आकर उन्हें भगाने लगा
"कौवे उड़। उड़। बाहर जा। "
बेचारे दयाशंकर जी खिड़की से बाहर उड़ गए। बाहर कड़ी धूप थी। इतनी गर्मी में प्यास के मारे गला सूखने लगा। पर पानी कहीं नहीं था। खुली नाली में भी बस काला, गंदला कीचड भरा था। दस मिनट इधर उधर उड़ते रहे और प्यास से बेहाल हो मूर्छित हो गए।
"सुनो उठो भी मित्तल जी आप से मिलने आये हैं" विद्यावती के झकझोरने पर दयाशंकर जी उठे तो चैन और राहत उनके चेहरे पर साफ़ झलक आये कि जो कुछ उनके साथ हुआ था वो बस एक सपना था ।
फिर क्या, मित्तल जी से मिलने बैठक की तरफ जाते हुए वह विद्यावती को कहना न भूले -
"सुनो वो पक्षियों के लिए पानी रखोगी तो मिटटी के बर्तन में रखना ताकि पानी ठंडा बना रहे । बाहर बेहद गर्मी है !"