पश्चाताप
पश्चाताप
कब तक सोते रहोगे दिन भर मटर गश्ती करने और आवारागर्दी करने से फुर्सत मिले तब तो पढाई हो, अरे भाई मै कब तक उठाऊंगा तुम्हारा बोझ रोज की तरह सुबह सुबह पिता की कर्कश तीखी और कठोर वाणी सुनकर मनोज ने झुंझुलाते हुए चादर फेंकी निकम्मा निट्ठला जैसे शब्दों से सुबह होती थी मनोज की इतना पढता हूँ फिर भी पिताजी बोलते ही रहते है जब देखो तब डांटते रहते है बड़बड़ाते हुए मनोज ने कहा इतना ही था तो खुद क्यों नहीं बन गए जज कलेक्टर क्यों बाबू बनकर रह गए बहुत क्रोध आता था बाबूजी पर और मन में आक्रोश और नफरत पैदा हो गई थी उनके प्रति माँ भी बस पिताजी का ही साथ देती थी बेटा तुम्हारे बाबूजी दिन-रात मेहनत करते है जिससे तुम कुछ बन जाओ हमेशा उपदेश देती रहती थी ।
पिता सारा दिन एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करते थे और शाम को पार्ट टाइम करते थे।
स्कूल की फीस के अतिरिक्त टूशन का भी खर्चा उठाते थे घर के हालात बहुत ही ख़राब थे दो कमरों के मकान में चार लोग रहतेथे। देख कर मनोज के मन में कुंठा पैदा होती थी और साथ में पढ़ने वाले सम्पन्न बच्चो को देखकर हीन भावना पैदा होती थी मनोज के मन में।
अपने परिवेश से नफरत हो गई थी। एक बार कुछ बन जाऊँ फिर कभी भी लौटकर नहीं आऊंगा यहाँ पर।
संयोग से बारहवीं पास करते ही आई0आई0टी0 में चयन हो गया और मनोज दूसरे शहर पढ़ने चला गया बाबूजी हर माह खर्चा भेज देते थे और मनोज ने कभी भी घर के हालात जानने की भी कोशिश नहीं की। बाबू जी से कभी कभी फ़ोन पर बात हो जाती थी और साल में एक या दो बार जाना होता था मनोज का घर पर।
इंजीनियरिंग की परीक्षा पास करते ही दिल्ली आई0ए0एस0 की कोचिंग ज्वाइन कर ली। बाबूजी उसका भी खर्चा उठाते थे। आई0ए0एस0 की परीक्षा भी सफलता पूर्वक पास कर ली मनोज ने और मनोज ने नौकरी ज्वाइन कर ली। सब मेरी मेहनत और लगन का नतीजा है इसमें किसी का क्या लेना देना सोचकर मनोज का मन अहंकार से भर उठता । फिर जल्द ही एक वरिष्ठ आई0ए0एस0 की बेटी का विवाह प्रस्ताव आ गया और मनोज का विवाह हो गया। बाबूजी आये मेहमानों की तरह और अलग थलग ही रहे शायद अपने आपको एडजस्ट नहीं कर पा रहे थे उस माहौल में। उसके बाद से बाबूजी से जैसे संपर्क ही टूट गया ।
मनोज ने कभी भी अपने बाबूजी के हालचाल जानने की कोशिश नहीं की। बाबूजी को अपने घर बुलाने में शर्म महसूस होती थी मनोजको। उनका रहन सहन देखकर लोग क्या सोचेंगे यह सोचकर मनोज उनको बुलाने से परहेज करता था ससुर का पद और स्टेटस देखकर अपने आपको बौना महसूस करता था मनोज। समय बीतता गया और मनोज अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गया।
अचानक आई बाबूजी की बीमारी की खबर सुनकर मनोज का घर आना हुआ तो घर के हालात देखकर दंग रह गया।
एक साधारण सी साड़ी में बुजुर्ग सी दिखती समय से पहले बूढी हो चुकी थी माँ और चारपाई पर लेटे हुए सूखकर काँटा हुए बाबूजी को देखकर एक पल के लिए मन में ग्लानि महसूस हुई मनोज को। अपराध बोध को छुपाते हुऐ और नजर चुराते हुऐ मनोज ने कहा अरे आपने पहले क्यों नहीं बताया अपनी बीमारी के बारे में में कुछ पैसे भेज देता बाबूजी ने सुनकर ठंडी आह भरी और माँ की तरफ देखते हुऐ बोले बेटा हमें तेरे पैसे की नहीं तेरी जरूरत थी आँखों में आंसू भरकर बाबूजी बोले में जानता हूँ तू मुझसे नफरत करता रहा सारी जिंदगी में तुझे हमेशा कठोर वचन बोलता था डांटता रहता था भला बुरा कहता था लेकिन बेटा वो सब में तेरी भलाई के लिए करता था।
जिससे तू मेरी तरह अभावों में जिंदगी ना काटे पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बने समाज में इज्जत कमाए।
मनोज आत्म ग्लानि से भर उठा बाबूजी का हाथ पकडे आँखों से झरझर आंसू बहने लगे मन पश्चाताप से भर गया अरे ये मैंने क्या किया देवता समान पिता का मोल नहीं समझा इतने साल मैंने उस पिता की सुध नहीं ली जिसने अपना सारा जीवन मुझे बनाने में लगा दिया कैसा बेटा हूँ मैं धिक्कार है मुझ पर। बाबू जी माफ़ कर दीजिये मुझे आँखों से बहते हुऐ अविरल आंसूओं के बीच में मनोज ने बाबूजी का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा लेकिन ये क्या बाबूजी तू चिरनिद्रा में लीन हो चुके थे। चेहरे पर असीम शांति लिए बाबूजी इस दुनिया से बिदा ले चुके थे। मनोज के पास आत्म ग्लानि अपराध बोध और पश्चाताप की आग में जलने के सिवा कुछ भी नहीं बचा था।
