परिवर्तन की गूंज
परिवर्तन की गूंज
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नीलिमा के कॉलेज से लौटते ही माँ ने कहा "साड़ी पहन के तैयार हो जाओ", नीलिमा समझ गयी आज फिर लड़के वाले देखने आने वाले हैं। फिर वही इंटरव्यू का दौर शुरू होगा, खाना पकाते आता है या नहीं, पारम्परिक वेश और त्योहार का ज्ञान है या नहीं। कभी कभी उसे लगता बस गुड़िया बनाकर सजाकर रख दिया गया है ग्राहक को पसंद आने पर ही बात आगे बढ़ेगी।
फिर वही तैयार होकर बैठ गयी नीलिमा, अशोक के घरवाले और अशोक ने भी उसे पसंद कर लिया। फिर क्या था चट मंगनी और पट ब्याह हो गया। नीलिमा आ गयी अपने बचपन को छोड़कर, अपने पुराने घर,अपनी किताबें, अपनी सहेलियों से दूर और अपने माता पिता से भी दूर एक नए शहर में नई उम्मीदों के साथ, उसने सोचा तो था कि पढ़ाई करके कुछ बनूंगी लेकिन फिर परिस्थितियों से समझौता कर लिया।
अब उसने बस अशोक को ही अपनी सारी दुनिया बना लिया, उसकी पसंद के कपड़े पहनती। उसकी पसंद का खाना बनाती, उसे खुश रखने की पूरी कोशिश करती। नीलिमा ने बचपन से अपनी माँ को भी ऐसे ही रूप में देखा था जो अपने पति की छोटी से छोटी बात का भी ध्यान रखती थी, कभी उनसे ऊंची आवाज में बात नहीं करती थी, हमेशा उन्हें आप कहकर सम्बोधित करती थी और कभी गुस्सा आ भी जाये तो खुद ही रो पड़ती थी।
नीलिमा के मन मे यही छवि थी जो आदर्श स्त्री और पत्नी की थी, वह भी अपनी माँ की तरह पत्नी के हर कर्तव्य को पूरा करने का प्रयत्न करने लगी।
शायद अशोक भी यही चाहता था कि नीलिमा उसकी बात माने, तभी तो अपनी माँ के समझाने पर सीधी सादी लड़की से शादी करने को राज़ी हुआ था। वरना उसे तो मॉडर्न लड़कियां ही ज्यादा पसंद थी। धीरे धीरे वक़्त बीता नीलिमा अपनी गृहस्थी में रम गयी, अशोक और नीलिमा के घर लक्ष्मी आयी उन्हें बेटी हुई। नीलिमा बहुत खुश थी उसके और अशोक के प्रेम की निशानी जो थी वह बेटी।
नीलिमा की डिलेवरी के बाद उसका वजन तेजी से बढ़ने लगा। वो घर के कामों में लगी रहती इस तरफ उसका कभी ध्यान ही नहीं गया। कुछ महीनों बाद अशोक ने कहा मेरे आफिस की पार्टी है रात को तैयार हो जाना, नीलिमा तैयार हो गयी उसने साड़ी पहनी अशोक के पसन्द के रंग की, लेकिन उसे क्या पता था आज उसके साथ क्या होने वाला था, उसके वजन की वजह से अशोक को स्टाफ और उसके कलीग ने कहा क्या अशोक जी इतने स्मार्ट हो, कॉलेज टाइम से ही और ऐसी महिला मिली आपको विवाह के लिए और सब कहकहे लगाने लगे।
नीलिमा को खुद के लिये बुरा नहीं लगा लेकिन अशोक के लिये बहुत बुरा लगा उन्हें कैसा लगा होगा रास्ते भर यही सोचती रही। घर पहुँचते ही अशोक ने कहा आज के बाद मेरे साथ बाहर आने की जरूरत नहीं। नीलिमा रात भर रोई, उसे यकीन नहीं हो रहा था जो अशोक कभी उसके आंसू पोछता था आज उसे उसके रोने पर कोई फर्क़ ही नहीं पड़ रहा है।
न जाने किसकी नजर लगी नीलिमा की गृहस्थी को, अशोक न तो अब समय से घर आते न उससे बात करते। कभी कभी तो शराब पीकर घर आने लगे थे कुछ कहने पर नीलिमा को चिल्ला देते, एक बार तो बेटी के सामने ही नीलिमा पर हाथ उठा दिया।
माँ-बेटी दोनों सहम कर बस रोते रहे। नीलिमा ने सोचा जैसे मैने अपनी माँ को उनके गुणों को देखकर अपनाकर उनकी तरह बनने का प्रयास किया, मेरी बेटी भी मुझे देख रही है वह भी मुझसे ही सीखेगी,यदि मैंने ये सब सहन किया तो शायद बेटी भी दब्बू प्रवत्ति की बनकर अपने खिलाफ हो रहे अत्याचार के लिये भविष्य में आवाज़ नहीं उठा पाएगी।
बहुत सोचकर नीलिमा ने ये फैसला लिया बेटी को लेकर अलग रहेगी सिलाई करना जो आता है थोड़ा बहुत कमाकर बेटी को पढ़ाऊंगी, उसे आत्मनिर्भर करूँगी ताकि भविष्य में एक नीलिमा और न बने।
ये सोचकर नीलिमा चल पड़ी अपनी बेटी का हाथ थामे एक नए सवेरे की ओर, ये नवीन परिवर्तन की गूंज थी। एक ऐसा परिवर्तन जिसमें एक स्त्री को स्वयं के अस्तित्व और स्वयं की संतान के भविष्य के बारे में सोचकर एक कठोर फैसला लेना पड़ा।