परिश्रम
परिश्रम
यवक्रीत नाम के ब्राह्मण ने इस वरदान को प्राप्त करने के लिए तपस्या आरम्भ की कि सभी ब्राह्मणों को बिना पढ़े ही वेदों का ज्ञान हो जाया। इन्द्र ने पहले तो उसे समझाया फिर उसे न मानते देखकर उन्होंने ब्राह्मण का रूप धारण करके नदी में बालू फेंकना आरम्भ किया। यवक्रीत के जिज्ञासा करने पर उन्होंने कहा" मैं नदी में पुल बना रहा हूँ।"
"इस तरह से पुल कैसे बनेगा?" यवक्रीत के पूछने पर इन्द्र ने कहा" जिस प्रकार तुम्हारे तपस्या करने से द्विजमात्र को बिना पढ़े ही वेदों का ज्ञान होगा।"
यवक्रीत अपने प्रयत्न की निरर्थकता समझ गया तब इन्द्र ने उसके सामने अपना असली स्वरूप प्रकट किया और यह वर देकर कि बिना पढ़े ही उसे वेदों का ज्ञान हो जाएगा उसके सामने से अदृश्य हो गये।
यवक्रीत इस वरदान के कारण वेदों का विद्वान् हो गया पर वासना के वशीभूत होकर वह रैभ्य ऋषि की पुत्रवधु से दुराचार का प्रयास करने लगा। उसके इस व्यवहार से नाराज होकर उन ऋषि ने उसे अपने मन्त्र से मार डाला। इस पर नाराज होकर यवक्रीत के पिता (जो स्वयं ऋषि थे।) ने रैभ्य को शाप दे दिया और स्वयं अग्नि में प्रविष्ट हो गये। इस शाप के प्रभाव के कारण रैभ्य के पुत्र परावसु ने अनजाने में अपने पिता का वध कर दिया और अपने दोष को छिपाने के लिए अपने छोटेे भाई अर्वावसु पर यह दोष लगाया। इससे आश्चर्यचकित होकर अर्वावसु ने घोर तपस्या की और यह वरदान प्राप्त किया कि यवक्रीत आदि सभी मरे हुए लोग जीवित हो जाय और दोनों परिवारों के सभी लोग उन मनोविकारों से मुक्त रहें जिसके कारण दुःखद परिस्थितियाँ पैदा हुई हैं।
अतः सभी मुनि जीवित हो गये फिर यवक्रीत ने देवताओं से पूछा कि उनके जैसा वेदाभ्यासी को रैभ्य ऋषि कैसे मार सके। देवताओं ने कहा कि रैभ्य ने परिश्रम से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया था किसी वरदान से नहीं।
यह कहानी बताती है कि कोई विद्या पहले तो बिना परिश्रम के प्राप्त नहीं की जा सकती और यदि किसी दिव्य शक्ति की कृपा से अपवाद रूप में वह प्राप्त की भी जाती है तो भी परिश्रम से सीखनेवाले की विद्या की तुलना में वह कमजोर ही होती है।