Aditya Neerav

Romance

4.8  

Aditya Neerav

Romance

प्रेम का अनुपम बोध

प्रेम का अनुपम बोध

7 mins
483


प्रभाकर आज सुबह से बेचैन था समझ नहीं पा रहा था कि अपना दर्द किससे बांटे ? किसी से कुछ कह भी तो नहीं सकता। उसे आज भी वो दिन याद आ रहे थे जब वह पहली बार ज्योति से मिला था वह भी एक मुशायरे में। ज्योति एक समझदार, सादगी पसंद साधारण लड़की थी लेकिन उसके संस्कार व सोच असाधारण थे। यह बात यह बात उसे उसकी रचना को सुनकर और जुड़कर मालूम हुआ प्रभाकर को महसूस हुआ कि आज के दौर में भी भावनाओं से ओतप्रोत तथा सामाजिक रचना है जो सोचने पर विवश कर दें, तथा प्रत्यक्ष रूप से देखने और सुनने को मिल रहा है। प्रभाकर जोकि स्वयं एक रचनाकार था और इससे पहले वह एक इंसान जो इंसानियत के नाते भी लोगों से जुड़ना चाहता था। क्योंकि आज के दौर में लड़के- लड़कियों के रिश्ते को हमारा समाज शक की दृष्टि से देखता है उन्हें लगता है हम पश्चिम सभ्यता को अपना कर उनकी संस्कृति का मज़ाक बना रहे, यही वह वजह है यही जिसके कारण सही को भी लोग गलत ठहरा देते हैं। 

प्रभाकर की तो दुनिया ही अलग थी वैसे छोटी सोच को महत्व नहीं देता था, यही कारण है कि जैसे लड़के दोस्त होते हैं वैसे ही लड़कियाँ भी उसकी दोस्त हुआ करती थी। क्योंकि वह जानता था कि जब आप सही हो तो लोग कुछ भी कहे कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रभाकर के नजर में दोस्ती एक वरदान है जो हम ईश्वर से प्राप्त एक सुंदर उपहार है। बिना दोस्त के यह मानव जीवन अधूरा है। वह अपने दोस्ती की मर्यादा को भी जानता था, यही वजह है कि उसके जिंदगी में भटकाव का वह दौर नहीं आया। उसने अपना लक्ष्य अर्जुन के भांति रखा, उसे अपनी मंज़िल के सिवा कुछ नहीं दिखाई देता था। प्रभाकर अपने लक्ष्य के प्रति अडिग था। उसे इस तरह देखकर कुछ लोग उसे घमंडी भी समझने लगे। इसी बीच ज्योति का उसके जिंदगी में आगमन होना वह भी एक सच्चे मित्र के रूप में उसे लगने लगा कि आज भी इंसानियत जिंदा है, और इस तरह से वह उस दिन से एक कवि मित्र के नाते ज्योति से जुड़ गया।


मुलाकातें तो कम होतीं लेकिन फोन के माध्यम से बातों का सिलसिला शुरू हो गया। बातें भी ज्यादातर रचनाओं और पढ़ाई से जुड़ी हुई हुआ करती थी। इस तरह से दिन बीतते चले गए और पूरा दो महीना गुज़र गया। ज्योति को लगने लगा कि प्रभाकर एक अच्छा इंसान ही नहीं एक सच्चा मित्र भी है क्योंकि उसको इस तरह से समझने वाला शायद अब तक कोई नहीं मिला था। वह अपनी सारी भावनाएं उससे रचनाओं के माध्यम से व्यक्त करती। एक दिन अचानक प्रभाकर को अपने मित्र के कवि सम्मेलन के आयोजन के बारे में मालूम हुआ तो उसने ज्योति को भी बताया। ज्योति यह जानकर बेहद खुश हुई उसे लगा जैसे जिंदगी की असली खुशी यही है, क्योंकि अब तक वह अपने गाँव से निकल कर दूसरे शहरों में बड़े मंचों पर अपनी प्रस्तुति कभी नहीं दी थी। वह जाने के लिए उत्सुक थी लेकिन प्रभाकर को कुछ परेशानी थी, उसने बोला कि वह कोशिश करेगा लेकिन जरूरी नहीं कि वह साथ जाएगा। इस तरह वह दिन भी आ गया जिस दिन कार्यक्रम का होना तय था। बहुत कोशिशों के बाद किसी तरह प्रभाकर को भी उस कार्यक्रम में जाने की अनुमति मिल गई। ज्योति को जब इस बारे में मालूम हुआ तो उसने अपने मन ही मन अपने ईश्वर को धन्यवाद दिया। दोनों ने साथ में सफर की शुरुआत की। न जाने क्यों दोनों को एक-दूसरे का साथ बहुत प्रिय लग रहा था और समय बीतते देर ना लगी और मंज़िल भी आ गई। कार्यक्रम में शामिल होकर दोनों को बहुत खुशी मिली और साथ में एक सुकून भी था कि वे एक दूसरे के साथ अपनी रचना सुना रहे थे और एक दूसरे को सुन भी रहे थे।  


उस दौरान दोनों में आपसी बातचीत भी नज़दीकियों और एक दूसरे की फ़िक्र करने की वजह बनी। ज्योति के काव्य पाठ को लोगों ने काफी सराहा। पहली बार में ही जिसकी वह हक़दार थी उसे वह सम्मान प्राप्त हुआ। उससे प्रभाकर को भी अत्यंत खुशी मिली, वह तो औरों की खुशी को ही अपनी खुशी मानता था और ज्योति तो उसकी सच्ची मित्र थी। ज्योति ने प्रभाकर को इस कार्यक्रम से जोड़ने के लिए अपना आभार प्रकट किया। प्रभाकर ने मुस्कुरा कर कहा कि वह तो केवल माध्यम है जो कुछ भी हुआ वह तुम्हारे स्वयं के हुनर के कारण हुआ, इसमें उसका कोई योगदान नहीं। ऐसे ही कई महीने और बीत गए। ज्योति ने महसूस किया कुछ दिनों से प्रभाकर से बात नहीं हो पा रही थी। वह बेचैन रहने लगी, आखिर वह पूछे भी तो किससे? वह मन ही मन उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि सब कुछ ठीक हो। फिर अगले दिन उसका संदेश आया कि वह अपने कामों में व्यस्त था इसलिए ज्योति को यह जानकर सुकून हुआ कि सब ठीक है। प्रभाकर ने कहा आप मेरे  लिए इतनी चिंतित हुई उसके लिए शुक्रिया। ज्योति उसकी इस बात पर थोड़ा झेंप गई फिर वह अपने आप को संभालते हुए बोली कि "यह जरूरी है कि हम अपने मित्र की फ़िक्र करें, सच्चे मित्र की यही पहचान है। इस बात पर दोनों मुस्कुरा पड़े इस तरह बातों का सिलसिला पुनः शुरू हो गया। प्रभाकर उसे कार्यक्रम और पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होने की जानकारी देता रहा। ज्योति धीरे-धीरे प्रभाकर की ओर झुकाव महसूस करने लगी लेकिन प्रभाकर की ओर से कभी यह नहीं समझ आया कि वह ज्योति के बारे में क्या सोचता है। ज्योति ने घूमा-फिरा कर कई बार उसे अपने जज्बातों का एहसास दिलाने की कोशिश करती। कभी अपनी रचनाओं के माध्यम से तो कभी आपस की बातों से। मगर प्रभाकर की प्रतिक्रिया से कभी भी उसके मन की बात समझ में नहीं आती। जब बहुत कोशिशों के बाद भी कोई सफलता नहीं मिली तो ज्योति ने इसे एक तरफा प्यार मान लिया। वैसे भी भागना उसके फितरत में नहीं।

दोस्ती को ही प्रभाकर के नज़दीक रहने का माध्यम बना लिया। ऐसे ही दिन बीत रहे थे। परीक्षा की घड़ी नज़दीक आ रही थी, प्रभाकर अपने तैयारी में जुट गया। लेकिन एक दिन भी ऐसा नहीं बितता जब वह ज्योति से बात ना करे। फिर एक शाम अचानक ज्योति ने संदेश भेजा उस संदेश में उसने अपने होने वाली शादी का जिक्र किया। संदेश पढ़कर प्रभाकर को थोड़ा भी आश्चर्य नहीं हुआ अपितु दोस्त के नाते खुश होकर उसे बधाइयाँ दी। ज्योति  जानती थी ऐसा ही होगा लेकिन उसे फिर भी यह उम्मीद नहीं थी लेकिन अब जो होना था उसने अपने भाग्य का लिखा समझ कर अपना लिया था। इसी बीच प्रभाकर की मुलाकात हुई इधर-उधर की बात होने के बाद जब ज्योति ने कहा कि जो होना होता है वही होता है। आज वह पहले की तरह खुश नहीं दिखाई दी। इस तरह वह अपने घर चली गई।

इस बात ने प्रभाकर को सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर कारण क्या है? काफी सोचने के बाद उसे लगा कहीं ज्योति उससे प्यार तो नहीं करती! जब उसे यह बात समझ में आई तो उसे लगा कि जाने अनजाने में उससे कोई अपराध हो गया है जिसका प्रायश्चित अब वह शायद ही कर पाएगा। फिर भी हिम्मत करके उसने ज्योति को फोन पर उसके खुश ना होने का कारण जानना चाहा। ज्योति ने काफी टालमटोल के बाद उसे आखिर बता ही दिया कि हां वह उससे प्यार करने लगी थी। लेकिन कभी इज़हार करने का साहस नहीं कर सकी। प्रभाकर ने जब यह सुना तो कहा कि वह तो दोस्ती के दायरे में रहा, अगर ऐसी बात थी तो एक बार तो कहना चाहिए था न ! आज तुम्हें इतना दुखी नहीं होना पड़ता । ज्योति ने कहा कि वह तो अपनी भावनाएं जाहिर करती थी शायद तुम ही समझ नहीं पाए। प्रभाकर ने हँसकर कहा क्या करूँ नासमझ जो ठहरा ! ज्योति ने कहा कि वह अब सब कुछ भूल गई है अच्छा होगा तुम भी यह सब भूल जाओ। प्रभाकर ने भी उसकी बात मान ली और अपनी दोस्ती को प्राथमिकता देकर ही जुड़े रहना चाहा। महीने बीतते चले गए ज्योति की सगाई के दिन नज़दीक आने लगी। एक दिन उसने बताया कि उसकी इच्छा थी कि उसके पिता को दहेज ना देना पड़े और कोई उसके सूरत से नहीं सीरत से प्यार करे। यह जानकर प्रभाकर जो कि अब उसके प्यार के अहसास को समझने लगा था, बोला अब भी वक्त है तो लौट आओ। इस तरह तुम कभी खुश नहीं रह सकती स्वयं को तकलीफ़ देकर सहकर तुम किसी से जुड़ कर भी उसे भी कहां खुश रख पाओगी। लेकिन उसका इरादा तो अटल था। प्रभाकर के बातों ने उसे जरा भी विचलित नहीं किया। वह अपने माता-पिता का आशीर्वाद समझ कर इस रिश्ते को निभाने के लिए राजी थी। प्रभाकर को लगा शायद उसके विश्वास को किसी ने हिला दिया था वो जीवन के सफर की सच्ची भावनाएं थीं जो अब स्थिर हो चुकी थीं। आज उसे सच्चे प्यार का एहसास हो गया लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। 


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