Aditya Neerav

Drama

3.8  

Aditya Neerav

Drama

लॉकडाउन

लॉकडाउन

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270


"लॉकडाउन" शब्द तो नया जान पड़ता है लेकिन अर्थ नहीं | हालांकि अर्थ से भी सही मायनों में परिचय इन दिनों ही हुआ है। कुछ दिन तो आराम से कट गए लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए मन में हलचल उत्पन्न होने लगी, लगा कि भूचाल ही आ जायेगा।

लेकिन जैसेे- तैसे खुद को सँभाला और कमरे में पड़े हुए चीजों को ध्यान से देखने लगा, शायद मैंने इतने गौर से कभी नहीं देखा होगा या यूँ कहें कि कभी मौका ही नहीं मिला मुझे। इस जिंदगी के आपा-धापी में मैं जैसे सब कुछ भूल गया था। मैं खुद के घर को अजनबी की तरह देख रहा था। 

दीवार पर लगी घड़ी,बंद पंखे, कोने में पड़ी चटाई,और आईना जिसे देख रोज मैं घर से निकला करता था। दिनभर किताबों को पढ़कर, शाम संगीत में डूब कर, लेकिन रात ! रात तो जैसे पहाड़ जान पड़ती है और घड़ी की टिक-टिक करती आवाज कमरे में पड़े सन्नाटे को चीर कर मानो कह रही हो युद्ध के पहले इतनी खामोशी अच्छी नहीं ! हां यह युद्ध ही तो है। खुद से जो खुद को हराकर जग को जीतना है। अगर बाहर नहीं जाएंगे तो स्वंय को, समाज को व अपने परिवार को सुरक्षित रख पाएंगे। अब तो छत के मुंडेर पर कौवा भी कांव-कांव नहीं चिल्लाता शायद वह भी समझ गया है।

अब कोई नहीं आने वाला है। पहले की जिंदगी में और अब की जिंदगी में काफी अंतर आ गया है। पहले समय का अभाव था, आज समय का प्रभाव है।

अर्थात पहले समय के अभाव में जीवन व्यतीत करते थे आज उसके प्रभाव में सभी जी रहे हैं। काफी दिन बीत गए अब तो लगता है जैसे शहरों की गलियाँ वीरान हो गई हैं और सड़के भी इक्का-दुक्का वाहनों से सुशोभित हो रही है आजकल। घर में पड़े-पड़े जूते चप्पल भी गर्द से भर गए हैं।

पहले जैसा कोई शोर नहीं, हर जगह जैसे नीरवता कायम हो गई है। इस वैश्विक महामारी ने पूरी सृष्टि को जैसे स्तब्ध कर दिया और दुनिया ठहर -सा गया है। यह शायद ही पहले कभी हुआ हो और इस ठराव की खामोशी युद्ध के पहले की खामोशी की तरह ही लग रही है। लेकिन यह युद्ध बिना हथियार के एक मानव से दूसरे मानव के साथ हो रहा है। जो कि हथियार से भी ज्यादा खतरनाक है। इसी युद्ध में तिल-तिल कर मरना पड़ता है। ऐसे हृदय विदारक दृश्य को देखकर रूह भी कांप उठती है। अब तो बिस्तर से उठना भी खतरनाक लगता है और ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सबकुछ ठीक हो जाए और हम पुनः स्वच्छंद होकर इस जगत में विचर सकें।


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