परछाई
परछाई
हर लड़की के पैदा होने पे उसकी मां उसमे अपनी खुद की परछाई देख खुशी से फूली नहीं समाती और जब उसी लड़की को घर से विदा करते हुए वो मां चाह कर भी उसे गले से लगा न सके तो सोचिए उस मां के दिल पे क्या बीत रही होगी ?
जिस बच्ची को सीने से चिपकाए वो दिनभर घर का सारा काम करती, खेतो की बुवाई करती, आज उसी बेटी को दो पल के लिए सीने से लगा जी भर रो भी न सकी।
जिस बच्ची के रोने से वो भागती हुई उसके पास जाती आज उसके आंखो से लगातार बहते आसूं भी अपने आंचल से पोछ न सकी।
जिस बच्ची की मीठी और भोली बातों को सुनते वो सारी दोपहरी काट देती थी उस लड़की के पास दो पल बैठ के उसका सुख दुख भी न बाट सकी।
दिया गोद में दो साल की लड़की लिए कमरे के एक कोने में धीरे धीरे सुबुक रही थी और उसकी मां कुसुम उसी कमरे के दूसरे कोने में बैठी रो रही थी। अगल बगल दिया के भाई बहन उसे घेर के बैठे थे, बाहर उसका पति दरवाजे पे खड़ा उसके चलने का इंतेजार कर रहा था और पिता वो चुपचाप दिया को ले जाने वाली ऑटो के पास खड़ा था मानो अपनी बेटी को विदा करने के लिए वो अपना जी कड़ा कर रहा हो।
भाई ने धीरे से कहा, "दीदी चल ऑटो खड़ी है ट्रेन का टाइम भी होने वाला है लेट हो जाओगी।"
वो उठी और आसुओं से भरी एक नजर अपनी मां की तरफ डाली दो कदम आगे की ओर बढ़ाई और फिर एक कदम पीछे खींच वो आसूं पोछते कमरे से बाहर निकल गई और निकल गए उसके पीछे वो सभी जो उस कमरे में मौजूद थे रह गई तो सिर्फ उसकी मां वहीं दरवाजा पकड़ी उसके ओट में।
बाहर ऑटो के पास से पिता थोड़ा आगे बढ़ा और न जाने क्या सोच के वो अपने पिता से लिपट के बहुत जोर जोर से रोने लगी। ऐसा लगा मानों सालों का दुख वो आज इन आसुओ से निकाल के उनके सामने रख देना चाहती हो और उसके साथ ही बस एक ही बात वो बार बार रट रही थी, "मुझे नही जाना है पापा, मुझे नही जाना।"
उसकी गोद में उसकी बेटी भी रोने लगी इसलिए नही की उसको जाने का दुख था बल्कि इसलिए क्युकी वो उसकी अपनी परछाई थी। जिसे अपनी मां अपनी वजूद के दुख का आभास था। जिसकी मन की पीड़ा उसे महसूस हो रही थी और दिल में उठते तूफान को भी वो समझ पा रही थी।
पापा ने हाथ में कुछ पैसे रखे माथे पे पिता का स्नेह भरा आशीर्वाद दिया और साथ ही दिया एक वादा, "बीटी जब भी बुलाएगी तेरी मां भले न आए पर जब तक तेरा ये पिता है वो जरुर आएगा। चिंता न कर और रो तो बिल्कुल मत खुशी खुशी जा रोएगी तो सिर दुखेगा बीमार हो जायेगी फिर अपनी बेटी कैसे संभाल पाएगी।"
एक बेटी के प्रति पिता का ये स्नेह हर किसी को भावुक कर दे रहा था। मगर मां किसी अपराधबोध के तले दबी अभी भी उसी दरवाजे के पास खड़ी थी।
दिया ऑटो में बैठ के रोते रोते चली गई और छोड़ गई मेरे मन में उठता तूफ़ान। मैं कुछ देर वहीं कुसुम के पास बैठी और फिर अपने कमरे में आ गई। खाना खाने की इच्छा थी नही सो नही खाई बस चुपचाप बिस्तर पे आके लेट गई। जितनी बार आंखे मुंदती दिया का चेहरा याद आ जाता।
उसका रोना मुझे अंदर तक हिला जाता और मैं ये सोचने पे विवश हो गई की क्या उस रात की सुबह भी दिया अपनी मां को पूरे घर में ढूंढते ऐसे ही रो रही होगी?
ऐसे ही अपनी मां के सीने से लिपटने को तरस रही होगी।
जब उसकी मां उसे और उसके छोटे भाई को उसके पिता के भरोसे छोड़ अपनी नई जिंदगी की शुरुवात करने किसी और के साथ चली गई थी।
अपनी मां के आंचल में छिपने की उम्र में जब उसके उपर से ममता का वो आंचल हट गया होगा तो वो तड़प क्या आज जैसी ही रही होगी या इससे कहीं ज्यादा?
जिस उम्र में लड़कियो को मां की कदम कदम पे सबसे ज्यादा जरुरत होती है उस उम्र में अपनी बेटी हो छोड़ देने का दुख क्या एक मां को उस वक्त न आया होगा?
क्या उस वक्त उसे जनने की पीड़ा का एक पल को भी एहसास न हुआ होगा ?
जिस बेटी को रोज सिर में तेल लगा चोटिया गूथ के दुलार करती रही होगी क्या उस वक्त उसके चेहरे की मुस्कान ने उसका मन आत्मगलानी से न भरा होगा?
आखिर ऐसी कौन से मजबूरी थी जो अपने बच्चो से एक झटके में दूर कर दी ?
पति तो वेहसी था कई बार बताया था बातों बातों में उसने मगर कौन मां अपनी फूल सी बच्ची को दरिंदे के पास छोड़ के चली आती है।
लाख उसके पति का खून उस बेटी के भी रगो में बह रहा हो मगर उसकी भी तो परछाई उसके चेहरे में, उसके हाव भाव में, उसके मुस्कान में दिखती थी।
कितना अजीब होता है ना जब हम सब कुछ छोड़ के आगे बढ़ जाते हैं मगर आगे चल के हमारा वही अतीत बार बार हमारे राहों में हमसे टकराता है।
ठीक वैसे ही जैसे आज कुसुम के सामने उसका अतीत है उसकी खुद की परछाई उसकी बेटी दिया। वक्त हालात और पति की सताई हुई उसी अवस्था में जिस अवस्था में कुसुम ने अपने पति का घर छोड़ देने का फैसला लिया था।
एक झटके में छोड़ आई थी उस चौखट पे अपनी परछाई जिस चौखट को अर्थी के साथ लाघने का वचन उसने अग्नि को साक्षी मान सात फेरों के वक्त लिया था।
मगर जब सालों बाद होश आया तो सब कुछ बिखर चुका था। ऐसा नहीं था की उसका दूसरा पति उससे प्रेम नही करता था ख्याल नही रखता था। सब कुछ था अब उसके पास वो रानी की तरह उस घर में राज करती थी। उसके दूसरे बच्चे भी उसको हमेशा अपनी मां से बढ़ के मानते थे। वो भी उनपे अपना भरपूर स्नेह लुटाती थी मगर फिर भी कुछ कमी थी। मातृत्व का एक हिस्सा अपने खुद के जने बच्चे को कभी भूल नही पाया। भूल भी कैसे पता आखिर ९ महीने पेट में रखने और फिर उन्हें जनने का दर्द उसने अकेले सहा था। फिर उन्हे खुद से दुर करने का दर्द वो आज तक भुगत रही थी।
आज १५ साल बाद कुसुम का दूसरा पति न जाने क्या सोच कुसुम के खुद की जनी बेटी को दामाद और बेटी के साथ शहर आने का टिकट भेज दिया था और साथ ही दिया था एक वादा, "यहीं आजा बेटी हमारे पास रह और कमा खा। जमाई बाबू को भी कुछ काम दिला देंगे तो दो जून की रोटी के लिए किसी का मुंह नही देखना पड़ेगा न किसी के आगे हाथ फैलाने की इस्थिति आयेगी।"
दिया खुशी खुशी अपने पति के साथ शहर आ गई मगर जिसको निठले बैठे रहने की लत के साथ साथ शराब गांजे भी फूकने को मिल जाए वो भला क्यों ही कमाएगा खायेगा। दो दिन बीता नही की उसके पति ने वापस चलने का दबाव बनाना शुरु कर दिया। घर में लड़ाई झगड़ा सब हो गया। उसकी मां रोती रही गिड़गिड़ाती रही उसको वास्ता देती रही मगर उसके आंसु जमाई बाबू को नही दिखाई दिए। दिखाई भी कैसे देते निक्कमेपन की आंखों पे पट्टी जो चढ़ी थी।
अंततः उसके दूसरे पिता अपनी बेटी और जमाई का वापस लौटने का तत्काल टिकट निकलवा लाए और जमाई बाबू के हाथ में दे दिए।
अपनी बेटी की तरफ मुड़े और हाथ जोड़ के ये कहते हुए माफी मांग ली की, "तुम्हारी मां मेरी वजह से कभी तुम्हारी मां न बन सकी और आज जब मैं अपने कर्मो का प्रायश्चित करने चला तो मैं तुम्हारा पिता न बन सका। मुझे माफ कर दे बेटी तुम्हारे दुख का कारण मैं हूं।
बस अपनी बेटी की अच्छी परवरिश करना उसे प्रेम देना वही उसकी असली अधिकारी है कोई दूसरा नहीं। हमारी गलती को फिर से मत दोहराना नही तो भगवान भी मुझे कभी माफ नहीं करेगा... कभी माफ नहीं करेगा।"
एक मां और बेटी के अंतर्मन का दुख और पिता का प्रायश्चित मेरी कलम से।
