अनुठा प्रेम
अनुठा प्रेम
रात को मौसम अच्छा था इतनी गर्मी में भी आज हल्की ठंडी हवा बह रही थी और आसमान में बादल घेरे थे। मैं भी अपने पति के साथ नीचे उतर गई टहलते हुए ठंडी हवा लेने। जगत भाई बाहर ही कुर्सी डाल के बैठे थे अंदर कुसुम और उसके बच्चे टीवी देख रहे थे कुल मिला के बहुत शांति भरा माहौल था उनके घर।
हम टहल ही रहे थे की तभी जगत भाई किसी को फोन लगाने लगे दो तीन बार कोशिश करने के बाद फोन आखिरकार लग गया तो खुश होते हुए बोले, " कहां तक पहुंची बीटी?
अच्छा... अच्छा.... और खाना खाया?
हां टाइम से खा लेना और बच्चो को भी खिला के सुला देना। हां हां ठीक है। हेलो.... हेलो... हेलो...."
मैं उनकी बातों से इतना समझ गई थी की ये दिया से बात कर रहे। फिर उनको बार बार हेलो हेलो करते सुन जब रहा न गया तो बोल उठी, "भैया ट्रेन में नेटवर्क न होगा।"
वो भी फोन देखते हुए बोले, "हां लग तो रहा है। चलो काम भर बात हो गई तो तसल्ली मिली थोड़ी।"
मैं शाम की घटना को आंखो से देखने के बाद ये यकीन नहीं कर पा रही थी की ये वही जगत भाई हैं जो दिया के जाने के बाद कुसुम पे आरोप प्रत्यारोप लगा रहे थे। इसी लड़की को लेके कुसुम को चार बातें सुना रहे थे। आखिर इतनी जल्दी शांत कैसे हो गए?अब देखो खुदी फोन लगा के बातें कर हाल चाल भी ले रहें हैं आखिर ये दिखाना क्या चाहते हैं और किसको? सभी तो इनके स्वभाव से वाकिफ हैं।
अच्छे हैं तो बहुत ही अच्छे और अगर बुरे हो गए तो इनसे बुरा फिर कोई नहीं। मैं ये समझ नहीं पा रही थी की जगत भाई उस वक्त नशे में थे या अब नशे में हैं?
चलो जो भी हो कम से कम दिया को तो इस बात का आभास तो ना होगा की उसके जाने के बाद यहां क्या हुआ? वो इसी झूठे प्रेम में खुश रहे की उसके दूसरे पिता भी उसको बेटी सा मान और प्रेम देते हैं। कम से कम वो इस बात से तो खुश होगी की हां उसकी मां ने सही फैसला लिया ऐसा प्रेम करने वाला पति कहां मिलेगा किसी को?
हां सच ही तो सोचा मैंने ऐसा प्रेम करने वाला पति....?
मैं भी तो शुरू शुरू में अपने पति से इसी बात की अवहेलना किया करती थी की देखो कुसुम का पति उससे कितना प्रेम करता है। वो खुद ही बाजार जाके तीज पूजा के लिए सारा सामान ले आए थे। क्या सिन्दूर, क्या बिंदी, चूड़ी कंगन भी उसके नाप की ले आये, साथ ही एक खूबसूरत साड़ी वो भी पूरे २५०० की। सोने के कान के बूंदे और उसके साथ ही पायल बिछिया।
कितनी भाग्यशाली है कुसुम यहीं उस वक्त मैंने सोचा था और उसके भाग्य से थोड़ी ईर्ष्या के कारणवश मैंने अपने पति से बोल भी दिया था, "एक तुम हो जो फल तक न ला सके। मुझे खुद ही जाना पड़ा मार्केट, एक तो तुम्हारे लिए व्रत भी रखूं ऊपर से भूखी प्यासी सामान भी खुदी खरीदने जाऊ।"
मैं उस दिन कितना ही लड़ी थी अपने पति से जब कुसुम को खूबसूरत तरीके से सजा सवरा देखी थी। सच उस वक्त उसे देख के लग ही नहीं रहा था की ये ३ बच्चो की मां है। भर हाथ मेंहदी और उसमे साड़ी के मैचिंग की चूड़ी खनक रही थी। पैरों में महावार और उसमे चौड़ा सा पायल और बिछुआ छनक रहा था। बड़ी सी बिंदी और जुड़े में बंधा गजरा महक के साथ पति के प्रेम को दर्शा रहा था। पूजा के समय साथ बैठ के पूजा करना और फिर अगले दिन सुबह भोर में पति के हाथों व्रत का पारण ऐसा अनूठा प्रेम देख लगा सात जन्म तक दोनों का साथ बस यूं ही बना रहे।
तब मुझे कहां पता था ये जिसे मैं प्रेम समझ रही हूं वो असल में कुसुम के पैरों की बेडिया हैं ताकि वो कही निकल न सके वो इसी मोहपाश में बंधी, इसी प्रेम के बंधन में जकड़ी रहे।
इस बात का आभास तो तब हुआ जब कुछ ही दूर रहने वाली कुसुम की बहन से एक दिन मेरी कुसुम के घर पे ही मुलाकात हुई। बातों बातों में उसने अपने घर देवी जागरण के लिए मुझे भी नेवता दे दिया। देवी का जागरण भला मैं कैसे मना करती हां बोल दी।
तय दिन जब तैयार हो मैं निकलने को हुई तो पति देव ने पूछ ही लिया, "अकेले जाओगी या कुसुम साथ जायेगी?"
मैं बोली, "कुसुम की बहन के घर जागरण है वो तो शाम को ही शायद पहुंच गई होगी। मैं देखती हूं उसकी किसी बेटी को ले के चली जाऊंगी।"
पतिदेव "ठीक है" बोल के टीवी देखने में व्यस्त हो गए और मैं कुसुम के घर की तरफ बढ़ गई।
कुसुम के घर पहुंचते ही देखी कुसुम घर पे ही थी वो भी घर के ही कपड़ो में मगर बच्चे तैयार थे। मैं उसे देखते ही पूछ उठी, "जागरण में नही जाना है क्या?"
वो मेरी तरफ़ देखते हुए बोली, "तू बच्चो के साथ चली जा मैं जगत के साथ ही जाऊंगी।"
मैं मुस्कुराते हुए बोली, "कभी तो साथ छोड़ दिया कर कुसुम जगत भाई का।"
बदले में वो भी मुस्कुराते हुए जवाब दी, "मैं तो छोड़ दू पर जगत न छोड़ेगा। मैं इस दरवाजे से बाहर बस उसके साथ ही निकल सकती हूं या जिसके साथ वो चाहे उसके साथ निकल सकती हूं।"
मैं आश्चर्य से उसे देखते हुई पूछी, " वो तेरी बहन का घर है वहां भी न जा सकती कुछ कदम की ही तो दूरी है।"
वो थोड़ा दुखी मन बोली, "ये कुछ कदम भी मिलों के हैं मेरे लिए सोनल, मैं अपनी बहन के घर आज साल भर से न गई।"
ये सुन तो मुझे बहुत दुख हुआ मगर फिर लगा कम से कम जगत भाई अपने साथ तो ले जाते हैं। एक मेरे पति को देखो बोल दी की जा रही हूं तो खुश होके टीवी देखने लगा। ये नहीं की तैयार होके खुद भी चल चले साथ में। कुसुम को पति के साथ जाने का दुख था तो मुझे पति के साथ न जा पाने का दुख।अपना अपना दुख अपनी अपनी समझ की फेर। मगर कुछ के दुख को समझ पाना इतना आसान नहीं क्युकी जरूरी नहीं जो दिखता हो वही सत्य हो कभी कभी झूठी मुस्कान के पीछे भी घोर दुख होता है।
