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Anjali Srivastava

Abstract Drama Inspirational

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Anjali Srivastava

Abstract Drama Inspirational

गुड़िया की शादी

गुड़िया की शादी

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हर लड़कियों की तरह मुझे भी गुड्डे गुड़ियों का बहुत शौक था। पर मेरे पास एक ही गुड़िया थी जो मेरे साथ 28 सालो तक रही, नाम तो मैंने उसका कभी रखा नहीं क्योंकि मैंने कभी सोचा ही नहीं कि इसका कुछ नाम भी होना चाहिए। पर ऐसा नहीं था 10 साल बाद उसका नामकरण भी हुआ और उसका नाम चिक्की रखा गया। अब आप सोच रहे होंगे 10 साल क्यों लग गए मुझे नाम रखने में, तो मैंने पहले ही बता दिया मैंने कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया कि गुड़िया का नाम भी होना चाहिए। इसका नाम तो 8 साल बाद हुई मेरी छोटी बहन ने रखा वो भी जब वो खुद 2 साल की हो गयी तब।


फिलहाल के लिये अभी इस कहानी में मैं हूं और मेरी गुड़िया और उससे जुड़ा ये किस्सा और मेरे लिए एक सीख परंपरा से जुड़ा हुआ, जो मुझे 30 साल बाद समझ आया। तो हुआ ये की सबकी तरह मुझे भी गुड्डे गुड़िया का खेल बहुत पसंद था, ओर मेरे पास बस एक गुड़िया थी गुड्डा नहीं था। पर कोई नहीं मेरी सहेली के पास एक गुड्डा था, जो ठीक ठाक ही था पर शायद मेरी गुड़िया से कम। एक दिन खेल खेल में तय हुआ कि क्यों ना हमलोग भी गुड्डे गुड़िया की शादी करते हैं। मैं भी राजी ओर मेरी सहेली भी राजी, घर में माँ दादी को पता चला वो इसके खिलाफ पर साम्राज्य मेरा हो तो भला कौन मुझे रोक सकता था। घर में रोना धोना शुरु और तो और ज़िद पकड़ के बैठ गयी करनी है तो करनी है गुड़िया की शादी। सब सिर झुका लिए मेरे आगे और लगी घर में गुड़िया की शादी की तैयारियां होने। छोटी कड़ाही आयी छोटा चूल्हा बना और उसी पे दादी और माँ ने पुड़िया बनाई, सेवइयां बनी, और आलू की सब्जी भी बनी। तय समय पे मेरी सहेली गुड्डे की बारात ले के मेरे घर आ गयी कुछ और दोस्तों के साथ। सबने गाने गाए, डांस किया, अंताक्षरी खेली, पकवान खाये, मेहंदी लगाई और गुड़िया की शादी की। शादी तो हो गयी, सारे रस्म भी हो गये हमारे बाल मन के समझ से। पर अभी तो सबसे बड़ी और अद्भुत बात होनी बची थी और वो थी गुड़िया की विदाई। पर कोई नहीं गुड़िया की विदाई भी हो गयी खुशी खुशी और मैं बिना रोये अपनी गुड़िया को विदा कर दी अपने सहेली के गुड्डे के साथ।


दोपहर से शाम हो गयी शाम से रात और मेरी गुड़िया को घर वापस करने मेरी सहेली घर नहीं आई। मैं गेट पे गुमसुम खड़ी एक टक अपनी सहेली का गेट देख रही थी पर वो तो खुशियां मना रही थी क्योंकि गुड्डा तो था ही उसके पास अब गुड़िया भी उसकी हो गयी, वो भला क्यों वापस करती मेरी गुड़िया।


जब रात बढ़ने लगी और 7 से 8 बज गए मैंने आव देखा ना ताव और दनदनाती अपनी सहेली के घर के गेट पे पहुँच गयी। घर का गेट काफी बड़ा था और ऊँचा भी तो खोल तो पाती नहीं इसलिए गुस्से में तब तक बेल बजाती रही जब तक उसकी दादी ने गेट नहीं खोल दिया। गेट खुलते ही मैं भागती अपनी सहेली के रूम में पहुँची ओर अपनी गुड़िया उसके हाथ से छीनती हुई बोली दो मेरी गुड़िया इधर शर्म नहीं आती तुम्हें मेरी गुड़िया क्यो नहीं दी तुमने। वो हक्का बक्का सी मुझे ही देखती रही और बिना जवाब दिए जोर जोर से रोना शुरू कर दी। उसके घर के लोग इकट्ठे हो गये क्या बात हो गयी और मैं भी हैरान एक तो मेरी गुड़िया खुद नहीं दे रही और ऊपर से नाटक कर रही खुद रोने का मैं भी कम नहीं बस यही सोचते मैं भी रोना शुरू कर दी। थोड़े देर में हम दोनों को चुप करा कर किसी तरह पूछ पाए घर के लोग उससे की वो क्यों रो रही, तो पता चला मैंने उसकी गुड़िया ले ली। मैं दुबारा रोना शुरू कर दी और रो रो के बोलने लगी एक तो मेरी गुड़िया खुद रखी है दादी ऊपर से बोल रही मैंने ले ली उसकी गुड़िया। उसके पास तो गुड़िया थी ही नहीं ये तो मेरी गुड़िया है। उसने भी रोते हुए ही बोला आज ही तो तुम्हारी गुड़िया से अपने गुड्डे की शादी की हूँ अब ये मेरी गुड़िया है। मैंने भी गुस्से में बोला शादी किया है गुड्डे से तो क्या खरीद थोड़ी ली तुम, गुड़िया तो मेरी ही है और मैं सबको धक्का देते हुए वहाँ से अपनी गुड़िया ले के भाग आयी। 


वो भी दौड़ती हुई मेरे पीछे आयी और लगी मेरी गुड़िया मेरे हाथों से छीनने हाथापाई भी हुई रोना धोना, पैर पटकना भी हुआ। पर दोनों के घरवालों ने समझा बुझा के मामला कोर्ट तक जाने से पहले ही रोक लिया। उसे भी समझाया गया गुड़िया तो उसी की है शादी की हो तो क्या उसकी गुड़िया उसके पास ही रहेगी बस जब तक खेलना तब तक वो तुम्हारी भी गुड़िया है। और मुझे भी समझाया गया कि शादी के बाद गुड़िया पे उसका भी अधिकार है वो भी खेल सकती है तुम्हारी गुड़िया। क्योंकि समाज में ऐसा ही होता है शादी के बाद गुड़िया गुड्डे के घर ही रहती है। सुन के बहुत बुरा लगा ये क्या है ये कैसा रिवाज अपनी गुड़िया भला कोई दूसरे को क्यों दे दे और मेरी गुड़िया पे मुझसे ज्यादा उसका अधिकार ये जान के तो मुझे बहुत बुरा लगा। खैर उस दिन के बाद से मैं अपनी गुड़िया अपनी सहेली के नज़रों से छुपाये ही रखती और गुड़िया उसके घर भेजना तो दूर उसे खेलने भी नहीं देती। 


जब बड़ी हुई तो समझ आया सच ये दुनिया ही ऐसी है ये समाज ही ऐसा है। जो अपनी गुड़िया को बिना किसी को जाने अनजान हाथों में सौंप देता है और उस पे से अपना अधिकार भी खो बैठता है। ऐसा है नहीं आपकी गुड़िया पे आज भी आपका उतना ही अधिकार है समाज के बनाये नियमों को तोड़िये और अपनी गुड़िया के जरूरत पड़ने पे सही समय पे उसका साथ दीजिये। मेरी तो वो मूक गुड़िया थी जिससे मेरा बस खेल खेल का नाता था पर आपकी गुड़िया से आपका जन्म का नाता है उसे किसी दूसरे को छीनने मत दीजिये। अपनी गुड़िया को एक सुरक्षित संसार दीजिये।


अगर मेरी ये कहानी आपको पसंद आई तो अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे। प्रतिक्रिया दे ना दे पर अपनी गुड़िया का साथ जरूर दे।



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