प्रार्थना
प्रार्थना


प्रिय डायरी,
चलो आज कुछ गंभीर हो जाएं। अरसे बात तुमसे बातें करते हुए अच्छा लग रहा है। कुछ और करने को भी तो नहीं है। पिछली बार हमने मंदिरों की, पूजा पाठ की बात की थी। आज सामान्य रूप से उसी से जुड़ी क्रिया ‘प्रार्थना’ की बात करें। यह हमारे दैनिक जीवन में एक बहु प्रचलित शब्द है। मंदिरों में ही नहीं, अपने घरों में भी हम ईश्वर की प्रतिमा आगे दिया जलाकर, कुछ श्लोक पढ़ कर, कुछ प्रसाद चढ़ा कर प्रार्थना करते हैं, रोज़ का एक साधारण सा कर्मकांड़। क्या वास्तव में प्रार्थना शब्द इतना संकुचित, संकीर्ण है!
प्रार्थना मूलतः संसकृत के दो शब्दों से बना है- “प्र” और “अर्थ”। ‘प्र’ का अर्थ है ‘प्रकर्षेण’, यानी उत्कंठा पूर्वक, तीव्रता से या तेजी से ऐसा हुआ। ‘अर्थ’ धातु का अर्थ है - अर्थना, चाहना, कामना करना, इच्छा करना। सरल भाषा में कहा जाए तो प्रार्थना अपने से किसी श्रेष्ठ से या विशिष्ट से विनम्रता पूर्वक कुछ मांगना, कुछ पाने की कामना करना है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किया जाने वाला उद्यम यानी परिश्रम है। और जहां परिश्रम है वहां कर्म यानी पुरुषार्थ है। इस रूप में हर धर्म में प्रार्थना का यही अर्थ है। स्वयं गांधीजी ने प्रार्थना के सकारात्मक प्रभाव का बखान किया है।
प्रार्थना मनुष्य का जन्मजात स्वाभाविक धर्म है। हर युग में, हर सभ्यता हर संस्कृति में प्रार्थना होती रही है। आदिम जनजातियां प्रकृति का आभार माने के लिए प्रार्थना करती थीं। सभ्यताओं के विकास के साथ प्रार्थना का स्वरूप भी बदला। वैदिक युग में यज्ञ और कर्मकांड़ को प्रर्थना कहा गया। बाद के समय में हमारी सुविधा के लुए प्रार्थना का रूप बदला। आज प्रार्थना और याचना एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं।
किंतु हमें प्रार्थना और याचना के मूलभूत अंतर को समझना होगा। याचना व्यक्ति द्वारा अपनी भौतिक सुख सुविधाओं की पूर्त के लिए की जाती है। इसमें कोई इच्छा शक्ति या संकलप नहीं होता। आत्मविश्वास और आत्मगौरव नहीं होता। परोपकार, विवेक, विचार या कर्म नहीं होता। यह एक इच्छा वृत्ति है जिसमें किसी तरह के परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती। बस परिस्थिति से पलायन की भावना होती है। यह ‘याचक’ वृत्ति है, एक नकारातमक (नेगेटिव) स
्थिति है। विपरीत इसके प्रार्थना एक सकारात्मक क्रिया, निष्काम कर्म है। परोपकार, आत्मसम्मान, जीवन संग्राम में जूझने का सामर्थ्य इसके मूल तत्व हैं। गहन विचार और विवेकशीलता अपेक्षित है। लक्ष्य पाने के लिए श्रम और करना है। अर्थात् पुरुषार्थ आवश्यक है। साथ ही कर्मफल का अहंकार भी नहीं करना है। प्रार्थना हमको ‘प्रार्थी ‘बनाती है।
कुछ छोटे-छोटे उदाहरणों से इस बात को समझने का प्रयत्न करते हैं। स्त्री सदा परिवार के मंगल के लिए निष्काम प्रार्थना करती है। निरंतर प्रयत्नशील रहती है, हर कर्तव्य का तन मन से पालन करती है। याचना नहीं करती। है। राम की विनम् अर्थना से प्रभावित होकर समुद्र ने पार जाने की राह बताई। वहीं रावण की बात लें- महा बली, महा ज्ञानी, महा तपस्वी। किंतु उसकी तपस्या स्वार्थपरक रही। दंभ और अभिमान के वश हो कर उसने वर भी साधिकार मांगे, विनम्रता से नहीं। परिणाम हम जानते हैं, उसका अहंकार ही उसका काल बना। अर्जुन ने युद्ध में कृष्ण के साथ की कामना की और दुर्योधन ने कृष्ण से सेना की याचना। परिणाम सर्व विदित है।
आज विश्व किन कठिन परिस्तिथियों से जूझ रहा है हम अच्छी तरह जानते हैं। अनेकानेक सेनानी अपनी-अपनी तरह से इस युद्ध में अपना योगदान दे रहे हैं। इनमें वैज्ञानिक हैं, विद्याविद हैं, उद्योगपति हैं, स्वास्थ्यविद और स्वास्थ्य सेवालीन लोग हैं और अनगिनत क्षेत्रों के अनगिनत कर्मचारी हैं। हमारा पहला कर्तव्य है कि हम इनके प्रयासों का सिर्फ बखान या अभिनंदन न करें, बल्कि इनके हर प्रयास के सफलता की कामना करें। इनकी सफलता के लिए प्रार्थना करें। इन्हें हर तरह का सहयोग दें, इनके हर आदेश का निर्देश का पालन करें। संवेदनशील बनें, संयमी बनें, सहनशील और धैर्यवान बनें। यह सब करने के लिए हमें सतत प्रयत्नशील रहना है, सकारात्मक सोच एवं ऊर्जा का स्रोत बनना है। अर्थात् सक्रिय कर्म करना है, करते रहना है, सतत प्रार्थनारत रहना है। यह सब सिर्फ सोचने भर से नहीं होने वाला। केवल ईश्वर के सामने हाथ जोड़कर, होनी- अनहोनी का सारा भार उस पर थोपकर याचना नहीं करनी है। अब यह हमें तय करना है कि इस विषम से विषमतर होती परिस्थित में हम निष्क्रिय याचक बने रहेंगे या प्रार्थी बन सक्रिय सहयोग देंगे।