आशा
आशा


प्रिय डायरी,
हर उगता सूरज एक नई रोशनी लाता है, नई ऊर्जा से भर देता है तन मन। और साथ ही लाता है एक नई ‘आशा’, एक छोटा सा शब्द किंतु कितना प्रेरणा दायक, सकारात्मकता से भरा हुआ। आशा कहें, आस कहें, उम्मीद कहें या ‘होप’ मूल भाव और अर्थ एक ही है। आदम और हौव्वा जब स्वर्ग से निकाले गए तो शायद उनके साथ ही उतरी थी आशा, उनका संबल बनी थी सृजन के आदि क्षणों में। महाप्रलय के समय मनु ने एक-एक जीव प्रजाति से नौका भरी थी इसी आशा से कि प्रलय के पश्चात् नई सृष्टि होगी। आशा का बीज हमारे अंदर जन्म से ही होता है। हमारे साथ ही पलता बढ़ता है। परंतु इस वृक्ष की विशेषता यह है कि इसमें केवल एक ही पत्ता होता है जिस पर लिखा होता है ‘आशा’। हां कभी- कभी निराशा के बादलों से घिर जाता है, ओझल हो जाता है पर रहता वहीं है।
मनुष्य मूलतः आशावादी है। आशा का चक्र हमारी दिनचर्या के साथ ही शुरू हो जाता है। सुबह उठते ही चाय की आशा! (न मिले तो जैसे बुखार ही चढ़ जाता है)। सारा जीवन सतत आशा के चारों ओर चक्कर काटता है जैसे- जीवन में, व्यवसाय में सफलता की आशा, और-और आगे बढ़ते जाने की आशा, बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की आशा और न जाने क्या-क्या! हम ही क्यों समस्त जीव-जंतु, पशु पक्षी भी तो आशा पर ही आश्रित हैं। घोंसला बनाने के लिए उपयुक्त टहनियों, तिनकों की आशा, चूजों की भूख मिटाने को चुग्गे की आशा छोटे से छोटे पंछी में भी पाई जाती है। हर छोटा बड़ा जानवर सुरक्षित जीवन की आशा करता है। पेड़ पौधे भी अपने लिए संतुलित पर्यावरण की ही आशा करते हैं। यों समझें कि आशा प्राणि मात्र का संबल है, सहज स्वभाव है।
आशा की दो बहने हैं- अपेक्षा और निराशा। तीनों में होड़ सी लगी रहती है आगे आने की। वैसे आशा और अपेक्षा का चोली दामन का साथ है। दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं तो एक दूसरे की पूरक भी हैं। आशा के उभरते ही अपेक्षा उपस्थित हो जाती है। आशा पूरी होती है तो अपेक्षा ख़ुश! फिर दूसरी, तीसरी, अगली और अगली – कोई अंत नहीं। ‘निराशा’ नितांत अवसरवादी है। जिस पल आशा और अपेक्षा का समीकरण चुका- निरा
शा अपना सर उठाती है। निराशा की एक विशेशता है, इसका स्वभाव कुछ स्थायी है। जहां आशा से प्रेरित व्यक्ति गतिशील है वहीं निराशा से ग्रस्त व्यक्ति का जीवन, विवेक, विचार, ऊर्जा सब थम से जाते हैं। चाय की बात ही को लें- उठते ही चाय की इच्छा पूरी हो यह अपेक्षा रहती है। यदि किसी कारणवश पूरी न हो तो पूरा दिन कैसा उखड़ा-उखड़ा, नीरस बीतता है सबका अपना-अपना अनुभव है।
हर रात सोते हुए हम अच्छी सुबह की, दिन के अच्छे शुरुआत की आशा करते हैं, कामना करते हैं। किंतु जब बनते- बिगड़ते हालातों की, बीमारी- महामारी की बातें कानों में पड़ती हैं तो मन निराशा और अवसाद से घिर जाता है। आज जिस परिस्थिति से हम जूझ रहे हैं कभी-कभी लगता है हम प्रशासन से कुछ ज़्यादा ही अपेक्षाएं पाल रहे हैं। इसकी अपनी सीमाएं हैं, अपनी कठिनाइयाँ हैं। परिस्थितिजन्य आवश्यकता को देखते हुए अपने नियमित, सीमित साधनों का शीघ्रातिशीघ्र संवर्धन करने, जीवनदायी साधनों और उपकरणों का निर्माण करने और तत्परता से जन सामान्य तक इन्हें पहुँचाए जाने की चुनौतियाँ हैं ताकि मृत्यु का तांडव रोका जा सके। ऐसी या इससे भी विषम परिस्थितियां अनेकों बार आई हैं और आगे भी आती ही रहेंगी। देर सबेर हर बार इन युद्धों हम जीते ही हैं। यह सच है विजय पथ पर कुछ खोना भी पड़ता है। हमने भी बार-बार कुछ न कुछ खोया है, इसका खेद भी है। किंतु इस खेद को, विगत की हार को अपने ऊपर हावी न होने दें यही समय की मांग है। हम सराहना नहीं कर सकते, साथ नहीं निभा सकते तो न सही; यह हमारी सोच है। किंतु निरर्थक आलोचना न करें, अपने चारों ओर नकारत्मकता और निराशा का संचार-प्रचार न करें यह हमारा कर्त्तव्य है, बेमन से ही सही निभाए।
प्रिय डायरी, हमें समझना होगा कि ‘आशा’ एक ऐसी विलक्षण श्रृंखला है कि जिसमें बंधकर हम निरंतर गतिमान रहते हैं लेकिन इससे मुक्त होकर हम जड़ हो कर रह जाते हैं।