पल्लू का लल्लू
पल्लू का लल्लू
ललित , जो बेहद प्यारा सुंदर सा गोल मटोल बच्चा । बचपन से ही बड़ा बहादुर निडर और हंसमुख स्वभाव का बालक था । खेल खिलौने से अधिक किताब कॉपी पेंसिल पेन आकर्षित करते थें उसे । जब वो मात्र डेढ़ वर्ष का था तब अपनी बड़ी बहनों के साथ स्कूल जाने की ज़िद करता था । मना करने के बाद बहुत रोता था और रोते-रोते स्कूल भाग जाता था । दरवाजे से पचास कदम पर ही स्कूल था इसलिए अकेला भी चला जाता था वहां मास्टर जी बहुत गुस्सा होते थे और बड़ी बहनों को भी क्लास से बाहर निकाल कर खड़ा कर देते थे । ललित भी बहनों के साथ खड़ा रहता था । हर रोज का यही हाल था । चुकी गांव का स्कूल था उस स्कूल के हेडमास्टर पहले ललित के दादा जी थे इसलिए अभी भी उनकी प्रतिष्ठा थी शिक्षक लिहाज करते थे इसलिए कड़ा रुख नहीं अपनाते थें । और एक दूसरा कारण भी था कि ललित बहुत होशियार था डेढ़ वर्ष के उम्र में ही एल्फाबेट याद कर लिया था और पोयम पर एक्टिविटी दर्शाता था । बोली स्पष्ट नहीं थी लेकिन बड़ा ही लुभावना हरक़त था । धीरे-धीरे वो पूरे स्कूल का चहेता बच्चा बन गया बिना एडमिशन का ही अपने पापा की डायरी पेन लेकर स्कूल जाने लगा । कुछ दिनों बाद उसके पापा आएं और सभी को शहर ले आएं । शहर में इंग्लिश मीडियम का ब्रिगेड स्कूल में दोनों बच्चों का एडमिशन हुआ बड़ी बहन 4 साल की थी और ललित ढ़ाई साल का हुआ । टेस्ट में पास होकर दोनों खुशी खुशी स्कूल जाने लगे थे ।
बड़े होने के बाद ललित को निमोनिया हो गया और पूरे साल बहुत अच्छा प्रदर्शन के बाद ठीक फ़ाइनल इम्तिहान के समय बीमार पड़ जाता और सभी प्रश्नों के उत्तर आने के बावजूद लिख नहीं पाता नतीजा नंबर कम आता । जैसे जैसे उसकी उम्र बढ़ती उसका बीमारी भी बढ़ने लगा । बहुत मेहनती , आज्ञाकारी और जिम्मेदार विधार्थी होने के बावजूद उसके प्राप्त अंक के आधार पर उसके आंका जाना लगा । दसवीं में 87% अंक मिलें तब उसकी मां रो पड़ी क्योंकि उन्हें उम्मीद थी की 90% से ऊपर आयगा । ललित की बड़ी बहन बहुत समझदार थी उसने परिस्थितियों को संभाला और अपने पिता को फोन किया की "ललित का रिजल्ट आ गया है वो थोड़ा निराश है और मां ने भी कुछ बुरा ही किया है इसलिए प्लीज़ आप उसके पसंदीदा मिठाई काजू कतली लेते आईए ।" ललित के पिता हमेशा से टॉपर रहें हैं स्कालरशिप होल्डर थे इसलिए उन्हें भी 87% पर क्रोध आया और उन्होंने बुरी तरह डांटा कि "अभी कहां से लाऊं काजू कतली ? कैंटीन में जो मिलेगा वही लाऊंगा । " ये वार्तालाप लैंडलाइन के फोन में हो रही थी इसलिए कृतिका ने ओके ओके बोल कर जल्दी से रिसिवर रख दिया कि कहीं ललित न सुन लें उसे बहुत दुःख होगा । आफिस से लौटने के समय पर ही उसके पापा आए रद्दी सी मिठाई लेकर ठीक उसी वक्त ललित की मौसी और मौसा जी आएं काजू कतली लेकर और ढेरों बधाइयां दी ललित के साथ साथ उसके माता-पिता को भी । समझाया भी कि बीमारी के हालत में भी 87% अंक लाना बड़ी बात है इसे सराहना चाहिए ना की मातम मनाना चाहिए और फिर उन्होंने पिज़्ज़ा भी आर्डर कर दिया । घर का माहौल थोड़ा हल्का फुल्का हो गया ।
उम्मीद थी गुजरते वक्त के साथ ललित के सेहत में सुधार होगा लेकिन उल्टा ललित की बीमारी और बढ़ गई । उसके स्कूल बैग में कॉपी किताब के साथ इन्हेलर पफ भी रखा जाने लगा । कभी भी उसे छींक आने लगती धूल मिट्टी से और घुटन होने लगती सांस अटकने लगती उसे कभी कभी तो पफ से आराम मिल जाता और कभी कभी हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ता । क्लास के बच्चे परहेज करने लगे । खेलना , लंच करना और साथ में बैठना भी छोड़ दिया । क्लास टीचर के साथ बाकी टीचर्स जो बहुत स्नेह करते थे दूरी बनाने लगे । सभी की उपेक्षाओं को बर्दाश्त नहीं कर सका और डिप्रेशन में चला गया । उसकी तबीयत ज्यादा बिगड़ने लगी वो स्कूल जाने से कतराने लगा । उपस्थिति कम होने की वजह से इम्तिहान में बैठने की इजाजत नहीं मिली । ललित का मन पढ़ाई-लिखाई से उचट गया था । हमेशा हंसने हंसाने वाला बच्चा बेहद गंभीर और चिड़चिड़ा बन गया था । बेहद खामोशी से अपने कमरे में बैठे रहना उसकी आदत हो गई थी । सभी दोस्तों से दूर होकर बेहद अकेला हो गया था । तबियत भी बिगड़ती जा रही थी । उसकी मां ने उसे संभालने की बहुत कोशिश की उसके मानसिक अवस्था को समझते हुए स्कूल से टीसी लेकर दूसरे स्कूल में एडमिशन करवाया । नया स्कूल , नये स्कूल ड्रेस और नये नये दोस्तों के साथ कुछ महीने वक्त अच्छा गुजरा मगर मौसम बदलते ही बीमार हुआ और फिर वही सब कुछ दोहराया गया ...... उसके पापा बेहद खफा रहने लगे । पापा के स्कूटर के आवाज़ सुनकर घर में जो हड़कंप मचता था इधर उधर छुपने का और घर में दाखिल होते ही धप्पा करने की होड़ में तीनों बच्चों के साथ उनकी मॉम भी मस्ती कर लेती थी अब वो सब सिलसिला थमने लगा और पसरने लगी खामोशी । डाइनिंग टेबल पर भी कोई विशेष बातचीत नहीं होती थी । ललित इन सब बातों के लिए खुद को जिम्मेदार समझने लगा । और तभी स्कूल से नोटिस आया और ललित की विदाई कर दी गई । यह सबसे मनहूस दिन था मातम फैल गया । ललित के पापा ने खूब खड़ी खोटी सुनाई ललित का बुखार और तेज़ हो गया । दो तीन दिन बाद ललित की मां ने एक तीसरे प्राइवेट स्कूल में एडमिशन करवाया जहां उपस्थित रहना अधिक अनिवार्य नहीं था । कूल तीन महीने का क्लास और परीक्षा देना अनिवार्य था । साथ में एक और शर्त थी कि स्कूल के टीचर्स से ट्यूशन पढ़ना होगा । ललित की मां को हर शर्त मंज़ूर था क्योंकि वो अपना बेटा नहीं खोना चाहती थी । स्कूल और ट्यूशन शुरू हुआ ललित की मां ललित के साथ ही निकल जाती और स्कूल के बाहर बैठी रहती उसका दवा , पानी , फल और पफ लेकर । बहुत कठिन वक्त था लेकिन गुजर गया । अब बारहवीं के बोर्ड परीक्षा की तैयारी करनी थी । इस बारहवीं के रिजल्ट से ही उसका भविष्य निर्धारित होने वाला था । ललित ने तो अपनी पूरी कोशिश की जी जान लगा दिया मगर अर्धवार्षिक परीक्षा में फेल हो गया । घर में भयानक कोहराम मचा । ललित के पापा ने कहा "अपनी मॉम के पल्लू में बंध कर रहने वाले लल्लू से और उम्मीद ही क्या की जा सकती है । " बीस बाइस वर्षों के साथ में यह पहला अवसर था जब ललित की मां ने ऊंची आवाज में बात की एक चेतावनी के साथ की तीन साल तक जुबान बंद रखें और इंतजार करें अगर ललित सफल नहीं हुआ तो मां बेटा घर छोड़कर चलें जाएंगे हमेशा-हमेशा के लिए । इतने सारे बाधाओं के बाद भी ललित की मां मनोबल नहीं गिरा और उन्होंने घर से दूर दिल्ली के एक कोचिंग सेंटर में बात की और ईश्वर पर भरोसा करके अपने कलेजे पर पत्थर रखकर भेज दिया दिल्ली । वहां ललित की बड़ी बहन दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेज में पढ़ाई कर रही थी । दीदी के पास जाकर ललित को थोड़ी राहत मिली पापा के ताना बाना और व्यंग वाण से । तबियत तो दिल्ली में भी खराब हुई लेकिन ललित मानसिक रूप से मजबूत होने लगा था बड़ी बहन उसकी मां की तरह ही देखभाल करती रही और साथ ही समय समय पर हिदायत और नसीहत भी देती रही । क्लास पूरा हुआ बोर्ड की परीक्षा हुई रिजल्ट आ गया । सभी ने बधाइयां दी जश्न मनाया गया ।
ललित के पापा चाहते थे इंजीनियरिंग पढ़ाना उसके लिए कोचिंग हब कोटा राजस्थान के रिजाॅनेंश इंसच्यूट में टेस्ट दिलाया गया सेलेक्ट भी हो गया । एडमिशन के लिए दो लाख रुपए और दस हजार प्रतिमाह हॉस्टल का खर्चा । ललित के पापा तैयार हो गये खुशी-खुशी मम्मी पापा और ललित कैफेटेरिया में बैठकर कॉफी पी रहे थे । कागजी कार्रवाई पूरी कर दी गई चेक जमा करना था । तभी ललित ने पीछे बैठे एक बुजुर्ग दंपति की वार्तालाप सुनकर अपनी मां को बताया की "देखो मां वो लोग अपने बच्चे के कोचिंग के लिए अपना जमीन बेचकर आए हैं । कोचिंग के बाद बच्चे को परीक्षा देना होगा उसके बाद जैसा नंबर आएगा उसी हिसाब से कॉलेज मिलेगा और खर्चा भी उसी के अनुसार होगा तो लगभग पन्द्रह से बीस लाख खर्च होने के बाद एक लड़का इंजीनियरिंग पास करेगा और अभी जो देश की हालत है उसे देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसे कितनी तनख्वाह मिलेगी ? मैं समझ गया हूं अब मुझे इंजीनियर नहीं बनना है ,वापस चलों ।" मुश्किल घड़ी थी ललित के पापा का गुस्सा चरम सीमा पर पहुंच गया लेकिन मां से वादा किया था इसलिए चुपचाप दिल्ली लौटे और ललित के पापा कुपवाड़ा चले गए । ललित ने बहुत सोच-समझकर फैसला लिया और अकेला ही नोयडा स्थित एमेटी यूनिवर्सिटी में "बी सी ए" के लिए एडमिशन करा लिया वहां भी कुछ मुश्किलें आई लेकिन आत्मविश्वास से लबरेज एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी अपने असली रूप में आ चुका था इसलिए उसकी मां आश्वस्त हो चुकी थी । ढाई साल का वक्त बहुत अच्छा बीता फाइनल इयर में ही कैम्पस सिलेक्शन के लिए संसार के दूसरे नंबर पर आने वाली कंपनी आई पूरे बैच से सिर्फ एक लड़का सिलेक्ट हुआ और वह था ललित जिसने ना सिर्फ अपने माता-पिता का बल्कि अपने डिपार्टमेंट का भी नाम रौशन किया । रिजल्ट आने से पहले उसका ज्वाइनिंग लेटर आ गया । 18 जुलाई 2018 को दिल्ली से हैदराबाद की यात्रा पर चल पड़ा साथ में दो और बच्चें बी-टेक से सिलेक्ट हुए थे निकले । वहां पहुंच कर अपना बेस्ट परफॉर्मेंस दे कर हीरो बन गया ।
हर रोज रात को वो मैसेज करता था अपनी टीचर को जिन्होंने उसे वो विषय भी पढ़ाया जिसकी पढ़ाई की ही नहीं थी । मोबाइल ऐप के सहारे नये नये विषय को पढ़ती थी फिर ललित को पढ़ाती थी । धीरे-धीरे ललित सफलताओं के ऊंचाई पर चढ़ने लगा और इसका पूरा का पूरा श्रेय अपनी टीचर को देता है । जबकि सच्चाई तो यह है कि ललित जन्म से ही एक विशिष्ट प्रतिभा वाला बालक था । निमोनिया से ग्रस्त होने के कारण शारीरिक रूप से कमजोर हो गया था और अपने पिता के कड़क व्यक्तित्व , तानाकशी , रुखा व्यवहार और अविश्वास के वजह से मानसिक रूप से बीमार होने लगा था । उसकी टीचर ने उसके मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखा । साकारात्मक सोच के साथ उसमें आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न किया और पोषित भी किया बस इतना सा ही सहयोग किया था । बाकी तमाम विपरीत परिस्थितियों का सामना और मुकाबला तो ललित ने स्वयं ही की थी । ललित में काबिलियत थी , बुद्धि थी विवेक था बस कमी थी तो उसके पापा के तरफ से मोरल सपोर्ट की । चुकी उसके पापा एक सैनिक थे इसलिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है वरना मैं उन्हें कभी माफ़ नहीं करती । सैन्य परिवार से हूं इसलिए एक सैनिक की मजबूरी और बेबसी को भली-भांति समझती हूं ।
कल ही ललित ने तीन वर्ष पुरे किए हैं अपनी नौकरी का जिसकी खुशी में उसके पापा ने एक पार्टी दी थी मुझे । वहां पहुंच कर मैंने जो कुछ देखा मन प्रसन्न हो गया । अपनी मॉम के पल्लू से बंधा हुआ लल्लू एक गबरू जवान लड़का बन चुका है । जिसे सभ्य भाषा में हैंडसम जेंटलमैन कहते हैं । मुझे भी एक डिग्री मिल गई । मन से हारे हुए ललित को जो अपने राह से भटकने लगा था उसे सही मार्गदर्शन देकर उसको उसी स्थान पर पहुंचाया जो वो डिजर्व करता है । चुकी उसका टैलेंट किसी और को दिखाई नहीं देती थी कोई और उसके मन-मस्तिष्क को समझ नहीं पाता था । उसकी टीचर ने समझा , समझाया और सही राह दिखाई । हर टीचर्स डे , मदर्स डे और वुमेन्स डे पर सबसे पहला शुभकामना संदेश ललित का ही आता है और कुछ बेशकीमती उपहार भी जो मैं डिजर्व तो नहीं करती मगर स्वीकार लेती हूं ललित की भावनाओं का सम्मान करते हुए ।