Meeta Joshi

Inspirational

4.7  

Meeta Joshi

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पहचान

पहचान

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"स्टॉप-स्टॉप" एक महिला ने तेज गति से जा रही लोकल बस को रोका।

"मैम ये स्टॉप-पॉइंट नहीं है। आप जहाँ चाहे वहाँ,हाथ दिखा, बस नहीं रुकवा सकतीं। आज तो रोक दिया,आगे से ध्यान रखिएगा। "

सलिला पीछे मुड़कर उस बिंदास इंसान को देखना चाहती थी। पीछे मुड़ देखा तो भीड़ को चीरती हुई वो उसके पीछे आ,खड़ी हो गई। उसे लगा,होगी कोई कॉलेज की स्टूडेंट,लेकिन एक झलक दिखाई दी तो उसमें बड़ी उम्र की महिला सी झलक लगी। अधिक भीड़ की वजह से उसकी लंबाई,रुतबा व स्टाइल देख यही समझ आया आ पाया।

थोड़ी दूर जाने पर वह सलिला के कंधे पर मुँह झुकाते हुए बोली," ये बस मनमोहनपुरा भी रुकती है ?"

"नहीं,उसके लिए आपको पहले स्टॉप पर रुकना होगा। "

"ओके....। "

सलिला उस चिरपरिचित आवाज़ में कहीं खो गई,कौन है ये ?और किसकी याद ताजा कर रही है !

उस रूट पर अधिकांश स्कूल कॉलेज थे इसलिए बस हमेशा खचाखच भरी रहती। अब वो अंजान सहचर,अक्सर बस स्टॉप में खड़ी दिखाई देती या कहूँ कि सलिला करतारपुर स्टैंड आते ही रोज,खिड़की से उसे देखने के लिए लालायित हो उठती,तो कहना गलत न होगा।

आज सलिला को घर से निकलने में देर हो गई। पति-बच्चे सबका करके जाने में उसे एक अलग ही खुशी मिलती है।

"सलिला तुम्हें देर हो गई है,मैं छोड़ आता हूँ। "

"नहीं-नहीं इतनी आगे तक जा आपको वापिस लौटना पड़ेगा। आप ऐसा कीजिए अगले स्टॉप पर उतार दीजिए वहॉं बस घूम कर पहुँचती है तो मिल जाएगी। "कैसे कहती अगला स्टॉप तो उस अंजान साथी का ही है जिसकी एक हल्की सी झलक,उसने हर बार भरी बस में देखी है। हाँ उस महिला के बस में चढ़ते ही बच्चों में अफरा-तफरी मच जाती थी।

पता चला कॉलेज में लेक्चरर है।

बॉब कट हेयर,स्लीवलेस ब्लाउज,बिंदास-अंदाज़,ऊपर से नीचे तक शादी-शुदा होने का कोई सबूत नहीं। कुल मिलाकर रहन-सहन बिलकुल दादा टाइप। कोई दूर से देख ले तो पुरुष ही समझे। हाँ उम्र-दराज है,बॉडी लैंग्वेज से पता चलता था। अब वो अनजान सहचर रोज का साथी बन चुका था। बस में उसकी मौजूदगी का एहसास स्टूडेंट्स में मची हलचल को देख हो जाता था। आज देर होने पर उस अंजान साथी के स्टॉप से चढ़ना….मन उसके साथ की व उसे जानने की उत्सुकता को महसूस कर पा रहा था। सलिला और समय नहीं खोना चाहती थी। जल्दी से पतिदेव के साथ स्टॉप पर पहुँची। जैसे ही सलिला बस के पास पहुँची उसने गति पकड़ ली। उसके एक कदम पीछे हटाते ही किसी ने आवाज़ दी,"कम ऑन,हाथ दो"और उस अनजान साथी ने बस में से हाथ बढ़ा,सलिला को ऊपर चढ़ा लिया।

"ओह !थैंक यू सो मच..आज आप नहीं होती तो...। "ये पहला साक्षात्कार था जो इतना करीब से हुआ।

"तो...आपको अकेले भी इतनी हिम्मत तो रखनी चाहिए थी। "जैसे ही वो अपनी कड़क आवाज़ में बोली,उसका हाथ पकड़े-पकड़े उसे खुशी याद आई,उससे बोली ,"खुशी,मम्मा की स्टूडेंट थी,हम दोनों सेम क्लास में थीं लेकिन सेक्शन अलग,मम्मा से पढ़ने आया करती थी। बिल्कुल आपकी तरह.…उसे भी लड़कों की तरह, रहने का शौक था। "

"अच्छा !" उस अंजान सहचर ने बड़े चाव से कहा। "चलिए नेक्स्ट-स्टॉप में उतर कॉफी पीते है और आपकी कहानी कंटिन्यू करते हैं। "उसकी बातों में न जाने क्या था,सलिला झट से मान गई।

"हाँ बताइये....खुशी कौन ?"

"क्या बताऊँ,बचपन से उसे स्कूल में देखा। हम 'आनंदी बाई मेमोरियल स्कूल' में थे। मम्मा वहाँ इंग्लिश की टीचर थीं। सब उनसे ख़ौफ़ खाते थे। बस एक वो थी,बिंदास-जीवन जीने वाली। पढ़ाई में डफर,फिर भी सब टीचर के मुँह पर चढ़ा था उसका नाम 'खुशी'। उसकी हरकतें यकीनन अजीब ही थीं....मुझे उसका पहनावा,लड़कों की तरह रहना,कतई पसंद न था लेकिन घर में मम्मा से ट्यूशन पढ़ने आती तो मित्रता हो गई। "

"खुशी,और छोटे बाल करवा लें। बिल्कुल लड़का ही लगेगी,वैसे कमी अभी भी नहीं। "अक्सर उसके आते ही मम्मा यही कहा करतीं। उन्हें कभी पसंद नहीं था एक लड़की को लड़के की तरह रहना।

"मैम नमस्ते !"कह मम्मा को देख चहक उठती।

"नमस्ते। ये क्या,फिर बाल कटवा लिए !तुम लड़की हो,तुम्हारा मन नहीं करता सुंदर-सुंदर फ्रॉक पहनने का। लंबे बाल रखने का,अब आगे से बाल मत कटवाना। "

"मैम,मम्मा और दादी कटवा देती हैं। मुझे फ्रॉक पहनना अच्छा लगता है,लेकिन....आप मम्मा से बात कर अपनी इच्छा जरूर बताना !"

सलिला बताते-बताते हँस पड़ी,"मम्मा की दीवानी थी। रोज पढ़ाई में डांट खाती,मम्मा से थप्पड़ भी लेकिन हम बच्चों के साथ से ज्यादा,मम्मा को खुश करने के तरीके ढूँढती। कभी उनके जन्मदिन पर केक ला,तो कभी उनकी पसंदीदा पोलो लाकर पटाने में लगी रहती। आज मौका लगा तो मम्मा ने उसकी माँ से बात कर ही ली,"भाभी इसे लड़कों की तरह क्यों रखती हो,अच्छी-भली शक्ल है। बाल बड़े करो,कानों में टॉप्स पहनाओ,फ्रॉक पहनाओ। मुझे इस तरह का रहन-सहन कतई पसंद नहीं। क्यों एक लड़की होकर लड़का अंदाज़ में रहे ?"

"क्या करूँ भाभी,सासू माँ के काम हैं,जबकि खुदके चार बेटे है पर मेरी जबसे ये दूसरी बेटी हुई है,पता नहीं क्यों इसे ऐसे ही रखना पसंद करती हैं। उन्हें पूरी उम्मीद थी लड़का ही होगा। शायद वो उसके आने में ससुर जी के आने का आभास मानती थीं। इसके पैदा होते ही बोलीं,"आँख-नाक सब बिलकुल इन पर गई है। पता नहीं लड़की कैसे हो गई,उनके विश्वास पर मुझे भी विश्वास होता गया। वो इसे लड़कों की तरह रखतीं और अब इसे भी ये पहनावा रहन-सहन सब पसंद है। "

घर में खुशी की हर माँग पूरी की जाती इसलिए थोड़ी जिद्दी थी। पैसा भगवान की दया से बरस रहा था। पढ़ाई-लिखाई,वो तो शायद उनके घर में ज्यादा महत्त्व नहीं रखती थी।

खुशी दिन-प्रतिदिन पढ़ाई के प्रति और लापरवाह होती जा रही थी,घरवाले भी ध्यान नहीं देते थे। एक दिन मम्मा ने कह ही दिया"मैं तुम्हें अब आगे नहीं पढ़ा सकती। "

एक-डेढ़ महीना बीत गया खुशी नहीं आई लेकिन मम्मा की आँखों में उसका इंतजार साफ दिखाई देता।

"भाभी उसकी तबियत ठीक नहीं जल्द ही आएगी। "आंटी ने फ़ोन किया।

आज मम्मा का जन्मदिन था खुशी का फ़ोन आया,"हैप्पी बर्थडे आंटी। "

"अरे खुशी !तुम ठीक हो बेटा ?"

"आंटी मैं आज आऊँगी। "शाम को खुशी ट्यूशन के समय आई। गेट खोला तो यकीन ही नहीं हुआ। छोटी-छोटी सी दो पोनी और नी लेंथ की फ्रॉक पहने खुशी खड़ी थी "हैप्पी बर्थडे आंटी" कह ऐसे लिपट गई जैसे न जाने कितने सालों के बिछड़े प्रेमी मिल रहे हैं।

"तुम तो बड़ी प्यारी लग रही हो। आज लग रही हो खुशी,नहीं तो खुशहाल लगती हो। "कह मम्मा हँस दी।

अब उसमें रोज बदलाव थे। कभी कानों में पहनती तो कभी हाथों में,लेकिन शायद ये सब मम्मी की खुशी के लिए। वर्ना उसके शौक भी सारे लड़कों वाले थे।

कुछ दिन बाद वापिस उसी रूप में आ गई।

"भाभी जिद करने लगी,मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता। "

"लेकिन आप तो उसकी माँ हैं,उसे एक लड़की की तरह सोचना,नजाकतता सिखाना,सब आपका फ़र्ज़ है। "

ट्यूशन छूट गया। मम्मी ने स्कूल भी छोड़ दिया,लेकिन मम्मी के प्रति उसका नजरिया कभी नहीं बदला। हर गुरु-पूर्णिमा और उनके जन्मदिन पर उसका फ़ोन आता। मेरा भी कम सम्पर्क था। स्कूल की दादा थी,स्पोर्ट्स में माहिर। आगे जाकर हमारा सेम कॉलेज में एडमिशन हुआ। मेरा नंबरों की वजह से और उसका स्पोर्ट्स की वजह से। बड़े होते-होते हममें भी दूरी आ चुकी थी। एक दिन मेरी बस छूट गई और जैसे ही निकलने लगी उसने बिलकुल आपकी तरह आवाज़ दी,"हाथ आगे बढ़ाओ। कम-ऑन और कह मुझे ऊपर खींच लिया। कितना डरती हो,हिम्मत रखा करो। "

कैसे कहती मैं थोड़ी नाजुक हूँ। लड़की हूँ ना। कॉलेज में लड़कियाँ उससे कम मतलब रखतीं। उसे भी लड़कियों की बातों में कोई रुचि न थी। लड़कों से दोस्ती उसी अंदाज में बात करना। सब मजाक बनाते इसकी शादी कैसे होगी ?ये तो लड़का ले आएगी....।

समय बीत गया कॉलेज छूट गया। सुना था नेशनल लेवल खेलने गई है फिर पता नहीं क्या हुआ...शादी हुई कि अकेली है... !"

सामने कॉफी पीते-पीते खुशी मुस्कुराई,"तुम्हारी मम्मा की स्टूडेंट आज भी वैसी ही है। नेशनल लेवल जीत लिया था। स्पोर्ट्स के कारण सरकारी नौकरी लग गई और बचपन का एक मित्र जो उसके अंदर की नजाकतता को समझ रहा था,हमेशा उसे समझता रहा। जानता था बाहर से चाहे कैसी भी हो,अंदर एक औरत का मासूम सा प्रेमी दिल रखती है। वो सिविल सर्विस में था,विवाह का प्रस्ताव रखा और जीवन भर के साथी बन गए। "

उसके मुँह से सुन सलिला अवाक रह गई,"खुशी तुम !"

"हाँ मैं तुम्हारी वही बचपन वाली खुशी। तुम्हें पहली मीटिंग में ही पहचान गई थी। चलो आज बचपन की क्लास की तरह कॉलेज से बंक मार तो लिया ही है,घर चल और यादों को ताजा करते हैं। अपने पतिदेव से मिलवाती हूँ। प्लीज मना मत करना"कह खुशी उसी दादागिरी वाले अंदाज़ में बोल,सलिला को घर ले गई। घर में सम्पन्नता साफ नजर आ रही थी जो उस जमाने में भी थी।

सलिला ने हिचकिचाते हुए पूछा,"तुम्हारी दादी और मम्मा सब कैसे हैं ? "

"दादी चली गई। माँ ठीक हैँ। तुम बताओ मैम कैसी हैं ?"

"सब ठीक हैं। तुम्हें अक्सर याद करती हैं। "

खुशी जोर-जोर से हँसी,"मुझे नहीं मेरे लड़के लुक को। आज भी याद है कैसे प्रेरित करती थीं,"लम्बे बाल रखो। ये टी-शर्ट हटा,फ्रॉक पहनो। याद है मम्मा से कह मेरे कान छिदवाए थे उन्होंने। बहुत कोशिश की मुझे लड़की बना रखने की। मेरी भी बहुत इच्छा थी पर शायद माँ के लड़के की चाहत ने और फिर पापा के अचानक चले जाने से,माँ के मन में उठा डर' दो लड़कियों को अकेले कैसे पालूँगी'और उनकी कमी से उठे अकेलेपन के डर ने मुझे कभी बदलने नहीं दिया। "

सलिला तपाक से बोली,"वो तो कहती थीं दादी ऐसे रखती है। "

"मम्मा लोग चार बहनें ही थीं,घर में कोई लड़का नहीं। भले ही हम चारों बहनें बोल्ड थीं लेकिन हमेशा एक भाई की कमी से एक इनसिक्योरिटी उनके जहन में रही,शायद इसीलिए जब दी के बाद मेरा आना हुआ तो उन्होंने लड़का न होने की इच्छा इस तरह पूरी करनी चाही। जब मुझे देख लोग कहते,"हाय दैया लड़की है या लड़का !" तो माँ के चेहरे पर तसल्ली सी होती। दादाजी के जाने के बाद मेरा आना हुआ इसलिए दादी भी शायद एक लड़की को मन से कबूल न कर पाई। जानती थी,सब मेरे रहन-सहन को लेकर बातें बनाते हैं लेकिन उन दोनों की तसल्ली को देख समय के साथ मैंने भी यही पहनावा अपना लिया। देखो ना..ना बाल समेटने का झंझट और न छः मीटर साड़ी लपेटना,हाँ पतिदेव पसंद करते हैं इसलिए कभी-कभी पहनने लगी हूँ,बाकी मुझे ये बिंदास लुक बहुत पसन्द है। वैसे भी जब लड़कियाँ किसी मायने में लड़कों से कम नहीं तो पहनावे पर इतना जोर क्यों दिया जाता है,मैं आज तक समझ नहीं पाई। "

सलिला जब घर आने लगी तो खुशी के पतिदेव भी आ गए। खुशी मुस्कुरा कर बोली,"पहचानो एक-दूसरे को....। "

सलिला के चेहरे पर आकाश को देख अलग ही भाव थे..."आकाश !"कॉलेज का सबसे स्मार्ट और इंटेलीजेंट लड़का। लड़कियां तरसती थीं इससे बोलने को और सलिला खुद कितना पसंद करती थी उसे लेकिन दिल की दिल में ही रह गई थी। सोचते-सोचते मुँह से निकल ही गया,"तुम तो सलिला के तौर-तरीकों की....। "कह सकपका गई।

आकाश हँसा,"मजाक बनाता था !तब तक जब तक नहीं जानता था बाहर से लड़कों की तरह रहने वाली बिंदास और रौबीली खुशी,अंदर से एक मासूम सा दिल रखती है। आज मेरी देखभाल हो या माँ-बाप की या फिर बच्चों को पालना-पोसना वो सब में अव्व्ल है शायद इससे अच्छा लाइफ-पार्टर मुझे मिल भी नहीं सकता था।

सलिला जब विदा हो घर की तरफ आई तो रास्ते भर यही सोचती रही कि खुशी ने आज सब पा लिया जिसकी वो हकदार थी। वो उसका मासूम दिल ही तो था जो अपनी ट्यूशन टीचर की खुशी के लिए उसने फ्रॉक पहनी,चोटी बनाई।

ज़िन्दगी जीने के तरीके सबके अपने हैं। पहनावा बदल लेने से इंसान की फितरत नहीं बदल जाती इसलिए किसी के रहन-सहन को देख उसके प्रति नजरिया न बनाएँ।


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