पड़ोस का चांद
पड़ोस का चांद
बचपन के दिनों के बीतने के बाद हमनें कोई खास मौज मस्ती वाला काम नहीं किया। एक ओर पढ़ाई का बोझ और एक ओर काम का। बाबूजी अब थे नहीं तो माँ की देखभाल भी हमहीं को करनी थी।
दिन भर के काम के बाद शाम को दस मिनट मोड़ पर दोस्तों के साथ हरियाली के दर्शन के अलावा शायद ही कोई मस्ती की हो हमनें जवानी में। सिगरेट वगेरा रुपयों की बर्बादी लगते थे क्यूंकि असल बात थी की रुपये थे ही नहीं। जो थे आधे माँ की दवाई में निकल जाते।
इन सब के कारण जैसे जिन्दगी हाथ से रेत की तरह फिसलती जा रही थी। अब तो कोई खुशी भी महसूस ना होती।
जिंदगी किसी रेलवे स्टेशन पे बिकने वाली अखबार सी हो गयी थी जो उठाई बड़ी शौख से जाती है थोड़ा बहुत पढ़ी जाती है और बाकी तमाम सफर तकिया बनकर गुज़ार देती है। दरअस्ल अब अखबार में कंटेंट तो होता नहीं सो लोग पढ़ते भी नहीं और अक्सरह वो सीटों कोनों में छोड़ दी जाती है.
फिर एक दिन जाने कैसे भगवान को तरस आया शायद। और गली में एक नया परिवार रहने को आया। हमारे बगल वाले काका रिटायरमेंट गाँव गए तो अपना शहर वाला घर बेच गए। लड़के अमेरिका जा चुके थे सो अब मकान खाली ही रहता तो उन्होंने बेच दिया।
कौन जानता था उनका आना जिंदगी में नया मोड़ लाने वाला था।
जल्दी ही पता चला की उनकी एक लड़की भी है। पहले तो हमने ध्यान नहीं दिया मगर एक दिन जब शाम चौक पर मंडली के साथ खड़े थे तब एक ने कहा, “क्यों भईया आपके बगल में भी तो सुन्दर देवीजी आई है। उन्हें देखते है की नाही?”
“अबे हमे कुछ नहीं पता बे। हाँ कल माँ बता रही थी एक लड़की आई थी तुलसी का पौधा लेने। केह रही थी बड़ी सुन्दर है।”
“बस तो भईया वही होंगी देवीजी।”
बरसों बाद पेहली बार किसी लड़की की तस्वीर अपने आप दिमाग में उभरने लगी जैसे कैनवास पे रंग उभरता है।
घर आते आते पुरे रास्ते मैने पिछले दिनों के सारे वाकये याद कर लिये की कहीं तो मैंने उसे देखा हो मगर ना…एक हल्की सी तस्वीर आती जैसे एक लड़की की हाथ में किताब लिये छत पर चांद को निहारते गालिब को पढ़ रही हो और मैं उसे।
मगर उसका नेग्लेक्ट कायम रहता।
हम तो सपने में भी मोहब्बत इमैजीन ना कर सकते थे।
उस दिन जाने कितने वक़्त के बाद हम रात को छत पे गये। आज पूरनमासी थी। क्या खूबसूरत लग रहा था चांद। जैसे एक अरसे बाद देखा हो।
ऐसे राह चलते इसे देखना और छत पर बैठ एकटक निहारना, कितना अन्तर है दोनों में।
एक में लगता है दोनों साथी है अनंत सफ़र के और एक में लगता दोनों चीर स्थिर है और आगे जाने कितने बरस ऐसे ही रहेंगे।
चांद प्रेमियों का सबसे खास ऐसे ही नहीं बना।
इसी वजह सेअब हम सुबह शाम छत पे दिखने लगे। सुबह कसरत के बहाने तो शाम को कोई किताब हाथ में लिये मगर देवीजी के दर्शन ना हुए।
यूँ 4-5 दिनों बाद एक शाम माँ ने कहा, “अरे प्रेम दरवाजा खोल दे देख लक्ष्मी जी आती होंगी। तुझे अब रोज कहना होगा क्या? कभी तो खुद से कर दिया कर।”
“ठीक है माँ”
जैसे मैंने दरवाजा खोला सामने लक्ष्मी जी खड़ी थी।
“सुनिए थोड़ी चीनी मिलेगी? वो मोड़ वाले मिश्रा जी की दुकान बंद है और पिताजी सर पकड़ कर बैठे है।”
ऐसे में अक्सर लड़को को जवाब नहीं सूझता। मैंने हड़बड़ाहट में कह दिया, “चाय को रोकिये मैं पिताजी ले के आता हूँ।”
मेरा इतना कहना था की वो हँस पड़ी। पहले तो कुछ देर मेरी समझ में नहीं आया की वो हँस क्यूँ रही है मगर जब आया तो मैं भी हँस पड़ा।
मैं अंदर गया और चीनी ले कर आया।
“लीजिये, और अगर पिताजी को कोई परेशानी हो तो बताइयेगा।”
“जी जरूर। चीनी के लिए धन्यवाद।”
“अरे इस में धन्यवाद कैसा।”
“वो पड़ोस वाली लड़की थी क्या? सुन्दर है न?” माँ ने पूछा तो मैं हाँ हूँ करता छत पे चला गया। पहली नज़र की मोहब्बत थी ये।उसको जानने की इच्छा उफान मारने लगी थी। कुछ दिनों बाद हमारी रेलवे में नौकरी लग गयी। ये खबर जब माँ को चली तो जाने कितने बरसों से चेहरे से गायब हंसी वापस लौट आयी।”कितने मिलेंगे बेटा?” ये था माँ का पहला सवाल।
“पच्चीस हज़ार मिलेंगे माँ.”
“पक्की नौकरी है?”
“नहीं अभी एड हॉक पे है.”
“चलो अच्छा है। उ सुनीता के बेटा को तो सतरहे मिलता था। उससे तो ज्यादा ही है.”
“अरे माँ अभी भी इधर उधर की ले के बैठी हो अब छोड़ भी दो ई सब।”
“अरे काहे छोड़ दे। जब उ के बेटा को नौकरी लगी थी कितना बखान की थी तुम्हरे सामने। बस कोचिंग पढ़ाते है। पांच दस मुश्किल से पाते होंगे। बेटा अब बस एक गाड़ी ले लो जे उसके घर जाके उसको मिठाई दे आयें।”
औरतों का स्वाभाविक गुण होता है ईर्ष्या। खैर हमनें भी पढ़ाते पढ़ाते जाने कितने ताने सुने थे. अब तो खुद पे भी खुन्नस आने लगा था. मगर ऐन समय पे भगवान ने सब्र टूटने से बचा लिया जैसे मुहूर्त लिए बैठे हो।
इंसान ऐसा ही होता है। जैसे जैसे हालात बदलते है उसकी आस्था बदलती है.बाबूजी की जब मृत्यु हुई तो भगवान् से विश्वास उठ सा गया था वो आज फिर लौट आया.
ऐसे में नौकरी लगने पे जो सबसे जरुरी चीज होती है वो है लड़की की तलाश।
इतने देर से बात घुमा रहा हूँ सबको लग रहा होगा अब प्रेम कहानी आएगी। मगर हमारे हिस्से में प्रेम शादी के बाद ही लिखा होता है। जवानी तो कमाने के टेंशन में ही निकल जाती है।
मगर फिर भी छत पे आते जाते उसको देखते और एक दूसरे के घर आते जाते हमने कहीं कोने में मोहब्बत जगा ली थी। जरुरत थी तो बस ये बात घर तक पहुँचने की। मगर पहले एक दूसरे को कहना भी जरुरी था। जाने किसके मन में क्या हो?
हम अब मौका तलाश रहे थे अपने सवालों के जवाब पाने का। एक शाम जब हम छत पे गए तो वो ग़ालिब की किताब लिए खड़ी थी।
हमने सोचा अच्छा मौका है और एक सुना सुनाया मिसरा पढ़ दिया,
“तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई”
“जी?”
“आपसे मोहब्बत है।” ,हमने कहा.
और उसके चेहरे पर जो लाली आयी दूर धरती झुके आसमान पे आहिस्ता उतरते सूरज से कम न थी. और
ये इजहार का कुबूलनामा था।
“ये क्या दिन भर डायरी लिए बैठे रहते हो? मांगती हूँ तो देते भी नहीं। ऐसा क्या है इसमें।”
ये सुनकर मैं अपने खयालों से बाहर आया. माँ की दवाई ख़त्म हो गई है आते वक़्त लेते आइयेगा।
“ठीक है देवीजी।”