नवंबर 28..
नवंबर 28..
आज नवम्बर की अट्ठाइस तारीख है। साल में तीन सौ पैंसठ दिन होते है और इस उम्र तक आते आते भूलने के लिए बहुत कुछ बातें और बहुत सारे बहाने पर यह कमबख्त तारीख़ बिन बुलाए मेहमान की तरह यादों पर दस्तक दे ही देती है। जो साथ हैं जो खास हैं उनसे जुड़ी तारीखे भले ही भूल जाऊँ पर यह तारीख़ मुस्कुराती हई छोटी बच्ची सी यादों में छमछम करती है।
यह तारीख़ ही नही इसके साथ ही उसका मुस्कुराता चेहरा, उसके सिर्फ एक गाल में पड़ने वाला डिंम्पल उसके काले घुँघराले बाल सभी याद आ जाते है । हाँ सही समझे आप आज उसका जन्मदिन है। आज वो मेरी ज़िंदगी में नही है पर उससे जुड़ी यादों को क्या कहूँ ? वैसे वो कभी भी मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा नही था पर जैसे दिल के एक कोने पर उसका अधिकार है वैसे ही दिमाग पर उसकी यादों का । नहीं ये किशोरावस्था का आकर्षण नही है। मैं उससे मिली थी हॉस्पिटल में। सालों पहले की बात है, मेरे पापा को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। मम्मी सारा दिन पापा के साथ थी इसलिए रात को पापा के साथ मैं रुकी थी। उसी रात उसे भी भर्ती करवाया गया था। मैंने यह जानने की कोशिश नही की कि उसे क्या हुआ था पर उसे बच्चों की तरह बिलखते सुन कर, ज़िद करते सुन कर, अजीब सा, हाँ अजीब सा लग रहा था। अपने भारतीय समाज में लड़कों को रोने की अनुमति नही है ना। वो क्या कहते हैं, "क्या लड़कियों की तरह रो रहे हो"। पर वो रो रहा था, हाँ लड़कियों की तरह। जो महिला उसके साथ थी माँ या बहन उसे बड़े प्यार और धैर्य से चुप करवाने की कोशिश कर रही थी। खैर मैं थकी हुई थी मुझे नींद आ गयी।
सुबह किसी की खिलखिलाहटों से मेरी नींद खुली। तब पहली बार मैनें उसको देखा। रात को तो मुझे लगा था कोई किशोरवय लड़का होगा (मेरी पीठ थी उनकी तरफ) पर यह तो एक परिपक्व युवक था । शायद शादीशुदा हो और वह महिला उसकी पत्नी हो। पापा सो रहे थे जब तक मम्मी नही आ जाती तब तक मेरे पास उसके बारे में अटकलें लगाने से बेहतर कोई काम नही था। रात को तो कैसे रो रहा था अभी खिलखिला रहा है। उसकी तरफ की खुली हुई खिड़की से सूर्य की किरणें सीधे उसके मुँह पर पड़ रही थी । उन किरणों की नारंगी आभा में उसकी मुस्कुराहट भी आज की सुबह की तरह हसीन और ताजी थी। थोड़े लंबे काले घुँघराले बाल, क्लीन शेव्ड (दाढ़ी मूंछ सफाचट थी), गालों में पड़ता डिंम्पल, किसी बच्चे सा मासूम दिख रहा था। मैं मन ही मन सोच रही थी कितना नौटंकी है। शायद दर्द बर्दाश्त नही कर पाता है। कितना क्यूट है काश.. हाँ भाई हम लड़कियाँ भी सोचती हैं । हम चाहती तो सुंदर लड़कों को देखकर सीटी मारना भी है पर हमें अनुमति नहीं होती ना, पर मन में कुछ भी सोचने के लिए हम स्वतंत्र होते हैं । तो बस मैं भी सोच रही थी काश ...फिर दिमाग ने तसल्ली दी कोई न शाम को जब पापा से मिलने आओगी तब उसे देख लेना, मिल लेना । मैं अपने ख्यालों में थी तबसे पापा जग गए । मैं उनसे बातें करने लगी। थोड़ी देर में मम्मी भी आ गयी और मैं पापा को चूम कर बाय बोल कर घर आ गयी। मुझे आफिस भी जाना था। इत्तेफाक से आज ही मेरा ऑफिस का पहला दिन था।
ऑफिस अच्छा था । पहले दिन के हिसाब से सब सहकर्मियों का व्यवहार भी अच्छा था। दोपहर को मम्मी का फ़ोन आया पापा को डिस्चार्ज दे दिया गया था। क्या कहूँ सुन कर अच्छा तो लगा पर मायूसी हुई, हाय अब मैं उससे कैसे मिल पाऊँगी ? शायद कभी नही। क्या अस्पताल जाकर मिल कर आऊँ ? पर पता नही कहीं उसे भी छुट्टी दे दी हो तो ? फिर एक आस बंधी दिल ने कहा,"इसी शहर में रहता है कभी तो मिलेगा ही। दिमाग ने तुरंत उसकी बात काटते हुए कहा, हुँह तुम यही पैदा हुई, इतने साल से यहीं हो कौन सा वह तुम्हें आज तक कभी दिखा था। यह दिमाग भी न, बाहर के लोग तो क्या यह दिमाग ही दिल के टुकड़े टुकड़े कर देता है। बिना मिले, बिना बात, किये एक अनजान अजनबी से ना मिल पाने की मायूसी में मैं बाकी का पूरा दिन उदास रही और अनमनी सी घर आयी।
पापा अभी अच्छे थे । कुछ पाँच दिन बाद हम पापा के रूटीन चेकअप के लिए वापस अस्पताल गए थे । वहाँ पर वो भी था। क्या चेकअप के लिए आया था ? नहीं ना, वह तो मिठाई का नही शायद केक का डिब्बा लिए हुए था। मेरे मम्मी पापा को देख कर (शायद) हमारी ओर आया और डिब्बा आगे बढ़ाते हुए बोला, "आशीर्वाद दीजिए आज मेरा जन्मदिन है"।
पापा बहुत खुश होकर बोले, "अरे वाह बड़े अच्छे संस्कार है"।
वह गहरी नज़रों से मेरी ओर देखते हुए बोला, "अंकल पहले नही थे । किसी ने सिखाया कि ज़िन्दगी ऐसे भी जी सकते है । कुछ सालों पहले मैं स्कूल से आते वक्त एक दिन शाम के समय दोस्तों के साथ जन्मदिन मना रहा था। हम केक खाने से ज्यादा एक दूसरे को लगा रहे थे। तब एक छोटी लड़की आकर हमें डाँटते हुए बोली आप लोगों को शर्म नही आती आप खाने का अपमान कर रहें है। जो केक आप एक दूसरे को लगा कर खराब कर रहे है उसी केक को खाने की लिए वो देखिए ना जाने कितनी नज़रे तरस रही है। यह कहकर उसने सामने खड़े गरीब बच्चों की ओर इशारा किया जो ललचाई नज़रों से हमे देख रहे थे। वह बोली, "खुशियाँ मनाने के दूसरे भी तरीके है । आप चाहें तो अपना जन्मदिन गरीबों के साथ, अनाथों के साथ या अस्पताल में बीमारों के साथ मनाइए। यकीन मानिए आपको ज्यादा खुशी और वास्तविक खुशी मिलेगी"। इतना कहकर उसने डिब्बा मेरी ओर बढ़ाया। मैं उसमें से केक उठा पाती, उससे पहले ही उसने केक का एक टुकड़ा मेरे मुँह से लगा दिया। कहने सुनने में समय लगता है पर कुछ घटनाएँ सेकेंडों में हो जाती है। मैंने भी डिब्बे का केक छोड़ कर यह टुकड़ा पकड़ने की कोशिश की। उससे पहले मेरा मुँह उस टुकड़े से एक भाग काट चुका था। पर मैं वह टुकड़ा पकड़ पाऊं उससे पहले ही उसने वह बचा हुआ टुकड़ा अपने मुँह में डाल लिया और उंगलियाँ चाटते हुए गहरी नज़रों से मुझे देखकर मुस्कुराया। मेरे दिल ने गाली दी, कमीना.. मुझे पूरा टुकड़ा केक भी खाने नही दिया। हाँ उस वक़्त मुझे इस बात का जरा भी एहसास नही था कि अभी अभी उसने मेरा जूठा केक खाया है। मुझे केक खिलाते समय मेरे होंठों को छू गयी अपनी उंगलियों को चूमा है ।
पापा मम्मी खुश होकर आशीर्वाद देकर उससे कुछ कह रहे थे। पर मैं तो कुछ सुन ही नही रही थी। मेरा मन तो सालों पहले की यादों में भटका था। ऐसा ही कुछ तो मेरे साथ भी हुआ था। मैंने भी तो गोल मटोल बड़े बच्चों के एक समूह को ऐसा ही कुछ कहा था। क्या यह उन्ही बच्चों में से कोई है ? क्या यह मुझे पहचानता है ? या बस यूँ ही ...। जब तक मैं अपनी यादों से बाहर आई वो जा चुका था। यह दिमाग भी ना दिल का पक्का वाला दुश्मन है । जितनी देर वह सामने था इस कमबख्त ने आँखों को यादों में उलझा रखा था। मैं फिर एक मायूसी के साथ घर आई। पर दिमाग ने कहा यह तुम्हारी तीसरी मुलाकात थी, वह वापस फिर मिलेगा।
दिमाग का कहना सच ही हुआ। मेरे नए ऑफिस में मेरी सहकर्मी दोस्त का जन्मदिन था। उसका पुरूष मित्र जो अब उसका मंगेतर भी था, वह हमारे ही ऑफिस के दूसरे विभाग में काम करता था, उससे मिलने आने वाला था। मैं उस वक़्त उससे बात ही कर रही थी तबसे वह आ गया। ओह यह तो वही था। वही मुस्कुराता चेहरा वही काले घुँघराले बाल, और गालों में पड़ते डिंम्पल। अरे गालों में नही, सिर्फ एक गाल में पड़ता डिंम्पल, मैं उसके दूसरे गाल में डिंम्पल ढूँढते ढूँढते उस मे खो सी गयी।
उसकी आवाज़ से मानो होश में आई। वह बोल रहा था, "भगवान ने बड़ी जल्दबाजी में बनाया है मुझे, आधी अधूरी चीजें ही दी है"।
मैनें प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखा। मुझे बड़ी शर्मिंदगी हो रही थी। आखिरकार वह मेरी सहकर्मी का मंगेतर था।
वह बोला, "डिंम्पल , डिंम्पल की बात कर रहा था। तुम दूसरे गाल पर भी डिंम्पल ढूँढ़ रही थी न".।
मैं संकोच, खीझ, निराशा के साथ बिना उनकी कोई बात सुनें, चली आयी। सभ्यता भी यही कहती है ना कि दो प्यार करनेवालों को अकेला छोड़ देना चाहिए। वो क्या कहते है दाल भात में मूसरचंद नही बनना चाहिए। पर चिढ़ मच रही थी। पूरी दुनिया में इसी को मेरी सहकर्मी का मंगेतर होना था। वह भी कम नही है जब पहले से कोई ज़िन्दगी में है तो किसी को इतनी गहरी नज़रों से देखना नही चाहिए था न ? दिमाग दिल की बातों को काटने का कोई मौका छोड़ता नही इसलिए उसने कहा, "अरे उसकी आँखें ही ऐसी होंगी। उसने तो कुछ कहा भी नही, तुम्हारी समझ की गलती है"। दिल चिढ़ता हुआ बोला, "हुँह ! आँखे ही ऐसी है, तो ऐसी आँखों वालों को काला चश्मा लगाना अनिवार्य होना चाहिए। ना कोई इनकी आँखों मे देखे ना इन गहरी आँखों में डूबे। "।
अब मैं अपनी उस सहकर्मी के साथ ज्यादा नही रहती थी। उसने पूछा भी तो मुस्कुरा कर काम का बहाना बना देती। हाँ तो उसकी गलती थी न, उसको भी वही क्यों पसन्द आया जो मुझे पसन्द था। दिमाग फिर बोला, "माफ कीजिये मोहतरमा, उसको नही, आपको वही पसन्द आया जो उसको पहले से पसन्द था" (यह दिमाग ना दिल का सबसे बड़ा दुश्मन, हुँह बड़ा आया, हमेशा दूसरों की तरफदारी करने वाला)।
कुछ महीने बीते, मुझे लड़के वाले देखने आए। हमने एक दूसरे को पसन्द किया । शादी पक्की हो गयी। जब मैं अपनी शादी का कार्ड अपनी सहकर्मी दोस्त को देने आयी तो वह भी वही बैठा था। मेरी सहकर्मी बोली,"आओ बैठो। बहुत लंबी उम्र है तुम्हारी अभी हम तुम्हारे बारे में ही बात कर रहे थे। आज इसका जन्मदिन है । यह हमें निमंत्रण देने आया है। मैं बैठते हुए बोली, "मैं भी निमंत्रण देने ही आयी हूँ। मेरी शादी है"। कहते हुए मैंने मेरी शादी का कार्ड मेरी सहकर्मी को थमाया और उसको देखते हुए बोली आप भी जरूर आइयेगा। आज उसकी आँखों में गहराई नही समंदर था। जो शायद कुछ पलों में घुमड़ कर बाहर आ जाता। इसलिए वो बिना कुछ बोले उठकर चला गया । मुझे बहुत अजीब लगा। मैंने उसको जाते देखा, थोड़ा बुरा भी लगा क्या यार थोड़ी देर तो रुक ही सकता था। खैर मैं अपनी सहकर्मी से बोली अपने मंगेतर को भी ले कर आना। वह बोली ठीक है पर तुम मेरे मंगेतर से कब मिली। मैं आश्चर्य से सोचते हुए क्या इसका दिमाग खराब हो गया है जो ऐसे बोल रही है। फिर भी मैंने बोला, अरे अभी तो मिलवाया और तेरे जन्मदिन पर भी तो मिला था"।
पर यह मेरा मंगेतर नही था।
पर तुनें कहा था न उस दिन कि तेरा मंगेतर आने वाला है और यही आया था न।
अरे हाँ वो आने वाला था पर उसके आने के पहले यह आ गया था।
और यह कौन है ?
मेरा दोस्त जैसा चचेरा भाई। एक मिनट तू इतना क्यों पूछ रही है ? रुक उस दिन से तुनें मुझसे बात करना भी बंद कर दिया था। अरे नही यार, तुनें इतना गलत सोचा, एक बार पूछ लेती बात कर लेती।
अब मैं सोच रही थी हाँ मुझे बात करनी चाहिए थी। शायद बात करने से मिलते जुलते रहने से गलतफहमी दूर हो जाती। पर अब क्या हो सकता था। मेरी पसन्द के लड़के से मेरी शादी पक्की हो गयी है, कार्ड छप गए है ।
बरसों हो गए है। प्यार सा बहुत प्यारा सा पति है। पर इस तारीख को पता नही क्यों उसकी उँगलियों का स्पर्श मैं अपने होठों पर महसूस करती हूँ। न जाने क्यों केक खाते हुए उँगलियों को चाटते हुए उसकी गहरी निगाहों को भूल नही पाती हूँ। सच कहते है लोग पहला प्यार रूह में रच बस जाता है।
अब आप कहेंगे न इजहार न इकरार , यह कैसा प्यार ? होता है साहब पहला प्यार ऐसा ही होता है। एक एहसास एक खुशबू की तरह।