नुसरत अंजुम ... (कहानी)
नुसरत अंजुम ... (कहानी)


मिनी ब्रेड पर मक्खन लगा कर स्वयं मुझे खिलाते हुए बहुत ही प्यार से मुझसे कह रही थी-
पापा, इतना काम करोगे तो बीमार पड़ जाओगे। मैंने जवाब दिया था-
बेटी, चिंता न करो। इस तरह के मौके बहुत नहीं होते, जब हमें मानव समाज को इतना देना होता है।
दीपा, (मेरी पत्नी) भी ब्रेक फ़ास्ट के लिए, डाइनिंग टेबल पर साथ थीं, हम पापा-बेटी को सुनते हुए वे, हल्के से मुस्कुरा बस रहीं थीं। मिनी ने कहा-
पापा, अच्छा नहीं लगता, आप 18-18 घंटे काम पर रहते हो, लगातार 20 दिन हो गए हैं।
मैंने, प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-बेटे, लेकिन रोज वापिस तो आ जाता हूँ ना!
तुम्हारे दादा ने, जब मैं कॉलेज पढ़ता था, एक बार कहा था 'बेटे, कभी मौके आते हैं, जब हमारा जीने से भी अच्छा, मर जाना होता है। मानवता के लिए, कभी ऐसे बलिदान का अवसर आये तो, तुम मरने से भी नहीं डरना।'
मिनी बेटे, तात्पर्य यह है कि मानवता हमसे आशा कर रही है, अभी जितना दे सकते हो, दो अपना इसके ख़ातिर।
दीपा तब पहली बार, बोलीं थीं-काम जितना बन पड़े कीजिए, मगर अशुभ न बोलिये।
मैंने मुस्कुरा कर दोनों के कंधे, प्यार से थपथपाये थे।
फिर पोर्च में अपनी गाड़ी में आ बैठा था। ड्राइवर ने गेट बंद किया था। कार चलने लगी तो मैंने कहा-आबिद, ऑफिस चलो।
मैं पुलिस अधीक्षक था। स्वास्थ्य कर्मियों पर, हमारे एक इलाके में, कल हुई, पथराव एवं बदसलूकी की घटना पर, राज्य सरकार ने अत्यंत नाराज़गी ज़ाहिर की थी। मुझ पर एवं जिलाधीश पर, जिससे अत्यंत मानसिक दबाव था।कार्यालय में अपने अधीनस्थ, दस अधिकारियों से बैठक करते हुए, मैं कह रहा था-
सख़्त कार्यवाही से लोग डरेंगे जरूर, मगर उनकेदिमाग का शरारत/अपराध करने वाला कीड़, इससे मरने वाला नहीं है। उसी से उलझ, इस विपदा की घड़ी में, जिससे, हम देश और समाज को रचनात्मक योगदान नहीं दे सकेंगे।फिर मैंने, अपने दिमाग में आई योजना, उन्हें सुनाई थी। उनको विकल्प दिया था कि जो चाहें, वही मेरे साथ चलें, जान को खतरा हो सकता है। अतः जो घरेलू जिम्मेदारीवश, जान पर खेलना न चाहें, उन्हें अभी छूट है। चार अधिकारी, जिसमें एक लेडी भी थी ने, मेरे साथ, यह खतरा उठाने का विकल्प लिया था।
मैंने कलेक्टर महोदय को मोबाइल कॉल के जरिये, अपनी योजना बताई थी।
उन्होंने कहा था-
मैं इस हेतु प्रशासनिक कवर देता हूँ। मगर आप सोच लीजिए, यह युक्ति काम न आने पर, आपकी जान खतरे में हो सकती है। सरकार हम पर सख्त कार्यवाही करेगी सो अलग।
मैंने उन्हें आश्वस्त किया था-
नहीं, यह सब नहीं होगा,सर !
मेरे आत्मविश्वास ने उन्हें, सहमति को बाध्य किया था।
फिर हम उस इलाके में पहुँचे थे। कल हुई घटना पर, पुलिस कार्यवाही के भय से, वहाँ सब घर में बंद दिख रहे थे। हमारे साथ आई, ट्रैक्टर ट्राली में, पत्थर रखे हुए थे। 1 छोटे चौराहे में, मेरे 4 मातहत साथी एवं मैं, वर्दी में नहीं थे, मेरे हाथ में स्पीकर था। मैंने, कहना शुरू किया था-
मैं, पुलिस अधीक्षक अपने चार साथियों के साथ आपके बीच निहत्था आया हूँ। साथ में पत्थर भी लाया हूँ। जो आपके प्रयोग के लिए हैं।
कोई और शोरगुल न होने से, मेरी आवाज गूँज रही थी।
मैंने कहना जारी रखा था-
जिस प्रकार, हम आये हैं उससे, आपको, कोई खतरा नहीं है।
मैं, अपील कर रहा था कि-
यहाँ आइये, या फिर आप घर से ही सुनें, और बाहर आयें तो, आपस में दूरी रखने तथा मास्क की सावधानी रखें।
फिर रुका था, इन्तजार किया था। एक-दो करके, 3-4 मिनटों में, हमारे आसपास, करीब 100 पुरुष-स्त्री आ गए थे। ज्यादातर ने, पहचान छिपाने के लिए, मुहँ पर कपड़ा या नक़ाब डाला था, मगर यह कपड़ा/नकाब कोरोना के खतरे की दृष्टि से अच्छा था अब बहुत ही संयत, मधुर और ओजस्वी संबोधन का दबाव मुझ पर था। मेरी योजना की सफलता इसी पर निर्भर थी।
मैंने आगे कहना आरंभ किया-
कल आप में से कुछ लोगों ने, हमारी स्वास्थ्य एवं प्रशासन की टीम जो, आपकी ज़िंदगी की फ़िक्र में, सेवा देने पहुँची थी, पथराव किया, जिसमें तीन युवा डॉक्टर्स एवं स्टाफ बुरी तरह जख्मी हुए हैं।आप सोचिए, जिन की मदद से, हममें से जो, कोरोना संक्रमित हैं, उनकी प्राण रक्षा की जा सकती है। वही अगर घायल रहे तो कैसे, यह संभव होगा?
मैं बोलते हुए रुका था, देख रहा था की आसपास भीड़ धीरे धीरे, आठ सौ हो गई थी।हमारी स्थिति शिकार के लिए बँधे पाड़ो जैसी थी, सामने की भीड़ में, कुछ लोगों कीहिंसक प्रवृत्ति रूपी शेर, कभी भी, हम पर हमला कर सकता था।
फिर मधुर स्वर में आगे कहा था-
जो विपत्ति आज हम पर आई है, उसे हराने के लिए हमें आज़ादी के संघर्ष के तरह का जज़्बा रखना होगा, एक जुट रहना होगातभी ज़िंदगी की जीत होगी और मौत हारेगी आप देखिये हम पाँच निहत्थे, अपने प्राणों तक का बलिदान देने के लिए, रानी लक्ष्मीबाई, सुभाष चंद्र बसु, चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंग तथा राजगुरु की तरह तैयार हैं। कोरोना पर हमारी जीत, आपके, हमें मिले सहयोग पर निर्भर होगी। हमने पिछले 20 दिनों में, कोई बर्बरता की हो और यदि, आप, हमें दुश्मन की तरह देखते हैं, तो आप हम पाँचों की हत्या कर दीजिये। पत्थरों से मारे जाने के लिए, हम ये पत्थर लाये हैं।
आप आइये, इन्हें उठाइये और हमें मार दीजिये। अन्यथा मौका दीजिये कि हम आप की नहीं अपितु अन्य नागरिकों पर भी आसन्न विपत्ति से, सबकी रक्षा के लिए, कारगर व्यवस्था बना सकें।
फिर रुक कर कहा-
अब मुझे और कुछ नहीं कहना है। आप को ही करना है, हमसे सहयोग या हमारी हत्या।
फिर मैं, चुप हो गया था।
तब भीड़ में से दस-बारह लोग, ट्रॉली की तरफ बढ़ने लगे थे ठहरो!,
तभी, एक कड़कती नारी आवाज़ ने, उनके बढ़ते कदमों को रोक दिया था। वह बढ़कर मेरी तरफ आई थी, मुझसे माइक लिया था। लग रहा था, उसे वहाँ के लोग, पहचानते थे और वहाँ उसका प्रभाव, अच्छा था उसने, चेहरे पर से, नक़ाब हटाया था। वह लगभग 40 वर्षीया, सुंदर स्त्री थी। उसने, हमारे लिए, माइक पर अपना परिचय देते हुए, कहना प्रारंभ किया था-मैं, नुसरत अंजुम कॉलेज में प्रोफेसर हूँ।
फिर भीड़ की तरफ मुखातिब हो, इस तरह कहती गई थी-माना कि हमें, पुलिस से एवं देश के अनेक लोगों से शिकायत है। मगर इनके कहने पर आज, हाथ में पत्थर नहीं उठाना है। हमारा, उठाया हरेक पत्थर, देश और दुनिया की मीडिया द्वारा भयानक रूप से बयान किया जाएगा।
पहले से ही, हमारे विरुद्ध फैली नफरत, इनके मारे जाने पर और बढ़ेगी। इससे, हम सबकी ही नहीं, अपितु दुनिया भर के हमारी कौम के लोगों की गुजर बसर में मुश्किलात बढ़ेगी। ये दुरुस्त फरमाते हैं, कम से कम कोरोना वायरस से लड़ाई में, इन्होने कोई काम, हमारे विरुद्ध, नहीं किया है आज इस समय में हम सारे बैर-वैमनस्य अलग रखें। इनको सहयोग कर हम कोरोना से जंग को जीतें। तथा इससे हम ज़िंदगी बचा सकने में कामयाब रहें तो, अपने हितों की लड़ाई बाद में लड़ेंगे महोदय, अपनी तुलना महान सेनानियों से, कर रहें हैं। हम आज बतायें, हम भी, देश के लिए सेवाओं और बलिदान की, एपीजे अब्दुलकलाम साहब एवं शहीद, परमवीर, अब्दुल हमीद मसऊदी की परंपरा, बढ़ाने वाले लोग हैं। हम घर वापिस जायें। 'शबे शबे बरात' की इबादत,घरों में करे। यह देश, हमें अपने मज़हबी विश्वास बदलने नहीं कहता है। इबादत से नहीं रोकता है।
शुक्रिया!
नुसरत के इस संबोधन का, उपस्थित लोगों पर, अच्छा असर हुआ था। लोग, हमें मारे बिना, घर लौटने लगे थे।
अपने पीछे की स्वास्थ्य टीम को वॉकी-टॉकी के जरिये हमने, क्षेत्र में परीक्षण पुनः शुरू करने के लिए कहा था। आश्चर्यजनक रूप से आज, उन्हें सभी का सहयोग मिला था। तीन घरों के लोग, संक्रमण संदिग्ध मिले थे, जिन्हें अस्पताल पहुँचाया गया था।
हमारा अहिंसक, विनम्र आखेट, सफल हुआ था, हमने अहिंसक प्रवृत्ति रुपी शेर को मार गिराया था।
यह घटना देश ही नहीं अपितु वर्ल्ड मीडिया पर चर्चा का विषय बनी थी।
पूरे देश में जागरूकता बढ़ाने में, सहयोगी सिध्द हुई थी।अभी मैं, देर रात घर लौटा हूँ। दीपा एवं मिनी प्रतीक्षा करते मिलीं हैं। दोनों बहुत खुश भी हैं। दोनों ही, मुझसे, गले मिली हैं।
शिकायती स्वर में तब, मिनी ने कहा है-
पापा, सूझबूझ आपकी थी, जान पर ख़तरा आपने लिया था। मीडिया पर मगर, गुणगान नुसरत अंजुम के हो रहे हैं।
मैं बहुत थका हुआ हूँ मगर, मैंने मुस्कुराकर बेटी के सिर पर हाथ रखते हुए कहा है
बेटे, कभी कभी, समाज हित में जो परिणाम अपेक्षित होता है, वह कैसे सुनिश्चित किया जाता है, उसका तरीका और उसका श्रेय किसको मिलता है, यहाँ वह गौड़ (महत्वहीन) हो जाता है।
नुसरत अंजुम ने आज, वास्तव में मुझसे बढ़कर सूझबूझ का परिचय दिया है..