Prafulla Kumar Tripathi

Tragedy Action Fantasy

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Prafulla Kumar Tripathi

Tragedy Action Fantasy

नंगी खिड़कियां, टूटते दरवाज़े

नंगी खिड़कियां, टूटते दरवाज़े

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इस बार जब वेदांत अपने गृहनगर आए तो घर की हालत जस की तस या यूं कहें कि बदतर हो चली थी। क्या घर,  क्या घर के लोग...अंदर और बाहर दोनों जगहें, जो किन्हीं दौर में उसके लिए ऊर्जावान हुआ करती थीं,अब उसके लिए दमघोंटू हो चली थीं।। उसके गृह जनपद के लिए ट्रेनें एक से एक तीव्रगति गामी,सुविधा सम्पन्न चल चुकी थीं । और बसें ? ....बसों का क्या कहना!जनरथ,शताब्दी, ए.सी., स्लीपर... कैसी चाहिए आपको ?और और अब तो हवाई सेवाएं भी शुरू हो चुकी हैं। लेकिन ट्रेन या बस स्टेशन से उतरते ही आपके हाथ से सामान छीन लेने वाले कुलियों या परिसर से बाहर आते ही आटो,टैक्सी या रिक्शेवालों की सवारी बिठा लेने की आक्रामक आतुरता,हठ और संभव हो सका तो जबर्दस्ती भी जस की तस बनी दिखी।

वहां से बचते बचाते वेदांत कलेक्टरी मोड़ पर पहुंच भी नहीं पाया कि रिक्शे के सामने एक गुंडानुमा शख़्श रिक्शे के हैंडिल को अपने दोनों हाथों से रोक चुका था...ठीक उसी अंदाज़ में मानो वह किसी सांड़ की सींगों को अपनी हीरोगिरी दिखाते अपने वश में कर लिया हो..."बड़हलगंज.. बड़हलगंज" की हठवादी पुकार लगाते...उसने न आव देखा न ताव और वेदांत मय सामान उसकी टैक्सी में रखे जा चुके थे..विस्मित और कदाचित हतप्रभ होते हुए।वे लाख सफाई देते रहे कि अरे भाई अपने को अलहलादपुर तक जाना है..बड़हलगंज नहीं..लेकिन नक्कारखाने में उनकी आवाज़ सुनता तो कौन?

 जिस शख्स ने उसे जबरन बिठाया था वह तो कब का टैक्सी ड्राइवर से सवारी बैठाने के लिए कमीशन लेकर फुर्र हो चला था।अब सवारी जाने,ड्राइवर जाने...कि उनका अगला एपिसोड क्या और कैसा होगा. .दुखांत, सुखांत,ट्रेजेडी,कामेडी या इन सबके तड़के लिए हुए।"ड्राइवर साहब,मुझको बड़हलगंज नहीं जाना है..प्लीज मेरी मदद कीजिए और मेरा सूटकेस जो ऊपर रखा जा चुका है उतरवा दीजिए।"लगभग घिघियाते हुए वेदांत ने ड्राइवर से अनुनय किया।एक बार,दो बार और अब यह पांचवी बार का अनुनय भी बेकार गया।उसके अगल बगल में ठसाठस सवारियां बैठाई जा चुकी थीं या यूं कह लें ठूंसी जा चुकी थीं।ड्राइवर अब गाड़ी गरम करने और अपने खलासी को पुकारने में मशगूल था।वेदांत ने सोचा कि बाहुबलियों के इस शहर में सिर पर लाल अंगोछा बांधे ड्राइवर का कहीं 'हाते' से न ताल्लुक हो...स़ो वह चुप हो गया।"चलो,अलहलादपुर मोड़ पर या नार्मल मोड़ पर उतर लेंगे।"वह मन ही मन बुदबुदाया।टैक्सी रफ़्तार पकड़ चुकी थी एक फूहड़ सा गीत ऊंचे स्वर में लहराते हुए..."पलंगिया ऐ पिया सोने ना दिया..."आगे उस पर क्या बीती अभी थोड़ा रुक कर बताता हूं।●   लैपटॉप के की पैड पर उसकी उंगलियां बहुत तेज़ गति से उसके नये कथानक के चाल, चरित्र और चेहरे के साथ पूरे परिदृश्य को उतारती चली जा रही थीं।असल में जब जब आलोक नींद न आने की वज़ह से देर रात तक करवटें बदलते हुए समय बिता रहा होता है तो उसके पास दो ही विकल्प शेष रह जाते हैं..एक तो बगल में सोई पत्नी के खर्राटे को छेड़ना..उसके ढुलमुल शरीर से सटकर प्लैटोनिक रोमांटिक मूड बनाते रहना अथवा दूसरे विकल्प में मन ही मन अपनी लिखी जा रही किसी नई कहानी के चरित्रों को आगे के जीवन में ले जाना ..कभी कभी ऐसा भी हुआ करता है जब आलोक सुबह की भोर के क्षण को किंचित भगवत नमन वंदन करके लैपटॉप पर बैठ जाया करते थे और बस उसके बाद वे होते,उनके तरह तरह के चरित्र होते और हुआ करता उनका अपना असीमित संसार ।लेकिन मुश्किलें तब मुंह बा लिया करती थीं जब उनकी शंकालु पत्नी धीरे से बिस्तर छोड़कर उनके पीछे आ खड़ी होतीं और उनकी निगाहें लैपटॉप के स्क्रीन को निहारने लगती थीं एकदम किसी जासूस की मानिन्द।उनकी निगाह से आलोक का कोई कैरेक्टर बच नहीं सकता था..आंखें हैं कि किसी प्रयोगशाला की लेंस ..पत्नी जी से कुछ भी छूटने नहीं पाता न उन सभी का आदि और न अंत।मजेदार बात तो यह भी हुआ करती थी कि आलोक ने अगर किसी एक कैरेक्टर के लिए कोई एक प्लाट सोच रखा हो तो उनकी पत्नी एक सिरे से उसे खारिज करते हुए आलोक को सख़्त हिदायत देते बाथरूम की ओर रवाना हुआ करती थीं कि ' देखना मैत्रेयी मरने ना पाये !'ऐसे में आलोक यह कहते हुए झल्ला उठता था;"तुम और तुम्हारी मैत्रेयी जायें जहन्नुम में।"...और मुंह में सिगरेट दबा घर के बाहर चला जाया करता था।

    हाँ तो वेदान्त की टैक्सी अब रफ्तार पकड चुकी थी। रीड साहब का धर्मशाला पीछे छूटता रहा और देखते देखते अलहदादपुर का दोराहा भी आ गया था। वेदान्त ने लगभग चीखते हुए आवाज़ लगाई -"

" रोको, भइया रोेको "

ड्राइवर ने एक झटके में गाड़ी रोक दिया। उसे गाड़ी से बाहर आने में समय लगा क्योंकि पहले उसके अगल बगल की सवारियां उतर जाती तभी तो वह उतर पाता ! बाहर आते ही टैक्सी के ऊपर रखी, रखी क्या उलझी अटैची किसी तरह नीचे उतरवाई और टैक्सी ड्राइवर को दस का नोट पकड़ा कर बिना पीछे देखे गली में घुस लिया।

किसी जमाने में इस गली के किनारे पर कोयले का एक बड़ा भंडार हुआ करता था। उन दिनों चूल्हे के लिए आजकल जैसी गैस ईंधन नहीं आई थी। किचेन में पकाने के लिए लकड़ी,कोयला,मिटटी का तेल उर्फ़ किरोसिन ही साधन हुआ करते थे। वेदान्त उन्हीं दिनों में यहा से अनेक बार कोयला भी अपनी सायकिल पर लाड कर ले जा चुका है। लेकिन अब वह भंडार गायब है और वहां पर एक बहुमन्जिली इमारत खड़ी हो चुकी है। कुछ ही क़दम आगे बढ़ा तो देखता है कि वहां पड़ी कब्रें भी लापता हैं। आश्चर्य, घोर आश्चर्य ..ये कब्रें कौन उठा ले गया ? ...उस जगह पर किसी डाक्टर का आलीशान चेंबर बना खड़ा है।

"छोडो,जाने भी दो। हर शहर में जगहों की किल्लतें हो रही हैं। किसी भू माफिया ने अगर इस कब्र को ही खोद डाला तो असम्भव किस बात का है ?"वह मन ही मन बुदबुदा उठा।

वेदान्त अपने घर पहुंच चुका था। मां अभी भी बिस्तर पर पड़ी अपनी ज़िंदगी की आखिरी साँसें गिनते ज़िंदगी के बचे हुए दिन बिता रही थीं। दोनों भाइयों का परिवार उसी घर में जुटा हुआ था। उनके बच्चे विदेश में जाकर लगभग बस चुके हैं। किसी को किसी के आने जाने का कोई खास मलाल नहीं। हालांकि सब अपने अपने राम झरोखों से आगत की खबर रखा करते हैं। बहनें अपने अपने ससुराल में। पिताजी बहुत अच्छा बैंक बैलेंस छोड़ गए हैं जो माताजी की तीमारदारी में स्वाहा हो रहा है। प्रणाम, आशीर्वाद का सिलसिला समाप्त होते ही वेदान्त अपने दो कमरे के पोर्शन में घुस गया। धूल - धक्कड़, मकड़ी के झाले, छिपकलियों और बड़े बड़े चूहों ने उसका स्वागत किया। बहुत दिन से बंद पड़े घर का यही तो हाल हुआ करता है। उसने अटैची फेंकी और वापस माँ के पास आ गया। घर के अटेन्डेन्ट ने उसे चाय परोसी तो वेदान्त ने झट अपने पोर्शन की सफाई का अनुनय उससे कर दिया।

देर रात वेदांत अपने लैपटाप पर जब बैठा तो उसको उसके हिस्से की खिड़कियाँ और दरवाज़े मुंह चिढाते नज़र आये। घर छोड़े उसे लगभग पन्द्रह साल हो चुके थे और इस बीच घर में कई तब्दीलियाँ भी होती रहीं लेकिन उसके हिस्से में आज ये नंगी खिड़कियाँ और टूटते दरवाज़े ही बचे हैं। टूटने और नंगा होने को वैसे और भी बहुत कुछ इस बीच होता रहा है जैसे प्रापर्टी को लेकर उसकी दो बहनों की मुकदमें बाजी और कुछ अन्य परिजनों की अति महत्वाकांक्षी प्रवृत्ति के चलते सम्बन्धों का एक एक कर दरकना।

"छोड़ो भी इन नकारात्मक बातों को " वेदान्त ने एक झटके में अपना ध्यान एक बार फिर अपने लैप टॉप के उस खुले हुए पन्ने पर टिका दिया है जिसमें उसके नए उपन्यास के ढेर सारे पात्र,सुपात्र और कुपात्र हैं ....परिस्थितियाँ हैं, घटनाक्रमों का अनवरत चलते रहने वाला सिलसिला है ..दुःख है सुख है, मिलन और जुदाई है ..सैय्यद हैं,सरकारी वकील तनेजा हैं, के.के.,शरलक होम्स,कनिका सी. चौधरी हैं। और हैं प्रशांत, विख्यात नर्तकी कुमकुम,प्रोडयूसर माही ड्रग पैडलर मंजीत सिंह,वकार हैदर, चरण गौहर,बहादुर सिंह, अंकित ....अमिता जिसने अपने प्रेमी पति की लाश पर अपने हुस्न की ताजपोशी की।

किस- किस की कहानी को कहाँ कहाँ ट्विस्ट देना है अब उसे आज उसी योजना पर आगे का काम करना है। ........काम करते ही रहना है क्योंकि पब्लिशर उपन्यास की फाइनल स्क्रिप्ट के लिए लगातार प्रेशर डाल रहा है। क्या वेदान्त आज की रात सफल हो पायेगा अपने किरदारों की कहानियाँ लिखने में ?


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