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Pinkey Tiwari

Tragedy

4  

Pinkey Tiwari

Tragedy

नीलकण्ठी

नीलकण्ठी

4 mins
440


"माँ, कितनी लम्बी लाइन है मंदिर में। ऐसा करता हूँ मैं वी आई पी दर्शन के पास लेकर आता हूँ।" शहर के प्रसिद्ध शिव मंदिर में लगी लम्बी लाइन को देखकर आलोक ने निर्मला से कहा, लेकिन निर्मला ने मना कर दिया। उसे आदत थी ऐसे ही दर्शन करने की लेकिन आलोक से देखा न जाता अपनी माँ का थोड़ा सा भी कष्ट। 

एक वही तो था अपनी माँ का। जब आलोक ५ महीने का था तभी अपने पिता को खो चुका था और निर्मला? उसकी तो जैसे दुनिया ही लुट गई थी। निर्मला- अपने नाम को चरितार्थ करता व्यक्तित्व था उसका। तराशे हुए नैन-नक्श, कमनीय सुन्दर काया, बड़ी-बड़ी आँखें और उसकी मुस्कान में परिलक्षित होता उसके ह्रदय का सौंदर्य। अजय ज़्यादा पढ़ा-लिखा न था। अपना पुश्तैनी व्यवसाय सम्हालता था। निर्मला अपनी मौसी के घर शादी में आई थी। बिजली के खुले तार के बिलकुल पास ही खड़ी थी निर्मला और उसकी साड़ी का पल्लू उस तार से लगभग टकरा ही चुका था तभी अजय ने उसका पल्लू खींचकर उसे बचा लिया। बिजली के तार वाले वाकये ने दोनों के दिलों के तार जोड़ दिए थे। निर्मला के घर वाले राज़ी न थे। आखिर दोनों ने प्रेम-विवाह कर लिया। ससुराल में निर्मला का कुछ स्वागत तो न हुआ बल्कि रूढ़िवादी परिवार होने से उसे अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी | सास उसे अपनी पुरानी साड़ियां पहनने को दे देती । उन पुरानी उतरी हुई साड़ियों और बेमेल ब्लाउज में भी निर्मला की शालीनता और सौंदर्य में कुछ कमी न आती थी।

धीरे-धीरे वक़्त बीता। निर्मला माँ बन चुकी थी। आलोक नाम रखा था बेटे का। सास भी ख़ुशी के मारे फूली न समाती थी | अजय की दुकान भी अब और अच्छी चलने लगी थी। "मैं बाईपास से एक पेमेंट लेकर आ रहा हूँ, एक घंटे में आ जाऊंगा फिर शाम को मंदिर चलेंगे" ......"पर खाना तो .....।" निर्मला की बात अधूरी ही रह गई और अजय चला गया। शाम हो चली थी । अजय को गए चार घंटे हो गए थे। निर्मला के मन में कुशंकाओं की लहरें उठने लगी थीं तभी अजय के दोस्त का फ़ोन आया, अजय गंभीर रूप से घायल हो गया था और वह उसे अस्पताल ले जा रहा था। घर के लोग पहुंचते तब तक अजय दम तोड़ चुका था। सास ने हर तरह से निर्मला को ही दोषी ठहराया। "खा गयी मेरे बेटे को। " सास के शब्द विष समान प्रतीत होते थे निर्मला को। पति के अंतिम संस्कार के बाद ही उसकी सास ने ५ महीने के अलोक और निर्मला को उसके मायके भिजवा दिया। हर पल निर्मला यही सोचती, अब

क्या करुँगी, कैसे जियूँगी। एक बार तो अपनी माँ के सामने यहां तक कह दिया कि मैं भी कुछ खा लुंगी और इसे भी .......।

पर माँ ने उसके शब्द भी पूरे न होने दिए। शिवरात्रि का दिन था। निर्मला के लिए क्या दिन और क्या रात, दोनों ही काटना मुश्किल होता था। निर्मला को यूं तिल-तिल मरते देखा न जाता था उनसे - किस माँ से देखा जाता है अपनी बेटी का संताप ? "मैं समधन जी से शांति से बात करुँगी। जो भी कुछ हुआ उसमे तुम्हारा क्या दोष है ? वो इस तरह तुम्हे घर से बेदखल नहीं कर सकती।“

"नहीं माँ रहने दो, उनके ताने मुझे विष समान प्रतीत होते है और अब भी मेरे अंतर्मन में गूंजते रहते हैं और हर वक़्त मेरे जीवन के निरर्थक होने का आभास कराते हैं, मैं अब और नही……"

“चल मेरे साथ।“ घर के मंदिर में लगे शिवजी के चित्र को दिखाते हुए माँ ने कहा –“ये देख रही हो तुम शिवजी की तस्वीर। विष उन्होंने भी पिया था, लेकिन उस विष को उन्होंने अपने कंठ में धारण करके रखा उसे ह्रदय तक नहीं उतरने दिया । जीवन में कई बार विष पीना पड़ता है लेकिन उसे ह्रदय तक नहीं उतरने देना चाहिए । तुम भी इस विष को ह्रदय तक मत उतरने दो निर्मला। यदि बात करने से भी तुम्हारी सास नहीं मानी तो फिर हम कानूनी मदद लेंगे | वो चाहे तुम्हे न अपनाए लेकिन आलोक का हक़ तो उन्हें देना ही पड़ेगा।"

आखिरकार निष्ठुर नियति को भी निर्मला पर दया आ ही गई । सास ने दोनों के लिए घर के दरवाज़े खोल दिए और निर्मला ने भी हिम्मत जुटाकर नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू करने की कोशिश की। विष तो अब भी पीना पड़ता था - तानो और उलाहनों का लेकिन वो उसे ह्रदय तक न उतरने देती। कष्ट के दिन धीरे-धीरे पलटने लगे थे। आलोक अपनी मेह्नत के बल से प्रशासनिक अधिकारी बन गया था। अब निर्मला के पास अपनी सास के साथ रहने की कोई बाध्यता भी नहीं थीं। दोनों माँ-बेटे अब सरकारी बंगले में रहने लगे थे। आज महाशिवरात्रि पर मंदिर की लाइन में खड़े-खड़े नीलकंठ महादेव को देखकर बरबस ही अपने जीवन का नीलकण्ठी चलचित्र निर्मला के अंतस पर चलायमान हो गया था। विचारों के प्रवाह में इस कदर खो गयी थी निर्मला कि कब उसका दर्शन करने का नंबर आ गया उसे पता ही न चला। "हर हर महादेव " की आवाज़ से उसके विचारों की लय टूटी और अपने आराध्य के दर्शन कर उन्हें धन्यवाद देते हुए वो मंदिर से बाहर आ गई ….. पुनः विष को कंठ में धारण करने की शक्ति मांगते हुए।



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