Pinkey Tiwari

Others

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मथुरा यात्रा

मथुरा यात्रा

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पिछले साल दिसंबर में मुझे मथुरा वृंदावन की यात्रा करने का सुअवसर मिला ।हम कुल 6 लोग थे। एक हमारा परिवार और दूसरा हमारे गुजराती मित्र का और साथ में दोनों के बच्चे। ईश्वर का नाम लेकर हमारा सफर शुरू हुआ। जब हम ट्रेन में चढ़े तो बहुत देर तक ट्रेन के डिब्बों में बहुत शांति थी लेकिन धीरे-धीरे उस शांति में हमारे बच्चों की मस्ती ने सेंध लगा दी। हिंदी और गुजराती भाषा के मिले-जुले संवादों से धीरे-धीरे ट्रेन के डिब्बे में हंसी के ठहाके गूंजने लगे। दूसरे बच्चे जो अब तक चुप थे वह भी हमारे बच्चों के साथ मस्ती करने लगे जैसे पहले से उन्हें जानते हो। उनको देखकर लगा की बच्चों के मन में राग, द्धेष, जलन, प्रतिस्पर्धा और अनावश्यक दंभ का कोई स्थान नहीं होता इसलिए इतनी सहजता से हर कोई इनका मित्र बन जाता है और यह अनजाने ही चारों ओर खुशियां बिखेर देते हैं। सोने के लिए पर्याप्त थकान हो चुकी थी। नींद सीधे मथुरा पहुंच कर ही खुली। सुबह के 3:45 बजे हम कड़कड़ाती ठंड में मथुरा पहुंचे। एक सज्जन को ट्रेन से उतरते ही स्टेशन के प्लेटफार्म को धोग देते हुए देखा। उन्हें देखकर भारतीय जनमानस की श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धा देखकर बहुत गर्व हुआ और मन श्रद्धा से भर गया। स्टेशन पर उतर कर हमने ऑटो हायर किया ।उस समय वहां पर बहुत कोहरा था। हम ऑटो में बैठ तो गए थे लेकिन रास्ते में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मन में बहुत डर लग रहा था कि कहीं कोई दुर्घटना ना हो जाए लेकिन ऑटो वाला कह रहा था कि मैं आप को सुरक्षित अपने गंतव्य तक छोड़ दूंगा। यह अपने आप में एक अनोखी ऑटो यात्रा थी। ऑटो यात्रा से मुझे यह सीख मिली कि कभी-कभी जीवन में भी आगे का रास्ता साफ-साफ नहीं दिखता लेकिन ऐसी स्थिति में हमें उस ईश्वर को ड्राइवर (नियंता) मानकर आगे का सफर तय करते रहना चाहिए। थोड़ी ही देर में ऑटो वाले ने हमें हमारे गंतव्य पर सुरक्षित पहुंचा दिया। स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर हम द्वारकाधीश मंदिर के लिए चल दिए। होटल से निकलते वक्त मेरी मित्र के हाथ में खाकरे का एक पैकेट था, जो हम एक दूसरे को खाने के लिए मनुहार कर रहे थे लेकिन एक बंदर ने कोई मुलाहिजा ना रखते हुए हमसे वह पैकेट छीन लिया और हम एक दूसरे का मुंह देखते रह गए। रास्ते में विश्राम घाट के दर्शन किए। बहुत ही सुंदर सजी हुई विशाल नावें और धुंध और कोहरे से आच्छादित यमुना का दूसरा किनारा वाकई देखने लायक था। अब तक हमें कोहरे की आदत हो चुकी थी। श्री कृष्ण ने कंस वध के बाद इसी घाट पर आकर विश्राम किया था, अतः इसका नाम विश्राम घाट पड़ा। मथुरा की संकरी गलियों से होते हुए हम द्वारकाधीश मंदिर की ओर बढ़ने लगे। मंदिर तक का रास्ता श्री कृष्ण के श्रृंगार, पोशाकों, फूल, और अन्य धार्मिक सामग्रियों की कई दुकानों से सजा हुआ था और उन पर विभिन्न मुद्राओं में बन्दर बैठे हुए, छलांग लगाते हुए और सब पर नज़र रखते हुए दिखाई दे रहे थे। इन सबको निहारते हुए हम मथुरा के सबसे प्राचीन और सबसे बड़े मंदिर द्वारकाधीश मंदिर पहुंचे। मंदिर की वास्तुकला राजस्थान के भव्य हवेलीनुमा भवनों की भांति प्रतीत हो रही थी। वैसे तो समस्त सृष्टि के राजा हैं श्रीकृष्ण, लेकिन इन्हे यहाँ द्वारका के राजा के रूप में पूजा जाता है। मंदिर में काफी भीड़ थी। हम भी लाइन में लग गए। मंदिर की छत एवं दीवारों पर श्रीकृष्ण की विभिन्न रूपों एवं लीलाओं का वर्णन करते हुए सुंदर चित्र उकेरे हुए थे, जिन्हें देखकर द्वापर युग की मानसिक यात्रा का आभास हो रहा था। जल्द ही हमारा नंबर भी आ गया। अब हम द्वारकाधीश जी के बिल्कुल सामने खड़े थे। पता नहीं क्यों दर्शन करते-करते आँखें गीली हो गई थी। आँखें एकटक "राजा" को निहार रही थीं। जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव सुख-दुख तो वह पहले से ही जानता था, फिर भी उसे सब याद दिला कर उसकी कृपा के लिए धन्यवाद दे रही थी। दर्शन कर हम कुछ देर मंदिर में ही रुके रहे। जाने का मन ही नहीं कर रहा था। सब कुछ कृष्णमय, जीवनमय लग रहा था। द्वारकाधीश की छवि मन में समेटे हम अपने अगले गंतव्य को चल दिए।

हमारा अगला गंतव्य था कंस किला। मन में जो छवि थी उसके ठीक विपरीत एक खंडहर मात्र था कंस किला लेकिन इसकी विशालकाय लंबी दीवारों ने जरूर मुझे विस्मित कर दिया। हमें देख कर करीब 10 वर्ष का एक मासूम-सा बच्चा दौड़ा-दौड़ा आया और स्वयं को एक अनुभवी गाइड की तरह प्रस्तुत करके हमें बताने लगा कि इसी जगह पर श्रीकृष्ण ने कंस को मथ-मथ कर मारा था इसलिए इसका नाम मथुरा पड़ा। कंस किले को देखकर जीवन की नश्वरता का अनुभव हुआ। जो कल महल थे, आज खंडहर हो चुके थे। कंस किला के बाद हम म्यूजियम गए। वहां जाकर जो देखा वह अचंभित कर देने वाला था। विशालकाय हवन कुंड, गौतम बुद्ध, गणेश, शिवजी, कृष्ण-बलराम, यक्ष, दुर्गा माता, महावीर, पार्श्वनाथ, कुबेर, सूर्य, नवग्रह और अन्य कई देवी-देवताओं की दुर्लभ मूर्तियां एवं कई ऐसी चीजें जिनसे हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का पता चलता है, वहां देखने को मिली जिनका सटीक वर्णन संभव नहीं। म्यूजियम से निकलने के बाद हम होटल की तरफ लौटे। रास्ते में फिर बंदरों का राज देखने को मिला। एक वृद्ध दंपत्ति से एक बंदर ने उनका चश्मा छीन लिया और जब उन्होंने उसे एक फ्रूटी दी तभी उस बन्दर ने उन्हें उनका चश्मा लौटाया। अब तक हम इस "वानर-राज" से अच्छी तरह परिचित हो चुके थे और सतर्क भी। होटल में विश्राम करके शाम को हम श्रीकृष्ण जन्मभूमि दर्शन के लिए निकल गए। जन्मभूमि पर कड़ी सुरक्षा के इंतजाम थे। सघन चेकिंग के बाद हम श्रीकृष्ण जन्मभूमि परिसर में पहुंचे। एक गाइड की मदद से हमने दर्शन प्रारंभ किया। मन में बहुत जिज्ञासा, व्याकुलता, और श्रद्धा के भाव हिलोरे ले रहे थे। ऐसा लग रहा था कुछ बहुत ही दिव्य अनुभव होने वाला है। जन्मभूमि में कुल पांच मंदिर थे। सबसे पहला केशवदेवजी मंदिर जो कृष्ण का ही एक रूप था, फिर गिरिराजजी का मंदिर जो गोवर्धन लीला का साक्षात स्वरूप प्रतीत हो रहा था। तीसरा मंदिर था योगमाया देवी का। चौथा मंदिर था राधाकृष्ण मंदिर जहां राधाकृष्ण और राम-सीता की विशाल प्रतिमाएं थी। इन प्रतिमाओं को देखकर ऐसा लगता था जैसे ये बोल पड़ेंगी। अब बारी थी जन्मभूमि के दर्शन की। दर्शन के लिए जिज्ञासा एवं व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। इसी व्याकुलता में हमने सीढ़ियां चढ़ना शुरू की। यहां जो अनुभव हुआ वह शायद मैं अपनी चेतना जागृत रहते तो कभी नहीं भूल पाऊँगी। ठंड का मौसम तो था ही लेकिन जन्मभूमि यानि कारागृह में, जिसकी दीवारें बहुत बड़े-बड़े पत्थरों से बनी हुई थी, एक अलग ही शीतलता थी। भीड़ भी थी, लेकिन इतनी शांति थी जो शायद मैंने अभी तक अनुभव नहीं की। कारागृह की गलियों को पार करके अब हम उस कोठरी तक पहुंच गए थे जहां श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।

कारागृह में बहुत ही सुंदर लड्डू गोपाल की प्रतिमा विराजमान थी। श्रीकृष्ण जन्म की कहानी चलचित्र की भांति आंखों के सामने घूम रही थी। कैसे देवकी और वसुदेवजी इस कोठरी में रहे होंगे, किस प्रकार उनकी आंखों के सामने कंस ने उनके बच्चों को मारा होगा, कैसे देवताओं ने गर्भ-स्तुति की होगी, कैसे समस्त प्राणियों को बंधन से मुक्त कराने वाला इतने बंधनों में जन्मा होगा, कैसे कारागार के सब द्वार खुल गए होंगे और कैसे कृष्ण गोकुल पहुंचे होंगे ? यही सब सोचते-सोचते कहां खो गई पता ही नहीं चला। अब मैं लड्डू गोपाल के ठीक सामने खड़ी थी और एकटक उन्हें निहार रही थी। उस दैवीय ऊर्जा को अंतस में धारण करके हम गर्भगृह से बाहर आ गए। गर्भगृह के ऊपर एक चबूतरा बना था और उसके सामने एक मार्बल की दीवार थी जिसके दूसरी तरफ मस्जिद भी थी। गाइड ने हमें बताया कि ध्यान से देखने पर उन मार्बल की फर्शियों में विभिन्न मुद्राओं में कृष्ण की छवि दिखाई देती है। गाइड ने हमें बताया कि यह निर्माण के समय बिलकुल सफ़ेद थीं बिना किसी आकृति के लेकिन धीरे-धीरे इन फर्शियों पर कृष्ण की छवि उभरने लगी और इसीलिए वहां "स्वयंप्रकट श्रीकृष्ण" लिखा था। गाइड ने हमें यह भी बताया यहाँ पर सात और कोठरिया थी जिन्हें औरंगजेब ने अपने शासन के दौरान मस्जिद में मिला दिया। फिर एक बार अपनी समृद्ध विरासत पर गर्व हो रहा था लेकिन दुःख भी कि न जाने कितनी ऐसी बातें मुग़लों ने इतिहास से ही गायब कर दी होंगी। हम अब अपने रूम की ओर लौटने वाले थे। हम एक ओपन ऑटो में बैठे थे। अचानक मुझे महसूस हुआ जैसे कोई मेरे सर पर हाथ रख रहा है। मैंने पलटकर देखा तो मेरे कुछ समझने के पहले ही एक बंदरिया मेरे सर से चलते ऑटो में से मेरा गुलाबी टोपा खींच कर ले जा चुकी थी। इसी तरह कुछ हलके फुल्के और कुछ भावनात्मक क्षणों को समेटे हुए हमारी मथुरा यात्रा पूर्ण हुई।



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