नहीं आऊँगी ( कहानी )
नहीं आऊँगी ( कहानी )
मैं जब कभी बरामदे में बैठता हूँ, अनायास मेरी निगाहें उस दरवाजे पर जा टिकती है, जिससे कभी शालू निकलती थी और यह कहते हुए मेरे गले लग जाती थी - " अंकल, आप बहुत अच्छे हैं।
कई साल गुजर गए उस मनहूस घटना को बीते हुए। वक़्त ने उस घटना को अतीत का रूप तो दे दिया, किन्तु .......मेरे लिए वह घटना आज भी.......शालू की यादें शायद कभी भी ....मेरा पीछा नहीं छोड़ेगी। आखिर छोड़े भी क्यों ? मेरे ही कारण तो शालू को जीवन के उस चौराहे पर खड़ा होना पड़ा था, जहाँ हर आने - जाने वालों की नज़रों में उसके लिए सिर्फ संदेह होता .......हर होंठ व्यंग मिश्रित मुस्कान की बोझ उठाये होते ....हर ज़बान एक ही भाषा बोलती .......हर हृदय में घृणा का ही भाव होता। मेरे ही कारण तो जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही उसे रुसवाई का वह तोहफा मिला जिसे वह संभाल न सकी। यूँ लगता जैसे दरवाजे पर कोई छाया मुझसे एक ही सवाल पूछती हो - " ये क्या कर दिया प्रसून ?" और मेरे कलेजे में एक हूक सी उठती, ओफ्फ़ ! मैंने शालू का प्रस्ताव क्यों ठुकरा दिया ????
तब मैं बी.ए. पार्ट - 1 का छात्र था .......जब वर्माजी मेरे मकान में बतौर किरायेदार रहने आये थे। वे पिताजी का एक सिफारिशी खत अपने साथ लाये थे कि वर्मा जी मेरे आज्ञाकारी छात्र रहे हैं, बगलवाले फ्लैट में इनके रहने की व्यवस्था करा देना। मुझे भला क्यों आपत्ति होती। वर्माजी रहने लगे और मैं शीघ्र ही उनके परिवार से घुल-मिल गया। उनकी बड़ी बेटी मधु मालिनी मैट्रीक में तथा छोटी बेटी शालिनी नवीं में पढ़ती थी। संजय और संजीव छोटे-छोटे थे। शालू (शालिनी), संजय और संजीव का मेरे यहां काफी आना-जाना था, विशेषकर शालू मुझसे काफी हिल-मिल गयी थी। मैं जैसे ही कॉलेज से आता शालू दौड़ी हुई आती "अंकल, आप नहीं रहते हैं तो अच्छा नहीं लगता है। मेरा वश चले तो आपको अपने ही घर में रख लूं।"
"तुम्हारे घर में तुम्हारा वश नहीं चलता?....मैंने पूछा।"
"ये तो माँ का घर है।"
"अच्छा, ससुराल को तुम अपना घर....।"
"धत ....ये सब कहिएगा तो नहीं आऊंगी। मैं हँसने लगता और वह भाग खड़ी होती। शालू ने सैकड़ों बार "नहीं आऊंगी" कहा था, किन्तु ऐसा कहने के दस मिनट बाद ही वह गंभीर बनी, गुमसुम, मेरे दरवाजे पर आ खड़ी होती और कुछ पल बाद खिलखिला कर हंस पड़ती "अंकल, भला मैं आपसे नाराज हो सकती हूं....नहीं, कभी नहीं ।"
समय गुजरता रहा और एक दिन वह भी आया जब हमेशा की तरह ही " नहीं आऊंगी" कह कर शालू गयी और वापस लौट कर नहीं आयी ....वह बड़ी हो चुकी थी। सदैव की भाँति एक दिन वह आकर मेरे बगल में बैठ गयी। मैं कुछ परेशान था।
"मुझसे नाराज है अंकल?" उसने पूछा...
"नहीं तो, सर में हल्का दर्द है।" मैंने यूं ही उसे टालने के ख्याल से कह दिया था। वह मेरा सर दबाने लगी, अचानक उसकी मां मेरे कमरे में चली आयी। उनके माथे पर आ रहे शिकन इस बात के प्रमाण थे की शालू की उपस्थिति और उसका यह व्यवहार उन्हें अच्छा नहीं लगा था। मां को देखते ही शालू उठकर चली गयी। दूसरे दिन न तो वो मेरे कमरे में आयी और न ही मुझे कहीं दिखाई पड़ी। जब शाम को संजीव मेरे पास आया तो मैं शालू के सम्बन्ध में उससे पूछा और उसका जवाब सुनकर मुझे यूँ लगा जैसे किसी ने सरे बाजार मुझे नंगा कर दिया हो। बात की गंभीरता से अनभिज्ञ बालक बोला " मां ने शालू दीदी को मना किया है कि वह न तो आपसे ज्यादा बातचीत करें और न आपके पास आये।" मेरी अंतरात्मा में हलचल मच गयी। मैंने उसी क्षण निश्चय कर लिया कि जैसे भी हो शालू से अपना सम्बन्ध तोड़ लूंगा। दो दिनों तक न तो वह मेरे पास आयी और न ही मैं उससे मिला। तीसरे दिन जब मैं एक पत्रिका के अनुरोध पर उसके लिए निबंध लिख रहा था, अचानक शालू मेरे बगल में आकर बैठ गयी। मैं घबड़ा गया। कल तक शालू के साथ घंटों कहकहे लगाने वाला दिल बगल में उसके बैठ जाने मात्र से बुरी तरह धड़क उठा।
"शालू, तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था।" बिना उसकी तरफ देखे ही मैंने कहा।
"मुझसे नाराज है अंकल? " अपने हाथ से मेरा मुंह अपनी तरफ घुमाते हुए उसने पूछा।
"जब तुम्हारी मां मना करती है तो फिर यहाँ आने की क्या जरूरत है?"
"अंकल, मैं तो यहाँ पहले भी आती थी, मां अब मना क्यों करती हैं? "
"मुझे क्या मालूम।" मैंने काफी रुखाई से कहा।"
"इतनी जल्दी मुझे भूल गए अंकल किन्तु, मैं आपको कैसे भूल सकती हूं " मैंने देखा, उसकी आँखों में अश्कों का सैलाब उमड़ पड़ा था......मैं सोच नहीं पा रहा था की इस नयी परिस्थिति का किस तरह सामना करूँ। शालू जाने लगी तो मैंने उसे पकड़ कर पुनः बिठा दिया।
" शालू, मुझे गलत मत समझो। मेरे दिल में तुम्हारे लिए अब भी वही स्नेह है, पर मां की आज्ञा तुम्हें माननी चाहिए।"
शालू का मेरे यहाँ आना-जाना अब काफी कम हो गया था। वह मेरे यहाँ तब ही आती थी जब उसकी मां और मधु या तो घर से बाहर हों या सो गयी हों। मैं अपनी तरफ से शालू से दूर रहने का भरसक कोशिश करने लगा था। न जाने क्यों, मुझे आने वाला हर पल डरावना लगता थ । एक रोज रात को दस बजे शालू मेरे कमरे में आयी।
"शालू, भगवान के लिए चली जाओ यहां से।" मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा।
"क्यों," वह मेरी बगल में बैठते हुए बोली।
"यह क्या पागलपन है। इतनी रात गये तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था।"
"यदि मुझे आपसे मिलने से रोका नहीं जाता तो फिर रात में मैं छिपकर आती ही क्यों? चाहे कोई कुछ भी कहे मैं आपसे अपना पवित्र सम्बन्ध नहीं तोड़ सकती ।" उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में ले लिया था। मैं कुछ कहता इसके पहले ही बुरी तरह चौंक पड़ा, दरवाजे पर मधु खड़ी थी ......उसे देखते ही शालू तीर की तरह निकल गयी।
सुबह संजय से मालूम हुआ कि रात में शालू को बेहरहमी से पीटा गया है। समाज की संकीर्णता देखकर मेरा मन क्षुब्ध हो उठा। किसी लड़की का किसी लड़के से मिलने का एक ही मतलब निकालने वाला यह समाज सजग एवं सचेत रहने के नाम पर भयंकर लापरवाही का परिचय देता रहता है। शालू पर, जो अभी यौवन के पड़ाव से कुछ दूर ही थी, उसकी मां ने सुरक्षा के ख्याल से पाबंदियां लगानी शुरू कर दी थी। शैशव और यौवन के बीच का समय उम्र का सबसे खतरनाक एवं संवेदनशील मोड़ है। छिपाव से लगाव पैदा होता है और यही कारण था कि मां शालू से मुझसे मिलने के बहाने जो बात छिपाना चाहती थी, शालू उसे जानने के लिए मेरे पास बार-बार आना चाहती थी। शाम को मैंने वर्मा जी को बुलाकर रहने की अलग व्यवस्था करने के लिए कहा। साथ रहना अब किसी भी तरह संभव नहीं था क्योंकि हम-दोनों के बीच अविश्वास की भावना दिन-प्रतिदिन बलवती होती जा रही थी। जिस शाम मैनें वर्मा जी को बुलाया था उसी रात शालू पुनः मेरे पास आई और आते ही बोली.... "आज मैं आपसे एक गंभीर विषय पर बात करने आई हूं। सच कहती हूं आपसे, मैं अब थक गयी हूं, मुझे सहारे की जरूरत है। मैं आपसे शादी करना चाहती हूं।" बम सदृश धमाका हुआ .......मुझे कानों पर पर विश्वास नहीं हो रहा था पर यथार्थ हर हालत में यथार्थ ही होता है। मैं शालू का प्रस्ताव सुनकर अवाक था।
"शालू, जानती हो तुम क्या कह रही हो ?"
"अच्छी तरह। आपने ही तो कहा था कि बार-बार कहा जाने वाला झूठ भी सच हो जाता है। आज सब लोग मुझे आपकी प्रेमिका और महबूबा कह रहे हैं। मेरे नाम के साथ आपका नाम जोड़ रहें हैं । बोलते-बोलते वह हांफने लगी थी। थोड़ा रुक कर बोली- "सच प्रसून, अब मैनें फैसला कर लिया है कि तुम्हारी बनकर ही दम लूंगी।"शालू अंकल से प्रसून और आपसे तुम पर उतर आयी थी। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा हा किये शालू का मुँह देख रहा था ।
"मैं तुम्हारा फैसला जानना चाहती हूँ।"
" क्या ....।" मैंने अचकचा कर पूछा।
"मैं तुम्हारा फैसला जानना चाहती हूं।"
"शालू, तुम इस समय भावावेश में हो। तुम जो चाहती हो वह मुश्किल ...." उसने मेरी बात बीच ही में काटते हुए कहा- "मैं तुम्हारा उपदेश नहीं, फैसला सुनना चाहती हूं।"
"मुझसे यह नहीं हो सकेगा शालू।"
"ठीक कह रहे हो प्रसून, तुमसे यह नहीं हो सकेगा। खैर, तुमसे कोई गिला भी नहीं है। जा रही हूं, फिर वापस नहीं आऊंगी। "
मैं पुकारता इसके पहले ही वह चली गयी। मैं भी उसके पीछे हो लिया। किन्तु बरामदे में ही रुक जाना पड़ा। उसकी मां की आवाज स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी- "कहाँ गयी थी ?"
"प्रसून से मिलने।" उसने निर्भीकता से कहा।
"अपने यार से मिलने गयी थी ?"
"हां।"
"बेशर्म, आज मैं तुम्हारा पैर ही तोड़ कर रख दूँगी।"
"तुम क्या, मैं खुद ही अपना पैर तोड़ लूंगी।" मैं बोझिल मन से अपने कमरे में लौट आया। मुझे शालू पर गुस्सा नहीं, तरस आ रहा था। जो परिस्थिति उसके साथ थी उसमें उसका टूट जाना स्वाभाविक ही था।अविश्वास के वातावरण में भला कोई कब तक अपना संतुलन बनाये रख सकता है ? मुझे अंकल से प्रसून कहने के लिए लोगों ने बाध्य कर दिया था। उसकी पवित्र भावना पर ऐसा अपवित्र लांछन लगाया गया कि वह टूट कर बिखर गयी। मैं सोच रहा था कि इस समय मेरा कर्तव्य क्या होना चाहिए। सोचते सोचते न जाने मुझे कब नींद आ गयी और सुबह आँखें तब खुली जब मेरा नौकर रामरतन जोर-जोर से मेरा दरवाजा पीट रहा था........कौन है?" मैंने हड़बड़ाकर पूछा ।
"साहब दरवाजा खोलिए, गजब हो गया।" रामरतन के स्वर में घबराहट थी। मैंने दौड़कर दरवाजा खोला....।।
"क्या बात है रामू ?"
"गजब हो गया साहब, शालू बीबी ने स्टोव से तेल छिड़क कर अपने को बुरी तरह जला लिया है " मेरा कलेजा मुंह को आ गया। "शालू कहां है?"
"अस्पताल में साहब।" मैं इसी तरह दौड़ा हुआ अस्पताल पहुँचा। शालू बुरी तरह जल चुकी थी। उसका सुन्दर एवं आकर्षक चेहरा विकृत एवं डरावना हो चुका था। वर्माजी, मधु एवं उसकी मां फफक-फफक कर रो रहे थे। संजय और संजीव सहमे हुए एक कोने में खड़े थे। मैं सीधे शालू के पास पहुँचा । "शालू, यह क्या कर लिया तुमने? मुझे सोचने का मौका तो दिया होता।" मैं लगभग रो पड़ा था। मेरी आवाज सुनकर वह मुश्किल से आँखें खोल सकी थी---"तुम्हारे अन्दर सोचने की भी हिम्मत नहीं है प्रसून।" अटक-अटक के शालू ने कहा। वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी। उसकी स्थिति देखकर स्पष्ट आभास हो रहा था कि जिंदगी की अपेक्षा मौत की पकड़ कहीं मजबूत था......"प्रसून....।" आँखें खोलने की चेष्टा करते हुए उसने कहा।
"हां शालू, मैं यहीं हूं ........बोलो।" मैं बच्चों की तरह रो रहा था।
"तुमको मैंने काफी परेशान किया, माफ करना।" धीरे-धीरे उसने अपने झुलसे हुए हाथ से मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा-- "वादा करती हूं....नहीं...आऊं....। " उसके झुलसे हुए हाथ झूल गये। "शालू...." मैं चिल्ला उठ । पर मेरी आवाज उस तक नहीं पहुंची। अकारण, बेबात एक बहुत बड़ी बात हो गयी। एक अप्रत्याशित घटना घट गयी। शालू को समाज ने शक की वेदी पर बलि चढ़ा दिया। जब यीशु को इंसानों का समाज शूली पर लटका सकता है तो फिर शालू की क्या बिसात ? बनी-बनाई लीक पीटने वाली शालू की मां अब सर पीट रही थी। मैं फिर वहाँ ठहर नहीं सका। अपने क़दमों को घसीटते हुए बाहर आ गया । "अंकल...." मैं सन्न रह गया । "शा....।" मेरा मुंह खुला रह गया। सामने शालू नहीं, एक छोटी लड़की हाथ में कागज़ का चिट लिये मुझसे कुछ पूछना चाह रही थी, किन्तु मैंने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। बेजान क़दमों से आगे बढ़ गय । आज भी मैं अपने आपको शालू का कातिल समझता हूं। ऐसा लगता है कि अब दरवाजे पर आकर शालू खड़ी हो जाएगी, किन्तु ये मेरा भ्रम है जो विगत कई वर्षों से मुझे छलावा देता आ रहा है ।
(समाप्त)
