Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

Tragedy

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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

Tragedy

मुर्गा का अंडा

मुर्गा का अंडा

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मानव मन का व्यवहार भी बड़ा अजीब है ।आपको कब कहाँ पर किस कारण से घसीट कर पहूँचा दे वह कल्पना और समझ से परे होता है । मेरे साथ भी आज कुछ ऐसी ही घटना घटी।

यादों ने मुझे घसीटते हुए बचपन मे पहुँचा दिया जब मै छठी कक्षा का विद्यार्थी था और मेरा गाँव एकदम विशुद्ध देशी गाँव था । लोगों का एक दूसरे के प्रति लगाव था । गाँव में किसी का भी दुख या सुख व्यक्तिगत नही होता था उसका शोक और उत्सव दोनो साझा होता था । सुख दुख के इस सामूहिक एहसास मे जाती या धर्म की लकीरों की कोई अहमियत नहीं रहती थी ।रोजमर्रा के ग्रामीण व्यवहार मे जाती और धर्म के आधार पर छिटपुट भेदभाव होता था।लेकिन यदि किसी छोटी जाती का भी जमाई जब गाँव मे आता तो उसके साथ सम्मान पूर्वक व्यवहार उँची जाती वाले भी करते थे। उम्र के हिसाब से लोगों का आदर भाव होता था । गाँव मे लोगो का इतना नजदीकी जान पहचान था कि हर व्यक्ति किसी का काका-काकी, बाबा -दादी, भैया-दीदी और फुआ के संबोधन से ही पुकारा जाता था उम्र के हिसाब से ।

मेरे उसी गाँव मे उस जमाने मे एक थी 'कबिलासो फुआ' और उनके पास था 'मुर्गा का अंडा' । उस अंडा का फंडा उस समय भी समझ मे नही आता था और आजतक नही आया ।

गर्मी का समय होने के चलते स्कूल मॉर्निंग हो गया था । मैं रोज की भाँति आज स्कूल से लौट रहा था तो देखा कि गाँव के पश्चिम तरफ वाले बाधार मे बुढ़वा आम के पास वाले मीठवा इनार पर काफी भीड़ जमा हुई थी ।उत्सुकतावश मै भी दौड़कर वहाँ पहुँच गया।वहाँ जाकर देखा तो मालूम पड़ा कि कुँआ के अंदर किसी की लाश पडी है और दुर्गंध ऊपर तक आ रहा था। मेरे पहुँचने तक मुखिया जी भी आ चुके थे।

मुखिया जी के आदेशानुसार गाँव के चौकीदार रामलाल यादव पुलिस थाने को सूचित करने जा चुके थे । थोड़ी देर में पुलिस आयी और लाश को ऊपर निकाला गया ।लाश देखते ही सभी भौंचक रह गए । वह लाश कबिलासो फुआ की थी । पुलिस ने पंचनामा किया और लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया । वहाँ पर उपस्थित लोगों से कुछ जरूरी सवाल भी पुलिस ने पूछा। मुखिया जी और चौकीदार ने ही सारी कागजी प्रक्रिया को पूरा किया क्योंकि कबिलासो फुआ के आगे पीछे कोई नहीं था ।

धीरे - धीरे भीड़ वहाँ से विलुप्त हो गयी और कबिलासो फुआ अब एक इतिहास बनकर रह गयी । लेकिन मेरा बालक मन बार बार एक ही प्रश्न पूछ रहा था कि उसके "मुर्गा का अंडा" का क्या हुआ होगा ? इतनी समझ तो हो गयी थी की मुर्गा अंडा नही देता है लेकिन जिस तरह से अपने मैले कुचैले थैले और उसमे रखे मुर्गा के अंडा को लेकर वह संवेदनशील थी मुझे लगता था कुछ तो रहस्य है इसके पीछे । यह अब कभी सुनने को नही मिलेगा :

"आंधी पानी आयी , मुर्गा के अंडा बिलायी"

यही बात बोलकर बच्चे उसको चिढ़ाते थे और वह खूब चिढ़ती थी । गाँव के बच्चों का यह अच्छा टाइम पास था । इतना कहते ही "तोहर मुर्गा अंडा देले बा" वह मारने के लिए दौड़ पड़ती थी । उसको चिढ़ाने के लिए कोई भी थपडी बजाकर कहता था "यहाँ देखो तुम्हारा मुर्गा का अंडा गिरा है" । वह दौड़कर वहाँ पहुंचती और बेचैन नजरो से उसे ढूंढने लगती , कुछ लड़के उसको ढूँढने में मदद करने का नाटक भी करते थे । फिर उसी में से कोई अंगूठा दिखाकर बोलता " ई लीली मैने झूठी मुठी बोला था या कोई यह बोलकर भाग जाता कि उसे अंडा मिल गया । उसके बाद वह वहीं बैठकर एडी घिसकर दहाड़ मारकर रोने लगती और उसके पूरे खनदान को विचित्र-विचित्र गालियों से नवाजती ।सभी देखनेवाले बच्चे उसकी इस व्यथा का आनंद लेते ।जैसे ही गाँव का कोई बड़ा बुजुर्ग उधर से गुजरता सब लड़के भाग जाते या छुप जाते । फिर वो आदमी उसको प्यार से समझाता की उसने झूठ बोला होगा , शरारत किया होगा ! पहले तुम अपने झोला मे देख लो ।वह झोला में हाथ डालती और खुश हो जाती। हँसने लगती और उस आदमी को भैया ,चाचा या बाबा जो भी रिश्ता बैठता हो कहके धन्यवाद देती और अपने अर्थहीन रास्ते पर आगे बढ़ जाती।

कबिलासो फुआ की पहचान थी एक हाथ मे जास्ता का कटोरा और दूसरे में बाँस की छड़ी तथा कंधे पर लटकता मैला कुचैला थैला । बिना कंघी के उलझे बिखरे घुंघराले बाल, शरीर पर नाममात्र के फटे- चुटे कपड़े जो कभी भी लज्जा ढकने मे पूर्णतया समर्थ नहीं होते थे । हमेशा कुछ ना कुछ बुदबुदाते होठ जिसको कोई सुन नहीं पाता था क्योंकि कोई भी उसके इतना करीब नही जा पाता था । केवल मेरी दादी से ही वह ऐसे बात करती थी जैसे वह सामान्य व्यक्ति हो । हालाँकि वो बातें भी अर्थहीन ही होती थी । उसकी उम्र लगभग पचीस से तीस के बीच होगी । रंग सांवला और मोती से दाँत।उसकी मधुर मुस्कान और खनकती हँसी किसी को भी आकर्षित करती । यदि वह सामान्य औरत होती तो उसकी झील सी गहरी आँखों मे तैरने की ख्वाहिशमंद बहुतेरे होते । लेकिन वह पागल थी ,अर्धर्विक्षिप्त थी , वह गंदगी और सफाई में अंतर नही कर पाती थी । प्यास लगने पर बहती नाली का भी पानी पी लिया करती थी ।भूख लगी तो कूड़ेदान से भी निकालकर खा लेती थी । भूख नही होने पर पकवान को भी हाथ नहीं लगती थी ।

मैने घर पहुँचकर दादी को बताया कि अब कबिलासो फुआ नही रही। दादी को काफी दुख हुआ सारी बात जानकर । दादी बोली मालूम नही बाची के साथ क्या हुआ होगा , इनार मे गिरकर कितना तड़पी होगी ।

मैने दादी से उत्सुकतावश पूछा कि कबिलासो फुआ के बारे में बतावो ना , क्या वह बचपन से ही ऐसी थी ?

दादी ने अपनी नम हो चुकी आखों को पोछते हुए कहा कि नही बाबू वह बहुत ही हँसमुख और समझदार बच्ची थी । वह बहुत ही काबिल थी तभी तो उसका नाम उसकी माँ ने कबिलासो रखा था । वह अपने पुश्तैनी बनिहार देवठन की बिटिया थी। हमेशा माँ का पल्लू पकड़े डोलती फिरती थी ।उसकी माँ जब किसी काम से आती तो वह मेरे पास आकर बैठ जाती और अपने उम्र से ज्यादा समझदारी की बातें करती ।

उसकी उम्र तकरीबन सात साल की होगी जब जाड़े की एक रात में उसके झोपड़ी मे आग लगी और उसके परिवार के सभी सदस्य उसमे जलकर मर गए । उसकी माँ , दादी , बड़ी बहन और छोटा भाई सब जलकर राख हो गए । कबिलासो और उसका बाप दोनो बच गए क्योंकि इसको मामा घर से लाने के लिए देवठन चला गया था । उस घटना के बाद देवठन भी एकदम टूट चुका था और उसी मिठवा इनार में कूदकर अपना जान दे दिया ।उस घटना का इस मासूम पर इतना गहरा असर पड़ा कि यह अपनी सुधबुध खो बैठी ।

अनाथ बच्ची को जो कोई भी खाने को कुछ देता तो खा लेती। वह गुमसुम रहने लगी । मैने जितना हो सका उसका ख्याल रखा । लेकिन वह कभी भी घर से निकल जाती कहीं भी भटकती रहती। किसी के साथ कुछ भी शरारत करती तो कोई भी बुरा नही मानता था । गाँव के सभी लोगों की उसके प्रति सहानुभूति थी क्योंकि उसका बाप बहुत ही मिलनसार और नेकदिल इंसान था ।

बचपन मे केवल गाँव मे ही घूमती थी अब तो वह अडोस पड़ोस के गाँव में भी जाने लगी थी । उसका स्वभाव भी अजीब थ किसी से कुछ भी नही माँगती थी लेकिन किसी का भी बुरा नही करती थी । एकबार तालाब में डूबते शिवा को उसी ने बचाया था ।

हॉं दादी , जब दो भैंसा लड़ते हुए गोड़ियार में घूंस आए तो उसने कैसे रमेश की जान बचाई थी। उस समय सबलोग उसकी बहादुरी और समझ की तारीफ कर रहे थे । लेकिन दादी उसके मुर्गा का अंडा वाली बात क्या थी ? भला मुर्गा का भी अंडा होता है कहीं !

बचवा देखो मुर्गा का अंडा नही होता है । लेकिन पागल के दिमाग मे जो बात घुसकर बैठ जाती है वह निकलती नही है । वह सही हो या गलत हो। वह अपनी ख्याली दुनिया मे रहता है और उसमे किसी भी तरह का बदलाव - सकारात्मक या नकारात्मक - उसको पसंद नही आता है ।

जिस मुर्गा के अंडा को लेकर वह इतना संबेदनशील थी वह उसके दिमाग के थैली मे था ना कि उसके कंधे पर लटकने वाले थैले मे। तभी तो किसी के कहने पर अपने थैले मे झांककर टटोलकर वह संतुष्ट हो जाती थी।हर इंसान को अलग प्रकार के मुर्गा का अंडा चाहिए कोई उसकी खोज में पागल हो जाता है और कोई दूसरे को पागल बना देता है ।प्रत्यक्ष या परोक्ष, तलाश सबको है ।


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