केसरिया उमापति

Fantasy Others

4.5  

केसरिया उमापति

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मुक्ति

मुक्ति

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 " जीवन के कर्मों एवं दुःखों से मुक्ति!"                     

                     

              परिचय

"अँकल, कॉलोनी में नए हो क्या ? आपको कभी इधर देखा नहीं", एक 16 - 17 साल के किशोर ने उससे सवाल किया ?

उसने कोई जवाब नहीं दिया। अपने लॉन्ग कोट से सिगरेट की डिबिया निकली, उसमें से एक सिगरेट निकाला, जलाया और कश भरने लगा। ठण्ड का मौसम था, शाम करीब 6 बज रहे थे, अँधेरा हो चला था।

"आपने सवाल का जवाब नहीं दिया", उसने फिर सवाल किया, और बोलना जारी रखा – "कुछ दिनों से आप रोज शाम इस पार्क में आते हो। इसी सीमेंट की कुर्सी पर बैठते हो… आपकी कोई फैमिली नहीं है क्या ? आप हो कौन ?"

- क्या जानना चाहते हो मेरे बारे में, उसने धुआँ छोड़ते हुए पूछा ?

- सबकुछ !

- क्यों ?

- क्योंकि आप मुझे इंटरेस्टिंग लगे। … लोग पैसे, फैमिली या सक्सेस के पीछे भागते है, आपको देख कर लगता नहीं कि आप किसी रेस में हो।

- (कुछ देर चुप रहने के बाद) कहानी सुनना पसंद है ?

- बहुत ! …पर दादी नानी की नहीं। अब वो कहानियाँ बोर करती हैं।

- हुंह…, उसने मुस्कुराते हुए कहा - "तो सुनो ! ये जो पार्क देख रहे हो, बहुत पुराना है। बस, तुम नए हो !"

- आपको कैसे पता ? मैं पुराना हूँ, मेरे दो साल हो गए हैं यहाँ।

- हा..हा..हा.. (उसके चेहरे पर हल्की सी हँसी छा गई )। उसने सिगरेट का अगला कश खींचते हुए कहा – "जिन लोगों ने अपनी जिंदगी इस कॉलोनी में गुजार दी, वे यहाँ पुराने न हो सके ... तुम्हारा तो यहाँ आए जुम्मा जुम्मा आठ दिन भी नहीं हुए हैं।"

किशोर झेंप गया।

"खैर छोड़ो, चलो चलते हैं कहानी की तरफ", उसने किशोर के मनोभाव को पढ़ने के बाद कहा - … "तो बात है आज से करीब चार साल पहले की। इस कॉलोनी में एक था सुखबीर सिंह उर्फ सुखी – हट्टा-कट्टा बदन, बड़ी -बड़ी दाढ़ी–मूँछें और सर पर पगड़ी – पंजाबी जो था ! उसकी एक बेटी पढ़ लिख कर कनाडा में सेट हो गई थी। वहीं उसने एक एन. आर. आई. से शादी कर ली थी। उसकी बेटी जब तकरीबन 10 साल की थी तब उसकी बीवी किसी और मर्द के साथ भाग गई। उसकी बेटी उसे इसी वजह से लूजर बोलती और समझती भी है। उसके पास करोड़ों की जायदाद थी, पर किस काम की? उसी जायदाद और वसीयत का लफड़ा चल रहा था उसका।

इस कहानी का दूसरा पात्र है – इमामुद्दीन उर्फ इमाम। पान खाने का शौकीन। पत्नी रेहम, बेटा सलीम और बहू फरहत। कहने को तो पूरा परिवार था उसका, सब खुश, किन्तु अंदर की बात कुछ और थी। इमाम मियाँ अपनी बीवी के साथ रहते तो थे बेटे के घर, किन्तु उनकी और बीवी की हैसियत एक गुलाम से ज्यादा की न थी। बाहर गरैज के ऊपर एक शीट डाल कर कमरा बना कर उसी में दोनों मियाँ बीवी को रहने की जगह दी थी बेटे ने।

इस कहानी में तीसरा बंदा है – जॉय उर्फ जे । यूँ तो जॉय का मतलब होता है आनंद, पर उसने कभी जिंदगी में आनंद महसूस किया ही नहीं ! माउथ ऑर्गन बजाने का शौकीन, एकदम चुप और शांतिप्रिय। उसने शादी नहीं की थी। कहते हैं, जवानी में उसने एक लड़की जिया को प्यार किया था तो प्रपोज भी कर दिया। जिया ने भाव नहीं दिया और रिजेक्ट कर दिया ! जे को इतना आघात पहुँचा कि उसने जिंदगी भर शादी ही नहीं की, और वह यहाँ नौकरी के लिए आ गया। पर शायद ऊपर वाले को कुछ और मंज़ूर था।" उसने लंबी साँस छोड़ते हुए कहा।

"क्या", किशोर ने उत्सुकतावश उससे पूछा ?

"…अब इसे जे की खुशकिस्मती कहो या बदकिस्मती, जिया की शादी जे के ठीक सामने वाले मकान में हुई। जॉय के बेडरूम की खिड़की जिया की बालकनी के ठीक सामने खुलती थी। जिया रोज सुबह नहाकर बाल सुखाने एवं शाम में पति व बच्चों संग चाय पीने बालकनी में आती थी। जॉय के बेडरूम की खिड़की 24×7 खुली रहती", उसने अंतिम कश खींच कर नाक से धुआँ छोड़ते हुए बोलना जारी रखा - "इस कहानी का अगला पात्र है – धनंजय उर्फ धन्नो। इस कॉलोनी का साहूकार। पत्नी को छोड़ इस संसार में उसका कोई नहीं था। एक पाँव से लाचार एवं निःसंतान, पर इस कहानी का सबसे ज्यादा मजाकिया और मस्तीखोर इंसान। ये चारों लगभग साठ के आसपास के थे। सभी नौकरी में थे, धन्नो को छोड़कर। धन्नो के पिता भी इसी पीएसयू में नौकरी करते हुए सेवा निवृत्त हुए थे, पर धन्नो को बिजनेस ज्यादा भा गया तो उसने दुकान खोल ली। इन सबके अलावा एक और शख्स था इस कहानी में" …

"कौन", किशोर ने बात काटते हुए पूछा?

नई सिगरेट जलाते हुए उसने बोला - "पागल ! ...एक पागल भी था इस कॉलोनी में – लंबे -लंबे बिखरे बाल–दाढ़ी। गंदगी से उसके बाल–दाढ़ी में जटाएं बन गई थीं। फटा रंग–बिरंगा कमीज़ धूसर हो चुका था। एक नीला जीन्स जो न जाने कितने दिनों से धुला नहीं था, जिसमें न तो बटन था और न ही चेन। उस पागल ने अपने कमर में रस्सी बाँधकर किसी तरह जीन्स को टिकाकर रखा था। कभी वह धनंजय की दुकान के सामने सड़क के किनारे घंटो बैठा रहता, कभी इसी पार्क पर प्लास्टिक, फटे कपड़े, रद्दी, लकड़ी, बोतल आदि चुनता और जमा करता तो कभी पूरे कॉलोनी के चक्कर लगाता। कभी उन रद्दी को किसी के घर के बाहर फेंक आता, कभी किसी घर के सामने सो जाता, कभी खुद को भगवान कहता, कभी भूत, कभी वह जोर - जोर से हँसता तो कभी दिनभर रोता ही रहता। कभी किसी को उस पागल पर तरस आता तो कुछ खाने को उसे दे देता था। धनंजय की पत्नी अक्सर उसे कुछ न कुछ खाने को दे ही देती थी।

सुखबीर, जॉय, इमामुद्दीन और धनंजय के बीच संबंध अच्छे थे। सुखी और इमाम रोजाना शाम को पार्क में टहलने जाते और लौटते वक़्त धन्नो की दुकान पर कुछ देर बैठते। जे कभी पार्क नहीं जाता। वह शाम को धन्नो की दुकान पर बैठता और सुखी व इमाम का इंतजार करता। इन सबके बीच वह पागल ही जवान था - 40-42 के आसपास उसकी उमर होगी उसकी। 

        


पुराना ढंग, नया रंग!

एक शाम रोज के माफिक धन्नो की दुकान पर चौपाल सजी थी। चारों बैठ बातें कर रहे थे। उधर सड़क पार वह पागल ज़मीन पर बैठ उनकी बातों का लाइव टेलीकास्ट देख रहा था। बातों - बातों में धन्नो ने कहा, 'यार ! हमने जिंदगी दूसरों की खुशी के चक्कर में गुजार दी, ... मिला क्या ? कुछ नहीं ! साला.. हम जिंदगी भर ये सोचते रहे कि लोग क्या सोचेंगे…हुंह ! अब पता चला कि कोई हमारे बारे में सोच ही नहीं रहा था ! … तो क्यों न अब खुद के बारे में सोचा जाए ? यहाँ हर कोई संताप में जी रहा है, हर कोई दुःखी है, तो क्यों ना इस दर्द को कम कर थोड़ी देर के लिए मुस्कुराते और मस्ती करते हैं।'

'कैसे', सुखी ने पूछा ?

'पार्टी', धन्नो ने जवाब दिया।

'पार्टी', जॉय बोला ? ये क्या बकवास आइडिया है यार, अब तो पार्टी भी दिखावे का रस्म रह गया है बस।

'अरे यार ! वो पार्टी नहीं..'

'...तो, तो कैसा पार्टी', इमाम ने पान थूक कर धन्नो की बात काटते हुए पूछा ?

'अरे यार ! पहले सुन तो लो पूरी बात, फिर अपनी बात कहना। मेरा मतलब वो पार्टी नहीं है। हम चार लोग पार्टी करेंगे... बैचलर पार्टी। किसी और की नो इंट्री। बस हम चार, और उस पार्टी में इमाम भाई बिरयानी बनाएँगे (फिर इमाम की ओर देखते हुए), क्यों इमाम भाई ? बड़े दिन हो गए यार; तेरे हाथ का बिरयानी खाए ! अपना जे गाने का ज़िम्मा संभालेगा, और सुखी यार तू… तू बस दारू का इंतजाम कर दे यार' - धन्नो ने बात पूरी करते हुए कहा !

इमाम झिड़कते हुए – 'ए मियाँ ! यार मरवाओगे क्या ? शराब ? ना.. ना..! रहने दो ऐसी पार्टी।'

'अरे यार ! मैं धर्म पर ज्यादा कुछ नहीं कहता, पर यार सोच। पूरी जिंदगी तूने धर्म का पालन किया, बहुत ऐसे काम किए जिससे जन्नत मिलता है, पर अब यार ! जिंदगी के ढलान में कुछ गुस्ताखियाँ भी कर ले। कुछ गुस्ताखियाँ भी करनी चाहिए, बस मिज़ाज को खुश रखने के लिए', धन्नो ने इमाम को समझाते हुए कहा।

सुखी तभी बोल पड़ा – 'ओए, धन्नो ! कौन सा ब्रांड चलेगा ?'

जे – 'अब जब इमाम भाई का पहली दफा होगा तो बीयर ही चलेगा।'

'अरे, ना ना, मैं तो वोडका पीता हूँ' , इमाम ने टोकते हुए कहा।

तीनों एक दूसरे को देख कर जोर से हँस पड़े।

  

           

             मस्ती

'तस्बीह भूल गया नमाज़ी, पंडित भूल गया माला,

चला दौर जब पैमानों का, मग्न हुआ पीने वाला ।'

( स्व. हरिवंश राय बच्चन जी की ' मधुशाला ' से उद्धृत )


पार्टी सुखी के घर पर थी। धन्नो शराब के चखने के लिए चिकन 65 बना रहा है, इमाम मियाँ बिरयानी की तैयारी कर रहे हैं, जे को कुछ ज्यादा आता नहीं तो लहसुन, अदरक और प्याज, खीरा आदि मसाले एवं सलाद की तैयारी कर रहा है। सुखी दारू लेने बाजार गया है...

'और पागल', किशोर ने अचानक तपाक से पूछा ?

उसने नई सिगरेट जलाते हुए जवाब दिया – वो पागल घर के बाहर बैठ गाना गा रहा है…( फिर वह हँसने लगा )।

'हम्म…', किशोर ने कहा।

उसने ने बोलना जारी रखा - थोड़ी देर में सुखी भी आ गया। फिर धीरे धीरे महफ़िल सजने लगी। जे अपना माउथ ऑर्गन बजाना शुरू किया – 'तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार करते हैं , ये सनम हम तो सिर्फ तुमसे प्यार करते हैं…!' फिर माहौल बनना शुरू हुआ। सबके गिलास में पैमाना उतरने लगा, गाने के बोल निकलने लगे, ताल से ताल मिलने लगे। सुखी ने थाली को उल्टा कर डफली बना दिया, इमाम ने उल्टा गिलास में चम्मच डाल कर ताल मिलाने लगा। धन्नो ने गाना शुरू किया – 'अभी जिंदा हूँ तो जी लेने दो, भरी बरसात में पी लेने दो…!' दो तीन पंक्ति हुई कि किसी ने नई धुन छेड़ी – 'दो घूँट मुझे भी पिला दे शराबी, देख फिर होता है क्या..?' फिर तो जैसे समां ही बँध गया ! जे ने माउथ ऑर्गन छोड़ी और दारू की बोतल सर पर रख नाचने लगा – 'लोग कहते हैं मैं शराबी हूँ…!' जब दौर चला तो खूब चला और जम कर चला। 'थोड़ी थोड़ी पिया करो …' से फिल्मी गानों में 'ओ साकी साकी रे साकी साकी, रह ना जाए कोई ख्वाहिश बाकी …' तक, फिर 'ए गणपत, चल दारू ला …' तक ! फिर सभी मस्त होकर खाने को बैठे। फिर सबको चढ़ने लगी। जब मदहोशी बढ़ी तो सबका दर्द बाहर आने लगा। किसी ने सच कहा है, सबसे ज्यादा सच मयखाने में बोला जाता है और सबसे ज्यादा झूठ न्यायालय में, वह भी पवित्र ग्रंथ की कसम खाकर ! जब उन्होंने अपना दर्द बयाँ किया तो एक बात साफ हो गई कि दर्द तो हर मर्द को होता है, पर उसकी सिसकी, उसकी वेदना किसी अंधेरे कमरे में गुम हो जाती है।

सुखी – 'यार, क्या बताऊं मैं ? जिंदगी में कुछ बचा ही नहीं। जिंदगी मैं जी नहीं रहा, काट रहा हूं, और कभी - कभी तो लगता है कि ये जिंदगी ही मुझे काट रही है। जब बेटी 10 साल की थी तब मेरी बीवी मुझे छोड़कर किसी और के साथ भाग गई। पूरा समाज मुझ पर थू - थू कर रहा था, सब हँस रहे थे मुझ पर। आज तक मैंने किसी को कुछ नहीं कहा, इसका ये मतलब तो नहीं कि मुझे कुछ फील नहीं होता ? धन्नो, तुम्हें पता नहीं मैंने कितनी रात नींद के दर्शन नहीं किए ! कितनी रात सिर्फ आंसूओं के सहारे काटी है। यार… इमाम ! एक बात बता, जो कुछ नहीं बोल रहा क्या वह गुनहगार हो गया ? चुप्पी का मतलब तो गलत नहीं होता ना ? आज भी मेरी बेटी मुझे लूजर समझती और कहती भी है ! अबे, जे तुम्हें क्या लगता है, क्या लूजर हूँ मैं ? साला देखो, आजतक कोई झाँकने तक नहीं आया कि मैं जिंदा हूँ भी या नहीं… बेटी बस साल भर में दो बार फोन करती है, बैसाखी में और गुरु पूर्णिमा में, वो भी सिर्फ फॉर्मेलिटी के लिए। अब जब सबको पता चला कि मैं अपना वसीयत लिख रहा हूँ, सुखबीर सिंह सबको याद आने लगा ! साली प्रॉपर्टी ना हुई प्रसाद हो गई – उसके लिए पूजा कोई करेगा नहीं, पर चाहिए सभी को। हद है यार… हद है', उसने अपनी आँखों से आँसू पोंछते हुए कहा। आज शराब ने उसके दिल का सारा भड़ास निकाल दिया था।

तभी इमाम ने दारू बोतल में डालते हुए बोलना शुरू किया – 'अबे, सुखी ! तुम्हें कम से कम संतोष तो है कि तेरी बेटी तुझे नहीं मानती, बीवी भी नहीं है। किसी से कोई उम्मीद तो नहीं है न मियाँ ! हमें देखो, कहने को बड़ा सा घर है, साथ में बेटा - बहू रहते हैं… लेकिन कभी कोई ये तक नहीं पूछता कि कैसा हूँ ? तीन बार खाना मिल जाता है, बस ! अपना तकलीफ़ अपनी बेगम से बाँट लेता हूँ। इतना कमाया, घर बनाई, बेटे के ही लिए ना… अब वो ही मेरा हाल तक नहीं पूछता। सच है मियाँ, असली दर्द तो अपने ही देते हैं, वरना दूसरों को क्या पता कि आपको दर्द किस बात से होती है…'

इमाम की बात काटते हुए धनंजय ने गिलास रखते हुए कहा – “कम से कम तेरी वारिश तो है मियाँ ! हमारा क्या ? जिंदगी भर एक औलाद के लिए तरस गए। ( अपना दाहिना पैर की तरफ इशारा करते हुए ) ये पैर देख रहे हो ना, पैर और बच्चे से लाचार मैं जन्म से नहीं हूँ … ना वो ऐक्सिडेंट होता और ना ही मेरा ये हाल होता ! ऊपर वाले ने तो जिंदगी बख्श दी, पर मेरी पत्नी को जिंदगी भर का दर्द दे दिया। ऐक्सिडेंट ने मेरे पाँव एवं अंडकोष को बहुत बुरे तरह से जख्मी कर दिया, जिंदगी भर मैं बाप नहीं बन सका। कितनी बार पद्मा ( धनंजय की पत्नी ) को कहा कि गोद ले लेते हैं, पर वह मानती ही नहीं …( आँसू पोंछते हुए ) कहती है कि … मैं माँ बनूंगी तो सिर्फ तेरे बच्चे की, वरना मैं बांझ है सही।' धनंजय के आँसू थम नहीं रहते थे, फिर भी खुद को संभालते हुए कहा – 'क्या करूँ, इतना प्यार जो करती है … चाह कर भी कुछ कह नहीं पाता। उसे कितना दर्द होता होगा, पर कभी भी मुझसे शिकायत नहीं की … बेचारी मेरी वजह से उसने जिंदगी भर का उलाहना और तकलीफ़ सहा।'

कुछ देर के लिए के लिए कमरे में सन्नाटा पसर गया। उस सन्नाटे को काटते हुए जॉय बोला – 'भाई, तुमलोगों के पास तो कोई ना कोई बहाना या उम्मीद तो है जीने की… मेरा क्या ? जिससे प्यार किया वह ही नहीं मिली। साला … आज तक पता नहीं चला कि ये मेरी किस्मत है या बदनसीबी जो उसकी शादी मेरे फ्लैट के सामने वाले घर करवा दी ! रोज सुबह शाम उसे देखता हूँ। ना वह कुछ बोलती है, और ना ही मैं कुछ कहता हूँ। बस, उसके इंतज़ार में अपने बेडरूम की खिड़की हमेशा खोल कर रखता हूँ … शायद किसी दिन ऐसा हो और वो मेरे पास आ जाए ! ( एक गहरी सांस छोड़ते हुए ) जाने वो दिन कब आयेगा ? …पता है, इमाम ! उसका चेहरा है या अरबी में आयतें लिखी हैं, क्या लिखा है, आजतक मैं पढ़ ही नहीं पाया … हुंह … मैं भला अरबी कब से पढ़ने लगा, अनपढ़ साला !'

बातें करते करते और खाना पीना होते कब रात के 1 बज गए ,पता ही नहीं चला। पार्टी हो गई , लेकिन इस पार्टी ने सबका मन हल्का कर दिया था और मुट्ठी भर खुशी भी दे दी थी।

तकरीबन 10 दिनों के बाद धन्नो ने सबको बताया कि कॉलोनी के बाहर करीब 20 किमी दूर मशहूर रैपर बादशाह का कार्यक्रम है। पहले तो सभी ने आनाकानी की, पर अंत में सब मान गए। शायद सभी को पार्टी की लत लगनी शुरू हो गई थी। कार्यक्रम की शाम इमाम ने अपने बेटे की कार निकाली जो किसी काम से शहर के बाहर गया था, और चारो लोग उसमें सवार हो चल दिए बादशाह के कार्यक्रम में। वहाँ युवाओं की भीड़ थी और सभी बादशाह के गानों में झूम रहे थे। '…वो लड़की पागल है, पागल है …' से लेकर 'डीजे वाले बाबू मेरा गाना चला दे …' आदि। जब कार्यक्रम खत्म हुआ तब पार्किंग से निकालते समय कार का पिछला हिस्सा पिलर से टकरा गया जिससे उसके पीछे की लाइट टूट गई और आसपास का हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया। सभी करीब 2 बजे सुबह लौट गए।

     

          

 चार आश्रम

( 1 ) ब्रह्मचर्य

जॉय का मन कुछ ठीक नहीं लग रहा था। आज पहली बार उसने अपने बेडरूम की खिड़की बंद किया था। शायद वह पूरी तरह से टूट चुका था और रत्ती भर उम्मीद नहीं बची थी। रोज की तरह सुबह हुई , 9 बज गए, पर जॉय की खिड़की नहीं खुली। इधर रोज की भाँति जिया बालकनी में बाल सुखाने निकली। एक नज़र उसने जे के खिड़की की ओर देखा फिर अपने काम में लग गई। जब काफी देर तक जे की खिड़की नहीं खुली तो उसे कुछ अजीब लगा। उसे जाने क्या सूझा वह सीधा जे के फ्लैट की ओर चल पड़ी। जे के घर के बाहर पागल बैठा हुआ था। जब उसने जिया को आते देखा तो उसने इशारे से रास्ता रोक उसे भगाने का प्रयास करने लगा। जिया ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया और जे के दरवाज़े तक पहुँच गई। उसकी धड़कन बढ़ी हुई थी लेकिन हिम्मत जुटा कर दरवाज़े पर दस्तक दिया तो दरवाज़ा आधा खुल गया! उसने धीमे से घर में प्रवेश किया। सामने यीशु मसीह की क्रॉस पर लटकी तस्वीर दीवार पर टंगी थी। जिया ने प्रभु को नमस्कार किया और जे के बेडरूम में गई। उसने वहाँ का नज़ारा देखा तो जड़ हो गई! जे का सिर से कमर तक का भाग बेड पर और पाँव ज़मीन बिखरा था। खुली मुट्ठी में कुछ दवाइयाँ थी जिसकी डिबिया का मुँह खुला था जिससे सारी दवाइयाँ फर्श पर बिखरी पड़ी थीं । जे दिल का मरीज था। उसके बगल में चाँदी के पायल की जोड़ी और एक पुराने जमाने का वाकमैन पड़ा हुआ था जिसमें हेडफोन लगा हुआ था। जिया ने हेडफोन को कान से लगाया तो उसमे अभी भी गाना बज रहा था '…तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार करते हैं, ये सनम हम तो सिर्फ तुमसे प्यार करते हैं … !' जिया ने कैसेट को आगे पीछे किया फिर कैसेट को उल्टा कर सुना – एक ही गाना था उस कैसेट में - ' … तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार करते हैं …ए सनम हम तो सिर्फ तुमसे प्यार करते हैं!' उसका मन भारी हो गया था। फिर उसने पायल को उठाया। उसे पायल देख कुछ याद आया। बहुत जोर देने पर उसे याद आया कि इसी पायल को लेकर जे उसके पास आया था और कहा था कि तुम अगर दिल में जगह नहीं दे सकती तो कम से कम अपने पैरों में ही जगह दे दो, मैं इतने में भी खुश रह लूंगा। ये बात याद आते ही जिया की आंखों से अश्रुधार निकल पड़ी। 'ओह ! एक ही चीज तो मांगी थी जीवन में उसने और मैं … ? मैं वो भी ना दे सकी ' - ये सोचते हुए उसने एक पायल को अपने पाँव में पहना और दूसरे में डालने ही वाली ही थी कि उसने कुछ लोगों की आवाज़ सुनी। शायद मोहल्ले वाले आ गए थे। जिया एक पैर में पायल पहने और दूसरे को मुट्ठी में रख आँसू पोछते हुए बाहर की ओर भागी। अब वह किसे और कैसे बताए कि वह तो कभी चाय पीती ही नहीं थी! वह तो सिर्फ इसलिए हर सुबह शाम निकलती थी ताकि उससे कम से कम जे की सुबह और शाम सुहानी हो सके। इधर कॉलोनी वालों ने मिलकर जे का ईसाई रीति से उसका अंतिम संस्कार कर दिया। उधर वह पागल लगातार 3 दिन तक उसके कब्र के पास बैठा रहा था। किसी को उसके आसपास फटकने तक नहीं देता था।

( 2 ) गृहस्थ


'बादशाह' के कार्यक्रम के दो दिन बाद जब इमाम मियाँ का बेटा घर आया तो उसे क्षतिग्रस्त गाड़ी दिखी। उसने अपने पिता से पूछा तो इमाम के जुबान से लफ्ज़ ना निकल सके। गुस्से से बेटे ने चिल्लाते हुए कहा – “जब ठीक से दिखाई नहीं देता तो फिर गाड़ी क्यों निकालते हैं अब्बू? उमर हो गई लेकिन शौक नहीं गया? कितनी दफा मना किया आपको गाड़ी निकालने से, पर आपको कुछ समझ आए तब ना!” इमाम मियाँ कुछ न बोल सके। चुपचाप अपने कमरे में चले गए। इमाम की बीवी ने सब देख सुन लिया था। उसने इमाम को काफी समझाया और कहा कि अपनी ही औलाद है ना! जब सलीम छोटा था तब आप उसे बच्चा समझ हर गुनाह को माफ कर दिया करते थे। आज उससे माफी मांग लीजिए। माफी मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता ना! कभी कभी रिश्ते बचाने के लिए बिना गलती के भी माफी मांगनी पड़ती है। इमाम बीवी की बात से सहमत थे। रात के वक्त सभी खाने के टेबल पर बैठे थे। खाना लगा था। जब सब खाने को तैयार होने लगे तब इमाम ने बड़ी हिम्मत जुटाकर सलीम की ओर देखा और कहा - ' सलीम, बेटा ! एक बात कहनी थी …

'सॉरी …' सलीम ने इमाम की बात काटते हुए कहा ! सलीम अपनी कुर्सी से उठा और अपने पिता के पास जाकर जमीन पर बैठ गया और उनकी हाथों को अपने हथेलियों के बीच रखकर आँखों में आँखें डालकर कहा - ' अब्बू ! ये घर, ये गाड़ी, ये प्रॉपर्टी … सब आपकी है! इसके हर चीज पर सबसे पहला और सबसे ज्यादा हक आपका और अम्मीजान का है। कल से आप दोनों बाहर गराज में नहीं बल्कि इस घर के अंदर सोएंगे। … और हाँ, मैं कल वो कार बनवा देता हूं। बस, चलाते समय थोड़ा ध्यान रखिएगा, कहते हुए उसके आँखों से आँसू निकल पड़े जो गालों पर जाकर ठहर गए। इमाम भी खुद को रोक ना सके और बेटे को गले से लगा लिया। ( शायद सलीम ने अम्मी और अब्बू की बातों को सुन लिया था। )


( 3 ) वानप्रस्थ

बादशाह के कार्यक्रम के करीब हफ्ता भर के बाद -

सुखबीर की बीवी वापस लौट आई! सुबह शाम उसका ध्यान रखती, किन्तु सुखी को जैसे कुछ फर्क ही नहीं पड़ा। दो दिन पहले उसका दामाद भी कनाडा से आया था। सभी कॉलोनीवासी आश्चर्यचकित थे कि आखिर ये कैसे हो गया, पर सच सिर्फ सुखी को पता था। उसे पता था कि ये दोनों परजीवी सिर्फ संपत्ति के लिए आए हैं। जब से पत्नी और बेटी को पता चला कि सुखी अपना वसीयत लिखने जा रहा है, दोनों ने डेरा ऐसा जमा दिया जैसे बस अब लंगर बंटने वाला हो। बहुत सोच समझकर उसने अपनी प्रॉपर्टी का वसीयत किया जिसने अपनी पत्नी को 0% , बेटी पर थोड़ा तरस खाया तो 30% और बाकी अनाथालय और वृद्धाश्रम में दान दे दिया। जब उसकी पत्नी को पता चला तो उसने कहा – 'इसी वजह से, इसी वजह से मैंने तुझे छोड़ा था! तुम्हें तो कभी मेरा ख्याल आया ही नहीं! सच में लूजर हो तुम।' सुखी मुस्कुरा कर रह गया और मन ही मन बोला कि लूजर कौन है ये तुमसे बेहतर और कौन जान सकता है ? इधर जब उसके दामाद ने पेपर देखा तो उसे भी बेहोशी आ गई। उसने सबसे पहले अपनी पत्नी को फोन कर वसीयत की डिटेल बताई। बेटी ने सुखी के मोबाइल पर सिर्फ एक मैसेज किया - 'अच्छा नहीं किया आपने पापा। प्रॉपर्टी को अपनों को देने के बजाए एनजीओ को दे दिया ? आपको कभी अपनों की परवाह थी ही नहीं ! यू आर रियल लूजर!'

सुखी ने मैसेज देखा और बैग उठाकर चुपचाप निकल पड़ा।

'कहाँ', किशोर ने बड़ी अधीरता से सवाल किया ?

कथानक ने सिगरेट से राख झाड़ते हुए जवाब दिया – वृद्धाश्रम! सुखी अनाथ था। उसे एक एनजीओ के माध्यम से अनाथालय ने पाला था। उसी अनाथालय की एक और शाखा थी वृद्धाश्रम की। सुखी ने अपना वसीयत उसी अनाथालय और वृद्धाश्रम के नाम लिखा था। अब सुखी से बेहतर अपने और पराए का अंतर कौन समझ सकता था? उसकी पत्नी और बेटी को तो ये भी पता नहीं था कि सुखी अनाथ था! दूसरे को लूजर कहने वाले अंत में खुद लूजर बन गए … हुंह !


( 4 ) संन्यास

जे की मौत, इमाम की खुशी और सुखी के कॉलोनी छोड़ जाने से धनंजय अकेला बच गया था। अब चौपाल नहीं लगती थी। शाम का वक्त शांत रहने लगा। इसी बीच पागल का पागलपन बढ़ने लगा था। सुखबीर के जाने के लगभग 10 दिन बाद एक रात धनंजय और पद्मा बात कर रहे थे। बिस्तर पर लेटा धनंजय के सीने पर सिर रख पद्मा बोली – 'मेरे ज़िद की वजह से आपको संतान सुख नसीब नहीं हुआ न … सॉरी !'

'पद्मा, यार तू ऐसा क्यों बोलती है ? आजतक अगर किसी ने मुझे खुद से ज्यादा प्यार और ख्याल किसी ने रखा है तो वो सिर्फ तुम हो! तुम मुझे मिली ना, मेरी जिंदगी की हर मुराद पूरी हुई। और जहां तक संतान का सवाल है, ऊपर वाले के सामने किसकी चली है रे? ना वो ऐक्सिडेंट होता, ना मैं अपना पैर और अंडकोष गंवाता ! इसके बावजूद तुमने मेरा साथ न छोड़ा। मैं तो हर समय भगवान से यही प्रार्थना करता था कि मेरे लिए हर जन्म में पद्मा को ही अर्धांगिनी बनाना प्रभु!'

पद्मा की आंखे नम हो गई । धनंजय ने उसे अपनी ओर जोर से खींच कस कर समेट किया और माथे को चूम लिया! 

सुबह हुई। आज धनंजय के घर का दरवाज़ा बाहर से बंद था। पहले तो कॉलोनीवासियों को लगा कि दोनों पति पत्नी कहीं गए होंगे किन्तु बाद में पता चला कि उन्होंने अपनी सारी जायदाद एक ट्रस्ट को दान कर तीर्थ यात्रा पर निकल गए हैं ...एक अनंत यात्रा पर...।

'ह्म्म ! कहानी तो अच्छी थी अंकल ! लेकिन आखिर कैसे सुखी ने इतनी बड़ी प्रॉपर्टी बना ली ? एक साधारण सी नौकरी करने वाला आदमी करोड़पति कैसे ' – किशोर ने सवालिया लहजे में कहा ?

उसने कहा – 'सुखी एक अनुशासित और बेहतरीन निवेशक था। उसने अपने पैसों को शेयर बाजार, रियल इस्टेट, म्युच्युअल फंड आदि में लगाया था। उसे निवेश, मार्केट और अर्थशास्त्र की अच्छी परख थी।'

फिर उसने अपने सिगरेट के अंतिम कश को जोर से खींचा और सिगरेट को जूते की नोंक से बुझा दिया !

'और पागल ? उस पागल का क्या हुआ', किशोर ने अंतिम सवाल किया ?

उसने किशोर की और गौर से देखा और अपने मुंह से सारा धुआँ उसके चेहरे पर छोड़ते हुए कहा – 'वो पागल … वो पागल मैं हूँ !'

धुएँ से किशोर खाँसने लगा और धुएँ को हाथ से हटाते हुए उसकी ओर देखा। उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी ! वह कुछ देर जड़वत रहा और फिर वहां से उल्टे पैर दौड़ते हुए भागा !

       



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