मुझे माँ जैसा नहीं बनना
मुझे माँ जैसा नहीं बनना
"छोटे -छोटे क़दम ही बड़ी मंज़िल तय करते हैं। कितना ही लम्बा रास्ता हो ;बस क़दम उठाने भर की देर है ;तय कर लिया जाता है। कई बार सफ़र में कुछ अच्छे लोगों का साथ आपके सफर को थोड़ा आसान बना देता है। ",डॉक्टर नेहा ने आनंदी दीदी की तरफ देखते हुए ,हॉल में बैठे हुए बच्चों को संबोधित करते हुए कहा।
कल तक एक धंधे वाली की बेटी का स्टीकर लिए घूम रही नेहा ,आज विदेश से पीएचडी करने के बाद डॉक्टर नेहा बन गयी थी। उसने अपने प्रयासों और आनंदी दीदी के साथ से अपनी पहचान और ज़िन्दगी बदल डाली थी।
आनंदी दीदी एक एन आर आई थी ;जो वेश्यावृत्ति के जाल में जकड़ी हुई महिलाओं की मदद करने वाले एन जी ओ के साथ काम करती थी। आनंदी दीदी को जब नेहा ने पहली बार देखा था ;तब नेहा कोई 8 वर्ष की थी। उन गन्दी बदबू मारती गलियों में आनंदी दीदी अकेले ही घूम रही थी। उनके हाथों में कुछ पैकेट्स थे ;जो वह घर-घर जाकर बेच रही थी।
फिर आनंदी दीदी उसके घर पर भी आयी थी। तब नेहा की माँ रानी एकदम फ्री थी। नेहा समझ नहीं पाती थी कि दिन में सुनसान रहने वाली ये गालियाँ रात को इतनी गुलज़ार कैसे हो जाती हैं। पूरे दिन दर्द से कराहने वाली और सोते रहने वाली उसकी माँ रात होते ही एकदम चुस्त-दुरुस्त कैसे हो जाती है ?
अगर नेहा कभी अपनी माँ से पूछती भी तो वह उसे यह कहकर चुप करा देती थी कि ,"तू अपने काम से काम रखा कर। तेरी फालतू बातों के लिए मेरे पास समय नहीं है। "
नेहा को अपनी माँ बड़ी अजीब लगती थी। कभी तो कहती थी कि ,"पता नहीं तू क्यों आ गयी?" कभी कहती कि ,"तू है तो जीने की आस है। "
एक बार नेहा अपनी माँ की लिपस्टिक और काजल लगाकर खुद को आईने में निहार रही थी। तब माँ ने उसे बहुत मारा था। माँ मारती जा रही थी और कह रही थी कि ,"तुझे पेट काट-काट कर स्कूल भेज रही हूँ ताकि मेरी जैसी ज़िन्दगी न जीनी पड़े। लेकिन तुझे तो रंडी ही बनना है। "
उस दिन तो माँ नेहा को मार ही डालती ,वह तो बगल की पिंकी आंटी ने उसे आकर बचा लिया।
माँ रोती जा रही थी और कह रही थी कि ,"पता नहीं किस कमीने का कंडोम फट गया और यह मेरे पेट में आ पड़ी। अगर समय से पता चल जाता तो सफाई करवा देती। हम कितनी ही कोशिश कर लें रंडी की बेटी रंडी और बेटा दलाल ही बनेगा। "
तब नेहा को माँ की बात समझ नहीं आयी थी ;लेकिन वह इतना तो समझ ही गयी थी कि रंडी बनना अच्छी बात नहीं है। उसके स्कूल में भी तो बच्चे उसे कई बार रंडी की बेटी कहकर चिढ़ाते थे और कोई भी उससे दोस्ती नहीं करता था। उसे स्कूल में भी तो आनंदी दीदी से पहले उनकी गली में आने वाली एक दीदी ने ही डलवाया था।
आनंदी दीदी ने माँ को वह पैकेट पकड़ा दिया था और कहा था कि ,"अगर ग्राहक उपयोग न ले तो तुम भी यह यूज़ कर सकती हो। "
नेहा को तब तो कुछ समझ नहीं आता था ;लेकिन बड़े होने पर वह समझ गयी थी कि ,"आनंदी दीदी और दूसरे कई लोग उसकी माँ को कंडोम देकर जाते थे। कंडोम से एच आई वी संक्रमण नहीं होता है। जिस्मफरोशी में लगी हुई कितनी ही औरतें इस लाइलाज बीमारी के कारण मर जाती हैं। नेहा की खुद की माँ भी तो इसी बीमारी से मर गयी थी। "
आनंदी दीदी ने नेहा से भी बात की थी। "पढाई करती हो ?",आनंदी दीदी ने पूछा ।
"हाँ ,पास के स्कूल में जाती हूँ। ",नेहा ने जवाब दिया ।
"पढ़ना अच्छा लगता है?",आनंदी दीदी ने पूछा ।
"हाँ ,पढ़ना अच्छा लगता है। लेकिन स्कूल जाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। ",नेहा ने कहा।
"क्यों ?",आनंदी दीदी ने पूछा।
"बच्चे मेरे साथ बैठते नहीं ;बात नहीं करते। ",नेहा ने कहा।
"अच्छा ,बड़े होकर क्या बनोगी ?",आनंदी दीदी ने पूछा।
"रंडी नहीं बनूँगी। मुझे माँ जैसा नहीं बनना। ",नेहा ने तपाक से कहा।
"अच्छा। तो कुछ भी हो जाए स्कूल जाना बंद नहीं करना। ",आनंदी दीदी ने कहा।
फिर आनंदी दीदी अक्सर ही उस बदनाम गली में आती थी। वह सभी औरतों और बच्चों से बातचीत करती थी। उन्होंने कुछ और बच्चों को भी स्कूल में डलवा दिया था।
कुछ दिनों से नेहा की माँ की तबियत थोड़ी नासाज़ रहने लगी थी। माँ को हल्का -हल्का बुखार रहता था। बहुत ही ज्यादा कमजोरी भी महसूस होने लगी थी। माँ के ग्राहक भी कम हो रहे थे। तब आनंदी दीदी बड़ी मुश्किल से माँ को डॉक्टर के पास लेकर गयी। डॉक्टर ने माँ के कुछ टेस्ट किये थे।
अगले दिन आनंदी दीदी वह रिपोर्ट अपने हाथों में लिए आये थी। " रानी तुम्हें अपना ध्यान रखना होगा। तुम्हें एड्स हो गया है। "आनंदी दीदी ने नेहा की माँ के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा।
नेहा की माँ ने आनंदी दीदी से अपने हाथ छुड़ा लिए थे और सिर्फ इतना ही बोली कि ,"यह तो होना ही था एक दिन। ज़िन्दगी तो ऐसे ही कट गयी। लेकिन अब तो मौत भी ढंग की नहीं मिलेगी। मैं तड़प -तड़प कर नहीं मरना चाहती। "
"नहीं ,दवा और अच्छे भोजन से तुम ठीक रहोगी। ",आनंदी दीदी नेहा की माँ को समझा रही थी।
"दीदी ,क्यों झूठी दिलासा दे रही हो ?अपने आसपास कितनी ही औरतों को मरते देखा है। ",नेहा की माँ ने कहा।
फिर नेहा को गले लगाकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी थी। "दीदी मेरी बेटी को इस दलदल से बचा लेना। ",माँ बस रोते हुए यही कहे जा रही थी।
नेहा की माँ बहुत दिनों तक इस बीमारी से नहीं लड़ पायी थी और एक दिन खाँसते -खाँसते रानी इस दुनिया को अलविदा कह गयी थी।
रानी के मरते ही उस बदनाम गली के दलालों ने अपनी गिद्धदृष्टि रानी की मासूम बेटी नेहा पर गढ़ा दी थी। लेकिन सही समय पर आनंदी दीदी पुलिस को लेकर वहाँ पहुँच गयी और नेहा को उन्होंने दलालों के हाथों बिकने से बचा लिया था।
आनंदी दीदी 10 वर्षीय नेहा को अपने साथ लेकर आ गयी थी। आनंदी दीदी ने निराश्रित नेहा जैसे बच्चों के लिए एक 'अपना घर 'शुरू किया। धीरे-धीरे दीदी को और लोगों की सहायता भी मिलने लगी।
नेहा ने एक बार दीदी से कहा कि ,"दीदी मुझे विदेश पढ़ने जाना है। "
आनंदी दीदी ने कहा ,"नेहा ,खूब मेहनत से पढ़ाई करो। अच्छे अंक आएंगे तो हम स्कॉलरशिप के लिए कोशिश करेंगे। "
नेहा ने दीदी की बात गाँठ बाँध ली थी। वह जी जान से पढ़ाई में जुट गयी थी ।जैसे अर्जुन को केवल मछली की आँख दिखाई देती थी ;वैसे ही उसे अपनी नयी पहचान दिखाई देती थी। 10वी क्लास में नेहा ने अपना स्कूल टॉप किया। स्कूल टॉप करते ही बच्चों की उसके प्रति दृष्टि बदल गयी थी। अब उनकी घृणित नज़रें प्रशंसा भरी नज़रों में बदल गयी थी।
नेहा ने भी इस फर्क को महसूस किया। वह समझ गयी थी कि अपनी पहचान बनाना उसके अपने हाथों में हैं। मांगने से इज़्ज़त नहीं मिलती ,बल्कि उसे कमाना पड़ता है। 12वीं की परीक्षा में नेहा ने अपना जिला टॉप किया। नेहा ने विभिन्न विदेशी विश्वविद्यालयों में स्कॉलरशिप के साथ प्रवेश पाने के लिए आवेदन कर दिया था। नेहा को कुछ जगहों से इंटरव्यू कॉल भी आये और अंतिम रूप से नेहा का चयन हो गया। आज नेहा डॉक्ट्रेट करके आ गयी थी। उसने अपनी पहचान बदल दी थी ;वह अपनी माँ जैसी नहीं बनी थी।