मंजिल

मंजिल

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सड़क पार करने को खड़ा था मगर कोई रुककर मुझ वृद्ध को जाने देने को तैयार नहीं था।

"कैसे सब एक दूसरे से आगे बढ़ने की चाह में भागे जा रहे हैं। कोई रुकना नहीं चाहता। कोई मुड़कर देखना नहीं चाहता।"

जिंदगी का सफर आँखों के सामने तैर गया। जिस बेटे के लिए हड्डियों तक को घिस डाला, आज वो कहता है मैंने दिया ही क्या उसे। मुझे जोंक की तरह चूसकर ही आज इतना बड़ा बिज़नेस मैन बन गया मगर अब भी चाहता है कि मैं अपनी सारी पूँजी उसके नाम कर दूँ। पानी के ग्लास तक के लिए चार बार चिल्ला कर मांगने को मजबूर कर रखा है मगर अब दौलत पाने के लिए स्वांग भरता है कि रोटी पानी सब समय से मिलेगा। कल को उसी के लिए छोड़ कर भी तो जाना है।

मन खुद को धिक्कार रहा था। क्या इस बेटे के लिए दिन रात पैसे कमाने में अपना शरीर तक खो दिया मैंने। मधुमेह जैसी बीमारी में भी भूखे रखता है मुझे घण्टों तक और इसकी एक जुबान पर हाथ में चॉकलेट का डब्बा रख दिया करता था पर जो समय चला गया, अब उसे कोसने से भी क्या होगा !

सड़क के शोर ने फिर वर्तमान में खींच लिया। चाहकर भी पीछे मुड़ा नहीं जा सकता तो क्यों न हिम्मत से आगे बढ़ा जाए। हाथ दिखाते हुए सड़क पार की और बढ़ गया मैं अपनी मंजिल की तरफ। अपनी सारी सम्पत्ति अनाथालय और वृद्धाश्रम के नाम की।

नालायक बेटे से जलालत नहीं सहूँगा। स्वाभिमान से बुढ़ापा बिताने के लिए एक कमरा वृद्धाश्रम में खरीद लिया था अपने लिए। फ़ोन मिलाकर उसे बता दिया कि मेरे बाकी बचे सामान से जो पैसा मिले, उसे रख ले अपने पास ही। अब मैं मुड़कर नहीं देखूँगा। मंजिल में अपनों का साथ न सही, मंजिल तो अपनी है।


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