अरमान अभी बाकी हैं

अरमान अभी बाकी हैं

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गर्मी की छुट्टियाँ होते ही मायके जाने का जोश जिस चरम पर था, वो सब मायके में फैली अजब-सी शांति ने ठंडा कर दिया। मायके की असली रौनक माँ ही सबसे अजीब व्यवहार कर रहीं थीं। कभी एकदम से अंजली के साथ ढेर सारी बातें करती, हँसती खिलखिलाती और कभी एकदम चुप मायूस सी बैठी रहतीं। पापा तो रिटायरमेंट के बाद भी अपनी जिंदगी अपने तरीके से जी रहे थे। सुबह सैर सपाटे में गुज़र जाती और फिर घर आकर, नहा धोकर, खाना खाकर कॉलोनी के लोगों के छोटे मोटे काम करवाने के लिए घर से निकल जाते। रात में आकर टी वी और मोबाइल में ध्यान लगाकर अपनी थकान उतार लेते। माँ उनकी खुशी में ही अपनी खुशी ढूँढने की नाकाम कोशिशें करती रहती।

अंजली का मन यह सब देखकर दुखी हो उठा था। रसोई में मदद करने भाभी के पास खड़ी हुई तो भाभी से भी चुप नहीं रहा गया। बातों बातों में उन्होंने सब बताया।

"दीदी! आप आयी हैं तो माँजी थोड़ा मुस्कुराई भी हैं। वरना मुझे तो लगता है ये अवसादित हैं। पहले तो काम में हाथ भी बंटाती थीं। पर पिछले कुछ दिनों से तो बिस्तर ही पकड़ लिया है। छोटी-छोटी बातों को दिल से लगा लेती हैं। न ही पूजा पाठ करती हैं अब। बच्चों के साथ भी ज्यादा नहीं खेलतीं। मैं समझा-समझा कर थक गई हूँ। आप आयी तो लगा था आपसे तो अपना दर्द बाँटेंगी। मगर आप ही कोशिश कीजिये अब। डॉक्टर के पास जाने को ही तैयार कर लीजिए। ऐसे तो ये बिल्कुल ही बीमार हो जाएंगी।"


अंजली भी गहन विचार में पड़ गयी थी कि माँ से बात कैसे शुरू की जाए। फिर कुछ सोचकर भाभी को कुछ देर बाद आने को कहकर माँ के पास चल दी।

"माँ! मैं आयी और आपने अबकी बार मेरा कुशल मंगल भी नहीं पूछा। आपको पता है आजकल अर्जुन इतने बिजी हो गए हैं अपने काम में कि मेरी ओर कोई ध्यान ही नहीं देते। अब बच्चों की तरफ से भी जिम्मेदारियां कम हो गईं तो मेरे पास इतनी फुर्सत होती है। मगर ये अकेलापन मुझे खाए जा रहा है। पता नहीं क्या करूँ"

अंजली ने मुँह फुलाते हुए कनखियों से माँ की तरफ देखा तो माँ के चेहरे पर गुस्सा साफ झलक उठा था। बाहर निकला कर। अपना फ्रेंड सर्कल बढ़ा। पढ़ी लिखी है। इतनी मनमौजी थी बचपन में। अब कहाँ चले गए तेरे शौक! मेरी उम्र तक आते आते जब महसूस होगा कि हड्डियाँ जिनके लिए घिसाईं, उन्हें फर्क ही नहीं पड़ता। और अपने लिए जीना भूल गयी। तब रोती रहना बैठकर। शरीर बूढ़ा हो जाता है। मगर अरमान जिंदा रहते हैं। तड़पाते रहते हैं। एक काश छोड़ जाते हैं अपने पीछे। माँ का गला भर आया था।


"आपके भी अरमान अभी जिंदा हैं ना माँ! और आप भी जिम्मेदारियों से मुक्त हो। तो जीना क्यों छोड़ रही हो माँ! अपने लिए कबसे जीना शुरू करोगी?"

अंजली आखिर मुद्दे पर पहुँच ही गयी। लेकिन उन्हें समझाते-समझाते एहसास हो रहा था कि यह सब कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल।

माँ ने अंजली को उनकी अलमारी से उनका वो जादुई बक्सा निकालने को कहा जिसे वो अपनी ऊर्जा का स्त्रोत कहतीं थीं। अंजली ने बचपन में चुपके से देखा था उसे खोलकर। फिर वापस जगह पर रख दिया था। आज फिर उसे उठाकर माँ के सामने लायी तो माँ की आँखे जगमगा उठीं। आज उन्होंने उसे खुद खोलकर दिखाया। और आँखों में आँसू लिए चहक उठीं।

"तू जानती है अंजली! ये मेरी जिंदगी का सबसे पहला मैडल था। अपने स्कूल में पहली बार नाटक में हिस्सा लिया और जीत गयी। थिएटर से जुड़ी। कुछ बड़ा बनना चाहती थी और माँ से वादा किया था कि देखना! एक दिन आप मुझे टी वी पर देखोगी। पर शादी हुई तो तेरे बाऊजी ने रोक लगा दी। फिर तुम दोनों आ गए। पर जब भी इस मैडल को देखती, मुझमे ऊर्जा आ जाती। जिंदगी की पहली कोशिश से मिला ये मैडल आजतक मुझे मेरे अधूरे वादे की याद दिलाता है। पर अब...अब न माँ रही और न यह वादा पूरा हो सका। अब सपने देखने तक की हिम्मत नहीं रही। सारी जिंदगी मेहनत की, कि कभी न कभी अपने लिए जीऊँगी जरूर। पर अब नहीं लगता मैं कुछ कर सकती हूँ।"

इतना कहकर माँ फूट फूट कर रो पड़ीं।

अंजली ने माँ को संभाला तभी पापा और भाभी भी कमरे में आ चुके थे।

"बुढ़िया! मेरे साथ सैर पर चला कर! इस उम्र में ये शौक अब न पूरे होंगे। पूजा पाठ की उम्र में रंगमंच के सपने देखती है।" पापा ने माँ से मसखरी की तो अंजली को बहुत बुरा लगा। माँ की लाचार आँखें देख भाभी का भी दिल भर आया।

"पापा अरमान पूरे करने की उम्र नहीं होती। हौसला चाहिए होता है। मगर माँ सचमुच अभागी है कि उनका जीवनसाथी सिर्फ अपनी जिंदगी जीना जानता है। अपनी अर्धांगिनी को हिम्मत देना तो दूर, उसे जिंदा लाश बनाने पर तुला है।"

अंजली की भाषा तीक्ष्ण हो उठी थी।

"अरे! मैंने कौन सा तेरी माँ का हाथ पकड़ा है। करना है जो करे। इसको ही बाहर निकलने का मन नहीं होता। अब इसे वो सब बारीकियाँ कहाँ याद होंगी!" पापा झेंप गए थे।

"अरे पापा! इन हाथों ने हथियार छोड़े हैं, उन्हें चलाना नहीं भूले। हैना कातिया!"

अंजली ने माहौल हल्का करने के लिए पूरी अदा से डायलॉग बोला तो माँ छलकती आँखों से मुस्कुरा उठीं।

भाभी ने आगे आकर माँ को बाहों में भरते हुए कहा,

"माँजी! अब तो पापाजी की भी परमीशन मिल गयी। मेरी बुआजी के बेटे भी थिएटर से जुड़े हैं। इसी शहर में रहते हैं। टी वी पर आओगे ये तो नहीं कह सकती। मगर हाँ, आपके अधूरे अरमान पूरे करने की पूरी कोशिश करेंगे। आप बस खुश रहा कीजिये। आपके मायूस रहने से पूरा घर मायूस हो जाता है।"

"हाँ भई! जीयो अपनी जिंदगी। पर हमें न कहना कि बुढ़ापे में हड्डियाँ दुख रही हैं।"

पापा हार मानकर बाहर चले गए।

"वैसे घर में इतना बड़ा नौटंकी है। थिएटर में एक्टिंग की क्लास इन्हीं से ले लेना माँ।" 


तीनों महिलाएँ खिलखिला रहीं थीं। 

अरमान बूढ़े नहीं होते। मरने से पहले तक जीना जरूरी है। जिम्मेदारियों में पीछे छूट भी जाएं तो सही समय मिलने पर अपनों को हौसला दें। इन इच्छाओं में इतनी ताकत होती है कि अच्छे से अच्छे दर्द और दुख को भूलकर इंसान में ऊर्जा भर जाती है कुछ करने की। कभी अपनों के पास बैठकर उनके मन की जानने की कोशिश जरूर कीजिये। जितना हो सके, उन्हें पूरा करने की कोशिश भी कीजिये। आप खुद देखेंगे कितनी खुशी मिलती है खुद को भी और उन अपनों को भी। सभी की जिंदगी में मुस्कुराहट भरते रहिये।


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