अंतहीन भूख
अंतहीन भूख
"बाबा मुझे लेट हो जाएगा। आप खाकर सो जाइये” फोन पर ये आवाज सुनकर रमेश जी की आँखों में जैसे चमक आ गयी। वहीं स्वाति का गला और आँखें दोनों भर आये।
रोज़ अल्झाइमर ग्रसित ससुर को बेटे के लौटने की आस देकर खाना खिलाते वो कब उनकी माँ बन गयी उसे भी पता न चला। रह रह कर मन अतीत की गलियों में चक्कर लगाने लगा।
एक हँसता खेलता परिवार था रोहित का। मगर दिल में एक अंतहीन भूख। रोहित इकलौता बेटा था घर का और अपनी भी एक ही इकलौती संतान पीहू। मगर इस पैसे की भूख ने जैसे उस पर कब्जा ही कर लिया। पहले दूसरे शहर, फिर दूसरे देश में जाकर बस गया वो। पीछे रहा अल्झाइमर ग्रसित बूढ़ा लाचार बाप, तन मन धन से उसे समर्पित बीवी और नन्ही सी पीहू।
एक बार घर से निकला तो कभी लौट कर अपने घरौंदे में लौट कर ही नहीं आया। उन गगनचुम्बी इमारतों के किसी कोने में गगन को छूने की चाहत लिए न जाने कौन से अंधेरे कुँए में जाकर बस गया। बस कभी कभार घर पर फोन मिलाता और घरवालों के हालचाल पूछता।
बूढ़े पिता की बेटे को एक बार सुन लेने की चाहत हर रोज़ वैसी ही रहती थी। रोज़ भूल जाते थे और न जाने कितने सालों से वो उसी दिन को बार बार जिये जा रहे थे। वही मनहूस दिन, जिस दिन रोहित का आखिरी कॉल आया था। वहीं स्वाति ने पैसा कमाने की भूख में परिवार को हमेशा के लिए छोड़ चुके पति को रिकार्डेड कॉल पर ही जिंदा रखा था। जानती थी यही एक उपाय था उन्हें कुछ खिला पाने का और थोड़ी और उम्र जिंदा रखने का। आखिर वो ही तो उसका सम्बल बन आज तक उसके साथ पिता के रूप में खड़े थे। पर अब वो उनकी माँ बन गयी थी।
एक बूढ़े ससुर और 6 वर्षीय बेटी की समय से पहले बूढ़ी होती माँ ने मुश्किल से अपने भाई की मदद से एक नौकरी हासिल की। रह रह कर उसे वो मनहूस दिन याद आया जब पुलिस ने उसे वो खबर दी। उसका पति गैर कानूनी तरीके से पैसे कमाने की अपनी लत का शिकार हो एनकाउंटर में मारा गया। सीने में छुपा यह दर्द किसी से बाँट भी नहीं पाई। दिल भारी हुआ तो आँखें छलक पड़ीं। अतीत की गलियों से बाहर निकल चल दी स्वाति रसोई की ओर रमेश जी का खाना लाने।
