मेहनताना
मेहनताना
"साहेब ! महीना बीते भी पाँच दिन बीत गए, मेरे पैसे दे दीजिए। मैं रोज़ समय पर आकर काम करती हूँ। आपको भी तो तनख्वाह समय पर मिलती होगी। हम गरीबों को काहे सताते हो साहेब।" मालती हाथ जोड़े अपना मेहनताना माँग रही थी।
"तुम लोगों को फ्री में राशन, तेल, रहना, खाना सब मिलता तो है। फिर क्यूँ सारा दिन पैसा पैसा करती रहती है ! दे दूँगा कल। अभी है नहीं।" शमशेर ने आँखें दिखाते हुए जवाब दिया।
" साहेब ! भीख नहीं माँगी जो आँखें दिखा रहे हो। अपना हक़ माँग रहीं हूँ। वैसे आपको भी तो सरकार ये फ़्लैट वगैरह सब देती है ना ! फिर भी दफ्तर का आधे से ज्यादा सामान यहाँ ढो कर इकठ्ठा करके रखा है।" मालती दृढ़ हो शमशेर की आँखों में आँखें डाल खड़ी रही।
"क्या लाया हूँ दफ्तर से ! ये स्टेपलर, रजिस्टर सब वहाँ फालतू पड़े थे, बच्चों के काम आएँगे। इसलिए लाया हूँ।" शमशेर झेंप गया।
"साहेब ! आप तो रिश्वत और चोरी भी बच्चों के वास्ते करते हो। मैं तो फिर भी अपना ईमानदार मेहनताना समय पर माँग रही हूँ। बाल बच्चे वाली हूँ। अपनी मेहनत से जोड़ जोड़कर उनको अच्छे स्कूल में पढ़ा रही हूँ ताकि कुछ बन सकें और मेरी तरह घर घर काम करते न फिरें और अपनी मेहनत का पैसा लेने के लिए उन्हें किसी के आगे मिन्नतें न करनी पड़ें।"
शमशेर ने शर्मिंदा हो जेब से पैसे निकाल उसे दे दिए।