तपस्या और ताप
तपस्या और ताप
कड़कड़ाती ठंड में लकड़ियाँ इकठ्ठा कर आग सेंकती बिमला और उसका बेटा अनन्त आज किसी तरह अपनी भूख को एक दूसरे से छिपाते बैठे थे। पर बिमला अपने लाल की पीली पड़ती आँखे देख पा रही थी। बड़ी ही सफाई से अनन्त ने भी तेज आग की लपटों का सहारा लेकर बात टाल दी।
"माँ ! ये आग इतना जलाती क्यों है ? देखो न! जिंदगी भी तो ऐसे ही तपा रही है हम गरीबों को।"कहते हुए अनन्त की जलती आँखों से एक बूँद गाल पर गिरकर सूख गयी।
"बेटा! ये आग ही इस ठंड में सहारा है। अपने ताप से ये आग लोहे को पिघला देती है। सोने को तपा कर सुंदर आभूषण भी बना देती है। ये तो हमपर निर्भर करता है कि हम जिंदगी के ताप को भी कितना सहन कर सकते हैं। यकीन मानो बेटा! निखरते भी तपने वाले ही हैं।" माँ ने अनंत के सिर को सहला कर कहा।
"पर माँ ! इस भूखे पेट से कोई क्या कर पाएगा।" अनंत का सवाल भी जायज़ था।
माँ ने फट से दुपट्टे में बंधा बिस्कुट का पैकेट निकाल कर उसे दे दिया।
"माँ के होते हुए उसका बेटा भूखा नही रहेगा। ये खा ले और पढ़ ले मेरे बच्चे!"
"पर माँ! तुम भी तो भूखी हो !"
"कोई बात नहीं बेटा। ये मेरा तप है। अभी तुझे तपाने वाली भूख के सामने मैं खड़ी हूँ। पढ़ लिखकर तू कुछ बन गया तो मेरा तप भी सफल हो जाएगा।तू सोना होगा तो मैं भी लोहा तो ही जाऊँगी।" कहकर माँ मुस्कुरा दी।
अनन्त माँ के दर्द को समझ कर भी नासमझ बना रहा। एक बिस्कुट माँ के मुँह में डाल वो भी मुस्कुरा दिया।
"माँ ! तू भी मेरे साथ पढ़ेगी। हम दोनों साथ ये तपस्या करेंगे। आज से मैं जो सीखूंगा, वो तुझे भी सिखाऊँगा। और तू मुझे यूँ ही जिंदगी के पाठ सिखाती रहना।"
"हाए हाए ! बुढ़ापे में तू भैस को काले आखर बनाएगा !" माँ ने मासूम चेहरा बना कर कहा तो अनन्त खिलखिला कर हँस पड़ा। माँ के चेहरे पर भी खुशी की लहर तैर गयी। दोनों आग की गर्मी से अपनी तपस्या की प्रेरणा ले चुके थे।