मन के छाले
मन के छाले
भाभी के यहाँ सुहागनें खिलाने का कार्यक्रम रखा गया। दोनों ननदों को न्योता भेजा गया। बड़ी ननद एक धनाढ्य परिवार में ब्याही गई थी, नौकर-चाकर, गाड़ी, बंगला सब कुछ था। उसी की तरह उसका रौब भी था। सारे घर भर में उसकी चलती थी और छोटी ननद एक मध्यम वर्गीय परिवार में दी गई थी, वह संतोषी थी। हँसी-खुशी में जिंदगी गुजर रही थी। किसी चीज की कमी नहीं थी।
दोनों ननदें नियत समय पर भाभी के घर पहुँची। भाभी ने दोनों का स्वागत किया मगर देखती क्या है, बड़ी ननद अपनी देवरानी को भी लेकर आई है। भाभी ने तो गिनती की सुहागनों को खिलाना था। उसने उसी तरह व्यवस्था की थी, सबको व्यवहार देने की।
अब एक सुहागन ज्यादा हो गई। वह छोटी ननद के पास गई और उससे कहा- "दीदी मैं आपकी जगह बड़ी दीदी की देवरानी को सुहागन खिला देती हूँ क्योंकि वह बड़े घर की है अगर उन्हें नहीं कहूँगी तो वह बुरा मान जाएगी आप तो अपने घर की हो।"
छोटी बहन से कुछ कहते नहीं बना और भाभी ने सोचा मेरा काम हो गया, और उन्होंने बड़ी बहन और उसकी देवरानी को खिला-पिलाकर बहुत सा सामान देकर विदा किया और इधर छोटी काम करते-करते सोच रही थी- "कितनी खुश होकर भाभी के घर आई थी, यहाँ यह सब हो गया, घर जाकर क्या कहूँगी सबसे।" वह अंदर से बहुत दुखी हो रही थी।
अंत में खाना खाकर छोटी भी विदा हो गयी। सब ने उसका हँसना-मुस्कराना देखा मगर किसी ने उसके अंतर्मन के छाले नहीं देखे जो भाभी के व्यवहार की वजह से हो गए थे।।