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Vinita Rahurikar

Abstract

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Vinita Rahurikar

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मजबूरी

मजबूरी

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"अनु कहाँ गयी है, दिख नहीं रही।" नीमा ने अपने पिताजी से पूछा।

"अनु पूना गयी है। अपनी सहेली के घर।" पिताजी ने जवाब दिया।

"किसके साथ गयी है। भैया-भाभी तो यहीं है।" नीमा ने आश्चर्य से पूछा।

"अकेली गयी है। नितिन ने ट्रेन में बिठा दिया, वहाँ सहेली के पिताजी आ जाएंगे लेने।" पिताजी बोले।

"क्या ? आपने उसे अकेले जाने दिया। मुझे तो न कभी तब जाने दिया न अब, जब मैं दो बच्चों की माँ बन गई हूँ। कहीं बाहर जाने का नाम लिया तो सवालों की झड़ी लग जाती है, क्यों, कब, कहाँ, किसके साथ। 

मुझे बन्धन में रखा हमेशा और उसे इतनी स्वतंत्रता।" नीमा पिता को उलाहना देते हुए बोली।

"ये अनु के पिता अर्थात तेरे भैया की परवरिश और सोच है।

तेरे पिताजी की सोच अलग है बेटी।" माँ लाड़ से बोली।

"सोच नहीं, पिताजी पजेसिव हैं, और कुछ नहीं। कभी मुझे कहीं नहीं जाने दिया। न स्कूल के साथ टूर पर न सहेलियों के पिकनिक पर।" नीमा के स्वर में मीठी शिकायत थी।

पिता चुपचाप मुस्कुराते रह गए। बोल नहीं पाए कि बड़ी मिन्नतों के बाद पायी बेटी जिसे लाइलाज बीमारी से बहुत मुश्किल से बचा पाए थे, के प्रति यह पसेसिनेस नहीं एक पिता की भावनात्मक मजबूरी थी ओवर प्रोटेक्शन की।


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