मिट्टी के दीये
मिट्टी के दीये
“बापू...कल दीपावली है, मुझे फुलझड़ी चाहिए...मिठाई और नये कपड़े भी.. ”
बेटे की आवाज़ सुनते ही, मिट्टी सने... मेरे दोनों हाथ चाक पर जम गये। यदि इस बार भी दीया की बिक्री कम रही तो, पिछली दीपावली की तरह, मैं बच्चों को नये कपड़े नहीं दे पाऊंगा !
विदेशी सामानों से पटते बाजारों में मिट्टी के दीये को भला कौन पूछता है ! आजकल, दीपावली में चाइनीज बल्बों की चलती हो गई है। न तेल देने का झंझट, न बाती खिसकाने में मेहनत, बाजार से खरीदकर लाओ ...बिजली से कनेक्ट करो , घर-बाहर चकाचक ।
किसको फ़िक्र है.. ग़रीबों के जज्बातों की ..? झुग्गी-झोपड़ियों में पल रहे बच्चों के सपनों की या बढ़ रहे जानलेवा प्रदूषण की ? पढ़े-लिखे समाज के बाबू-भैया लोग ...बस, अपने समाज के साथ, आज को जीना जानते हैं ! इस आधुनिकरण के पीछे भाग रही महत्वाकांक्षा ने हम कुम्हारों को कहीं का नहीं छोड़ा। पेट पर आफत हो गई है ।
“सुनो..सुनो..सुनो...कोर्ट का सख़्त आदेश है, बाजार में विदेशी चाइनीज समान की बिक्री बहुत तेजी से बढ़ रही है...जिससे कुम्हार की स्थिति दयनीय बन गई है। कुम्हार के घर में भी ख़ुशियों के दीप जले ..., इसलिए सभी को दीपावली में मिट्टी के दीये जलाने होंगे, जो भी चाइनीज बल्ब जलाएगा ...उसे पांच सौ रूपये का जुर्माना भरना होगा। ”
माइक लेकर प्रचार करता हुआ...रिक्शे पर सवार एक व्यक्ति मेरे सामने से गुजर गया ।
उसके जाते ही, पहले की तरह ... पंक्तिबद्ध, दीपों से झिलमिलाती दीपावली को यादकर , मेरी आँखें ख़ुशी से नम हो गयी।
एक समय था..जब अहले सुबह, अपने चाक का दीया मैं... बैलगाड़ी पर लादकर बाजार पहुँचता था और शाम होते-होते सारा दीया बिक जाता था। पाकेट में ढेर सारे खनखनाते पैसों को देखकर, मेरा मन मयूर बन जाता ढेर सारा मिठाई और पटाखे लेकर जैसे ही मैं घर पहुँचता...बच्चे लेने के लिए दौड़ पड़ते।
समय ने करवट ली है, मिट्टी का मान बढ़ा... मानो, देश का शान बढ़ा। अब, मुझ जैसे ग़रीब कुम्हार पर कोर्ट की नजर गई है। दीये से दीपावली मनेगी... तो चाइनीज बल्ब का बाजार अपने आप सिमट जाएगा, हमें पेट के ख़ातिर न पलायन करना पड़ेगा ... न, किसी के आगे-पीछे दूम हिलाने की जरूरत। खुद मालिक भी ...खुद का मुख्तार भी।
आशा का टिमटिमाता दीया, अचानक दिल में जगमगा उठा। सृजन के लिए...मेरे हाथ, फिर से चाक पर थिरकने लगे।