मेरे सामने वाला घर
मेरे सामने वाला घर


मैं बूढ़ा बरगद, वर्षों से यहाँ खड़ा आसपास देखता रहता हूँ। वह तो मेरी शाखाओं से निकली लंबी लंबी जड़ें हैं जो मुझे सम्हाले हुए हैं वरना शायद आज मैं यहाँ नहीं दिखता। मैं भी ना अपनी ही कहानी ले बैठा...... बूढ़ा हो गया हूँ न, कोई सुनने वाला मिल जाता है तो अपना मन हलका कर लेता हूँ। चलिए आज मैं आपको सामने वाले घर के बारे में बताता हूँ। वैसे तो मैं अपने आसपास के सारे लोगों के बारे में जानता हूँ पर इस घर से मुझे विशेष लगाव है। क्यों.....ज़रूर आपके मन में प्रश्न आ रहा होगा, पर ये मैं आपको बाद में बताऊँगा।
इस घर में न जाने कितने बच्चों की किलकारियाँ गूँजी, डोलियाँ उठीं,नई बहुओं की पायलें खनकीं। सुख भी आए दुख भी, सबसे कंधे से कंधा मिलाकर एक दूसरे का साथ दिया। ऐसा नहीं था कि मनमुटाव नहीं होते थे,होते थे पर उनकी उम्र बड़ी ही कम होती थी। संयुक्त परिवार का ज़माना था। नौकरी के कारण, एक दो सदस्य दूसरे शहर जाते भी थे तो त्योहारों में घर अवश्य आते थे भाइयों का प्रेम तो समझ आता है, देवरानी- जिठानी भी सच्चे स्नेह से एक दूसरे से मिलती थीं। बच्चों को देखकर समझ ही नहीं आता कि किस बच्चे के माँ- बाप कौन हैं। प्यार था तो उतने ही अधिकार से डाँट भी थी, कोई यह नहीं सोचता था कि मेरे बच्चे को ऐसा क्यों कहा? बड़ा ही स्नेह भरा माहौल हुआ करता था। वह सब देखकर मुझे बड़ा ही आनंद आता था। धीरे-धीरे न जाने क्या हुआ, आपस की मधुरता में दीमक लगने लगी। रिश्तों की तुलना में अहम् बड़ा होने लगा। लोग मन ही मन दूर होते घर से भी दूर होने लगे। अब तो घर में सिर्फ बूढ़े माँ-बाप ही बचे। बेटे कभी कभार घर आते कभी तीन-चार वर्षों में आते। बेटियाँ अक्सर आती पर शाम को ही कोई न कोई बहाना बनाकर लौट जातीं, घर की माली हालत उनसे छिपी न थी। नई साड़ी पहन कर आती साड़ी के प्रिंट को जी भर के कोसतीं साड़ी लाने वाले की पसंद को सौ बातें कहतीं और माँ के लिए साड़ी छोड़ जाती। ऐसी ही न जाने गृहस्थी की कितनी चीज़ें अपने साथ लाकर कोई न कोई बहाने से मायके में छूटती रहतीं। बेटे माँ बाप से कहते चलिए हमारे साथ रहिए क्या समस्या है? पर वे दोनों कोई न कोई बहाना बनाकर कर टाल देते। कैसे कहते एक के घर जाकर रहेंगे तो दूसरे बेटों और बेटियों से खुलकर मिलना न हो पाएगा। समय रुकता नहीं मौत को कोई रोक सकता नहीं।
माँ एक रात सोईं फिर कभी उठी ही नहीं। पिता मन में जीवन संगिनी का दुख लेकर कभी इस बेटे कभी उस बेटे के यहाँ भटकते रहे और लंबी बीमारी के बाद वे भी चल बसे। जो बेटे वर्षों से यहाँ कार्य की व्यस्तता से नहीं आ पा रहे थे अचानक समय निकाल कर यहाँ इकट्ठे हो गए।आज उनको 'अपने'घर की जर्जर हालत समझ आई। शायद थोड़ा अफ़सोस भी हुआ हो कि माँ पिताजी कैसे रह रहे होंगे। बहनों को भी बुला लिया गया था,वसीयत का मामला था। किसके हिस्से में क्या आया यह तो नहीं पता पर इतना ज़रूर समझ गया कि बँटवारे से कोई विवाद उत्पन्न नहीं हुआ। बेटों ने घर से कुछ चीज़ें ली और अपनी अपनी कारें लेकर चले गए।
वैसे भी ले जाने के लिए 'स्टैंडर्ड' का कुछ बचा भी नहीं था। बेटियाँ काफी देर नम आँखें लिए उस खंडहर हो चुके घर में अपना बचपन, बचपन की भूली बिसरी यादें, माँ और बाबूजी को महसूस करने की नाकाम कोशिश करती रहीं और भारी मन से घर को छोड़ कर वापस चल पड़ीं पर उनके कदम जैसे आगे बढ़ने की इजाज़त ही नहीं दे रहे थे, वे रास्ते के अंतिम मोड़ तक बार बार अपने मायके की अंतिम निशानी को मुड़मुड़ कर देखती रहीं। घर भी जैसे अपने परिवारजनों की रास्ता ही देख रहा था। सबके विदा होते ही वह भी अपने आप को सम्हाल न सका और भरभरा कर गिर पड़ा।
कुछ लोग आज यहाँ पर आए थे घर का सौदा शायद इन्ही के साथ हुआ होगा।वे यहाँ एक मल्टीस्टोरी बनाने की बात कर रहे थे। फिर घर बनेंगे, बसेंगे, किलकारियाँ गूँजेंगी शहनाइयाँ भी बजेंगी। अच्छा है,पर किसी परिवार का अंत ऐसा तो कतई नहीं होना चाहिए।
हाँ याद आया... आप जानना चाहते होंगे न कि मुझे इस परिवार से इतना लगाव क्यों है? दर असल जब मैं नन्हा सा पौधा था ना तब इस घर के एक बच्चे ने बाहरी नुकसान से बचाने के लिए मेरे चारों तरफ बाड़ लगा दी थी और रोज़ पानी देकर मेरी
देखभाल भी की थी, जानना चाहोगे वह छोटा बच्चा कौन था? आज जो लोग आए थे न वे थे उनके दादाजी, तो उस रिश्ते से ये सब मेरे भी बच्चे हुए ना।
एक प्रश्न हमेशा मुझे परेशान करता है कि लोग रिश्तों को अहमियत क्यों नहीं देते। क्यों छोटे-छोटे मसलों को इतनी तवज्जो दे दी जाती है कि उनके सामने रिश्तों की अहमियत जैसे खत्म हो जाती है, अहसास मरते जाते हैं। काश रिश्तों की डोर को सम्हालने हुनर का सब समझ पाते। काश........