तोह्फ़ा
तोह्फ़ा
ज़िंदगी सच में एक पहेली ही है। कई बार हमसे बहुत कुछ छीन लेती है और कभी चुपके से बहुत कुछ अनमोल सा दे जाती है। आज सबेरे की ही बात है मैं चाय पी रही थी और मेरी काम वाली बाई झाड़ू लगा रही थी। सामने वाले घर में पड़ोस की कुछ महिलाएँ बैठ कर बातें कर रही थीं। तभी काम वाली बाइयों की चर्चा निकली और उन्होंने मेरी बाई का नाम लिया और उसके बारे में बोलने लगी उनको अंदाज़ नहीं था कि वह हमारे यहाँ ही काम कर रही है और सारी बातें उसके कानों में पहुँच रही हैं।
मुझे लगा कि अब वह भी बड़बड़ाना शुरू करेगी।आश्चर्य वह बड़े निस्पृह भाव से अपना काम करती रही कोई भी प्रतिक्रिया किए बिना। मैंने सोचा चलो अच्छा हुआ इसे ध्यान नहीं दिया नहीं तो दुखी होती। वह झाड़ू रखकर आई और बोली, "सुना दीदी ?मेरे बारे में ?"
मैंने झूठ कह दिया अरे मैंने तो ध्यान ही नहीं दिया। उसने सिलसिलेवार सारी बातें जैसी की तैसे सुना दीं। मैंने उससे कहा, जाने दो मत सोचो इतना। वह बोली, अरे दीदी मैं नहीं सोचती। चार लोग बैठेंगे तो बातें भी तो बनेंगी,और फिर मुझे तो काम करना है न कोई बोले तो बोलता रहे, आज बुरा बोल रहे हैं कल अच्छा भी बोलेंगे। किसी के बोलने का क्या अच्छा और क्या बुरा मानना। फिर जब मेरे ऊपर जब भी परेशानी पड़ी इन्ही लोगों ने एडबाँस देकर मेरी सहायता की थी तब कोई रिश्तेदार खड़ा नहीं हुआ हमाए दुआरे, हम नईं माने बुरा। जिंदगी है चलत रहत है। (ज़िंदगी है चलती रहती है) इनकी बातें सोचते रहेंगे तो दीदी हमारे पास टेंसन ही बचेगा.... क्यों कहा, कैसे ऐसा कह दिया ?
हमारा भगवान और हमारी किस्मत। हमसे जिंदगी में कुछ गलत न हो हम बस इतना सोचते हैं दीदी और वह फिक्क से दाँत निकालकर हँसी और सहज भाव से बिना किसी मलाल के चली गई। उसके जाने के बाद मैं किंकर्तव्यविमूढ सी बैठी रही और सोचती रही जिसे हम अनपढ़ गँवार समझते हैं उनका जीवन के प्रति नजरिया कितना सकारात्मक है और हम पढ़े लिखे कहलाते हैं और जीवन की छोटी छोटी बातों में उलझ कर रह जाते हैं मन की शांति भंग कर लेते हैं। सच में आज तो मेरी वह अनपढ़ बाई ही मेरी गुरू बन गई और जीवन का एक बड़ा पाठ पढ़ा गई। सच में इस बार ज़िंदगी ने अचानक मुझे जो तोह्फ़ा दिया... ... ज़िंदगी को बिना क्लिष्ट बनाए सहजता से जीने का..... उस तोह्फ़े को मैं ज़िंदगी भर सम्हाल कर रखूँगी। अपनी उस अनपढ़ गुरू को कभी भुला नहीं पाऊँगी।