Vineeta Pathak

Abstract

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Vineeta Pathak

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वो लम्हे.......

वो लम्हे.......

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समय कभी-कभी कितनी जल्दी निकल जाता है,कई विशेष मौके इसका अहसास दिला देते हैं। वर्ष में एक बार मैं अपने मायके अवश्य जाती हूँ। मायका भी अब कहें तो माँ और छोटे मामा मामी बस। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के कारण समय का अभाव ही रहता है तो ज्यादा दिन रुक नहीं पाती ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह बस। पर वही कुछ दिन मुझे वर्ष भर की ऊर्जा प्रदान कर जाते हैं। जैसे ही माँ को मेरा कार्यक्रम पता चलता उनके फोन आने शुरू हो जाते, कब पहुँचोगी? कैसे आओगी? आजकल यहाँ की सड़कें कुछ ठीक नहीं हैं आने के पहले मामाजी से पूरी जानकारी ले लेना तब ही बस में बैठना और गलती से अगर कह दिया कि चिन्ता मत करिए हम आ जाएँगे बस फिर लंबा भाषण....... तुम समझती नहीं हो ये तुम्हारी दिल्ली नहीं है। रीढ़ की हड्डी में कुछ हो गया तो मुश्किल में पड़ जाओगी। समझा करो, फिर तो सिर्फ़ हाँ कहने के कोई उपाय रह ही नहीं जाता। 

जैसे ही घर के दरवाजे पर पहुँचते बाहर वराँडे में तीनों माँ,मामाजी और मामीजी रास्ता देखते मिल जाते। घर में कदम रखते ही त्योहार सा माहौल बन जाता। घर में खाने के लिए जो भी रखा होता, जैसे-जैसे याद आता बाहर आता जाता। माँ की उम्र तब अड़सठ से मानो पचास की हो जाती। मामाजी भुनी हुई मूँगफली विशेष नमक के साथ पहले से लाकर रखते। उन मूँगफलियों में घुला स्नेह उनको और भी स्वादिष्ट बना देता। रात का एक बज जाता किसी का मन सोने जाने का नहीं करता। मामाजी भी घर जाना टालते रहते।वे माँ के घर से थोड़ी ही दूर रहते थे। किसी तरह हम सब खाना खा पीकर सोने जाते। दूसरी सुबह पाँच बजे से माँ की खटर-पटर शुरू हो जाती। आज क्या स्पेशल बनना है। क्या साथ ले जाओगी, कौन-कौन से अचार रख दें। इन सब व्यस्तताओं के बीच माँ मन ही मन रास्ता देखतीं कि कब सिर्फ़ हम दोनों रहें। मौका मिलते ही उनके दर्दों की पोटली खुल जाती। किस करीबी रिश्तेदार ने क्या कह दिया, किसने कैसा व्यवहार किया,अब वे अपने आप रिक्शा में नहीं चढ़ पाती सहारे की ज़रुरत पड़ती है और ये कहते कहते लाचारी की एक रेखा सी चेहरे पर खिंच जाती। मैं उन्हें समझाती कोई बात नहीं आपके साथ के लोग तो बिना सहारे चल भी नहीं पाते आप उनसे तो बेहतर हो, फिर कहतीं आजकल कान में सुनाई भी कम पड़ता है तो मैं कहती आँखें अच्छी होना चाहिए, बातें तो इशारे से भी समझ सकते हैं और ज्यादा समस्या है तो कान में सुनने की मशीन लगाए रहा करिए। मेरी इन बातों से उनको बहुत तसल्ली मिलती। एक ही बात को वे कई बार सुनातीं भूल जाती कि यही बात वे पहले कई बार सुना चुकी हैं और मैं बिना उन्हें जताए उसी उत्साह से सुनती इससे ही उनको संतुष्टि मिल जाती और भी न जाने क्या क्या बताती रहतीं। मैं याद करती वे पिताजी की मृत्यु के बाद अपने दिल की बातें दो लोगों से ही साझा करती थीं मुझसे और सबसे छोटे मामाजी से। 

    मुझे याद आते हैं वे दिन .......कुछ वर्ष पहले की ही तो बात है जब पिताजी की वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के पद में नियुक्ति हुई थी। वहाँ आफीसर्स क्लब में माँ का रूप देखते ही बनता था गेंहुआ रंग,साढ़े पाँच फुट ऊँचाई,आत्मविश्वास से भरा व्यक्तित्व, सुंदरता की सानी नहीं। लोगों को स्वीकार करना मुश्किल होता कि वे काॅलेज जाने वाले बच्चों की माँ हैं। मजाल है कि किसी स्पर्धा में पीछे रह जाएँ। साड़ी इतनी व्यवस्थित ढंग से पहनतीं कि मजाल है पल्लू ज़रा भी इधर से उधर सरक जाए। । कहीं बोलने खड़ी होती तो हम लोग आश्चर्यचकित हो जाते। जाने कहाँ-कहाँ की जानकारी रहती उनके पास पढ़ने की बहुत शौकीन थीं। हम लोगों को अपनी माँ पर बड़ा गुमान हुआ करता था। कहने को तो सामान्य सी गृहस्वामिनी थीं पर विदुषी कम नहीं थीं। पिताजी की नौकरी में कभी उतार चढ़ाव आते तो दृढ़ता से खड़े होकर परिवार को सम्हालतीं । पिताजी को उनसे बड़ा संबल मिलता। दसवीं कक्षा तक वे ही हमारी ट्यूटर थीं। आर्थिक समस्या होने पर साड़ियों की तह में से रोजमर्रा के खर्चों से बचाए हुए पैसे निकल आते। कुल मिलाकर कहें सर्वगुण संपन्न।हर आज जब उन्हें इस जर्जर हालत में आत्मविश्वास खोजते हुए देखती हूँ तो मन पीड़ा से भर उठता है। कई बार कहा आप हमारे साथ रहो चलकर तो कहती हैं कैसे छोड़ दूँ तुम्हारे पिता का घर? क्या जवाब दूँ मैं भी? कैसे कहूँ उनसे कि मैं दो पाट में बँटती जा रही हूँ। न तुम्हें छोड़ कर रह सकती हूँ न ही तुम्हारे साथ रह सकती हूँ। 

जब वहाँ से विदा लेती हूँ तो बड़ी मुश्किल से आँखों के आँसुओं को कुछ पलों के लिए रोक कर एक झूठी मुस्कान ओठों पर लाकर हाथ हिलाकर रुख़सत होती हूँ माँ के ओझल होते ही आँखों के आँसुओं को रोक नहीं पाती। गाड़ी अबाध गति से आगे बढ़ती है और मेरा मन रह जाता है अटक कर कहीं माँ के आँचल में।बस रह जाती हैं कुछ यादें कुछ बेशकीमती लम्हे ज़हन में कहीं हमेशा के लिए। सच में समय कितनी जल्दी निकल जाता है........


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