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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Drama

4  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Drama

मेरे जीवन के बाद

मेरे जीवन के बाद

6 mins
362

एक क्षण में अनंत ऊँचाई के पर्वत शिखर पर पहुँच कर, मैं, हवा के परमाणु जितना हल्का अनुभव कर रहा था। मेरा शरीर मुझे सिर्फ आभासित ही लग रहा था, जिसका कोई जेंडर न था। मृत्यु लोक में जिसे आत्मा कहते हैं 'मैं', शायद वह ही बच रह गया था। जिस ओर से मैं शिखर पर पहुँचा था पिछला संपूर्ण वह परिदृश्य, वहाँ से ओझल था।

सामने जो दृष्टिगोचर था वह, अनंत तक स्वच्छ नीर का महासागर सा दिखाई पड़ रहा था। स्वच्छ जल के मंथर प्रवाह का वह ऐसा समतल प्रदेश, यूँ दृष्टिगोचर था कि एक स्वर्णिम रंग का आधार में नीलम तथा गुलाबी नगीने जड़ें हों। यूँ प्रतीत हो रहे थे, ज्यूँ विशालकाय स्वच्छ स्वर्णिम चादर हो जिसमें नीलम और नगीने की कारीगिरी हो। वातावरण में वहाँ गुलाबों की सुगंध सुवासित थी। संक्षिप्त में इसे एक बेहद मन मोहक लोक कहना उचित होगा। इतना सब समझने में मुझे क्षणांश ही लगा था। 

मैं अगले क्षणांश में इस स्वर्णिम जल सतह के रंगों से मेल करते समतल धरातल पर खड़ा था। मेरे सम्मुख अति भव्य सिंहासन पर, अत्यंत रूप-लावण्य की अवतार गरिमामय 1 नारी विराजित थी। जिनका दिव्य आभामंडल, मुझे सम्मोहित कर रहा था। जिन्हें देख मुझे अपनी माँ की अनुभूति हो जाना, मेरे अचरज का विषय था।

मुझमें ये विचार चल ही रहे थे, तभी गुलाब की पखुंड़ी मानिंद दिखते उनके होंठ हिले थे और उनके श्रीमुख से एक मिश्री घुला अत्यंत दिव्य एवं मधुर स्वर गुँजायमान हुआ था। 

हे आत्मन, तुम्हारी अनंत यात्रा के पिछले पड़ाव को छोड़, अगले जीवन गंतव्य की ओर प्रशस्त होने के पूर्व, कुछ समय के लिए तुम्हारा यहाँ, मुझ से यह साक्षात्कार है। 

इस पर मुझमें उभरी, मेरी जिज्ञासा के वशीभूत मैं पूछ बैठा था - हे देवी, आप मुझे मेरी माँ सदृश लगती हैं, आप मेरी माँ हैं ?

उन्होंने उत्तर दिया:- हे आत्मन, अवश्हर जीव अनंत समय से यात्रा में है, इस यात्रा में कभी न कभी हर जीव, हर दूसरे जीव से माँ/पिता और संतान रूप हुआ है। लेकिन हर जन्म में वह पिछले रिश्ते भूल जाता है, तथा जो कभी अपने थे, उन्हें भी पराया मान व्यवहार करता है। अनंत काल पीछे, किसी भव में मैं तुम्हारी माँ थी। मगर अब, जिसे आप पिछले जीवन में भगवान कहते रहे हैं, मैं वह हूँ।

आगे, उनके और मेरे बीच का वार्तालाप निम्नानुसार है -

मैं:- मगर, भगवान तो पुरुष होता है ?

भगवान:-  भगवान ना पुरुष, ना ही नारी है। हे आत्मन, भगवान भी, आप सदृश ही, एक आत्मा ही है, जो आपसे निश्छलता, निर्मलता और निष्कलंकता के दृष्टिकोण से भिन्न है। यह नितांत शुध्द है जबकि आप की 'शुध्द आत्मा' पर आपके मलिन कर्मों के संमिश्रण का मलिन आवरण है। 

मैं:- किंतु आप तो नारी रूप में मेरे सम्मुख विराजित हैं ?

भगवान:- इसके लिए हे आत्मन, आपको मेरे स्वरूप को स्पष्ट समझना होगा।

मैं:- जी, कृपया समझाइये।

भगवान:- मनुष्य जीवन में, अपने किये कर्मों से जो आत्मायें, यहाँ निश्छल, निर्मल और निष्कलंक उपलब्धि के साथ आती हैं, वे मुझमें समाविष्ट हो जाती हैं। सारी ऐसी शुद्ध आत्माओं का एक निराकार पिंड, इस तरह भगवान एक है। भगवान होते ही आत्मा को जन्म मरण के क्रम से छुटकारा मिलता है।  

और

यहाँ आने वाले प्रत्येक आत्मन के लिए ऐसी ही राजसभा अनेकों होती हैं। जिसमें मैं भगवान अनंताकार रूप में सब आत्माओं से अलग अलग साक्षात्कार करता हूँ। पिछले जन्म में नर रहे जीव, के सम्मुख मैं माँ रूप में और नारी रहे जीव, के समक्ष मैं पिता रूप में होता हूँ। 

मैं:- हे भगवान, इस साक्षात्कार का प्रयोजन क्या है, यह कितने समय का है ?

भगवान:- हे आत्मन, यदि आप निश्छल, निर्मल और निष्कलंक उपलब्धि के साथ आये होते तो आप यहाँ आकर मेरे स्वरूप में मिल जाते। यह अनंतकालीन हो जाता

मगर,

आपके प्रकरण में ऐसा नहीं होने से आपको वापिस उसी लोक में जाना होगा। ऐसा आपके साथ अनंत बार हो चुका है। इस बार भी यही होगा। लेकिन इस बीच आपको, सद्कर्मों की प्रेरणा के उद्देश्य से थोड़ा समय मुझसे साक्षात्कार का मिला है ?

मैं:- हे भगवान, मगर मैं अनेक बातों का जिज्ञासु हूँ, क्या आप मेरी जिज्ञासाओं का निवारण करेंगी ?

भगवान:-हे आत्मन, आपको मैं यह अवगत कराती हूँ कि यूँ तो मैं, संपूर्ण ब्रह्माण्ड और सृष्टि की ज्ञाता, दृष्टा हूँ इसलिए हर क्षण, हर जीव के कर्म और मानस की और सृष्टि के समस्त पदार्थ के भूत, वर्तमान एवं भविष्य  की मैं जानकार हूँ। तुम्हारे बताये बिना भी तुम्हारी सारी जिज्ञासायें भी मुझे ज्ञात हैं। उसका उत्तर भी, मैं दे सकती हूँ।

किंतु

इस साक्षात्कार का समय सीमित करने के लिए आपकी जिज्ञासाओं को मैं नियंत्रित कर रही हूँ। कुछ ही बाकि छोड़ रही हूँ, जिसका उत्तर भी दूँगी। शेष के लिए तुम्हें विवेक दूँगी जिसके प्रयोग से आगे की यात्रा में तुम्हें स्वयं उत्तर खोजना होगा।  अब मैंने सिर्फ पाँच प्रश्न तुममें छोड़े हैं, पूछ लो एक एक करके मुझसे।

मैं:- आपने सृष्टि की संरचना की है, इसमें अच्छाई बनाई यह तो ठीक है, बुराई क्यूँ बनाई यह मेरी समझ से परे है ?

भगवान:- मैंने सृष्टि बनाई है, उसमें पदार्थ मेरी रचना है। औजीव वह ऊर्जा है जिसकी उपत्ति या क्षरण नहीं है। उसकी पर्याय एवं उसमें परिवर्तन सकालिक एवं निरंतर है। उसकी भिन्न भिन्न, जन्म योनि भी, एक पर्याय परिवर्तन ही है। मैंने जीव में विवेक दिया है, अच्छाई विवेक के उपयोग से निर्मित है और बुराई, विवेक के प्रयोग न करने से उत्पन्न होती है। 

मनुष्य ने यूँ तो कृत्रिम रूप से अनेक अच्छी वस्तुओं/साधनों का आविष्कार किया है, लेकिन उसमें बुराई प्रवृत्ति के कारण, अच्छी बातों का हितकारक प्रयोग नहीं करते हुए, बुरा प्रयोग किया है। जिसके कारण वहाँ जीवन महा कष्टकारक होता जा रहा है। अर्थात विवेक का उपयोग से बुरी लालसाओं को नियंत्रित नहीं किया है। स्वयं बुराई में लिप्त होकर अन्य को इसमें उलझाया है। 

मैं:- विवेक, आपने सिर्फ मनुष्य को दिया है, अन्य जीवों को क्यों नहीं ?

भगवान:- 'विवेक' सभी में है, जिसका विन्यास पिछले जन्मों में किये कर्मों से यहाँ निर्धारित होता है। मनुष्य में विवेक 100% सेटिंग में होता है, अन्य जीवों में सेटिंग कम होती है। मनुष्य जीवन, उन्हें तय किया जाता है, जिनका पिछली यात्रा तक अच्छाई का खाता बुराई से अधिक होता है। 

मैं:- आपने, धर्म एक क्यूँ नहीं बनाया है ? गिरिजाघर,मस्जिद, गुरद्वारे एवं मंदिर आदि से लोग प्रेरणा लेते हैं और अपने धर्मों को लेकर बाहर सब मार काट मचाते हैं। 

भगवान:- धर्म, एक वही है, जो सभी जीवों को परस्पर कल्याण की प्रेरणा देता है। गिरिजाघर, मस्जिद, गुरद्वारे, मंदिर एवं धर्मग्रंथ आदि भी उसे ही कहना ठीक है, जिनसे सभी के परस्पर हितों की प्रेरणा मिलती है। 

शेष सब अपने अपने हितभ्रम का व्यापार है। हिंसा प्रवृत्ति जिसकी पराकाष्ठा है। प्राप्त विवेक का प्रयोग न करने से उस (जीव) का अनंत बार जन्म-मरण होना दुखों का कारण है। 

मैं:- हे भगवान, एक आपसे शिकायत और प्रश्न, अगर अपने परिजन/मित्र जब हमें आप प्रदान करते हो, तो उन्हें हमसे छीन क्यों लेते हो ?

भगवान:- परिजन का मिलना, बिछड़ना सृष्टि स्वरूप है। इन परिजन के विछोह को , प्रेरणा रूप में स्वयं में, इन्हें निहित करना और उनकी प्रेरणा से परोपकार करना, विछोह वेदना का उपचार है। वहीं नए परिजन का जुड़ना, जीवन को, नई आशा प्रदान करना है। 

मैं:- मेरा अंतिम प्रश्न, मुझे अगला जन्म क्या मिलने वाला है ? एवं उसमें इस साक्षात्कार का स्मरण रहेगा या नहीं। 

भगवान:- इस साक्षात्कार का स्मरण तुम्हें नहीं रहेगा। लेकिन यह साक्षात्कार अक्षरशः एक कल्पना के रूप में एक लेखक के मन में जाएगा जो जग प्रेरणा के लिए इसे लिपिबध्द करेगा। 

तुम्हारे अगले भव के संदर्भ में सूचित है कि पूर्व कर्मों के लेखा जोखा से तुम्हें अगला जन्म भी मनुष्य का मिलने वाला है। तुम्हारे रहे कर्मों की शक्ति से यह विकल्प तुम्हें उपलब्ध है कि तुम पुरुष होना या नारी होना चाहोगे, बताओ ? 

मैं:- जी भगवान, जीवों में श्रेष्ठ मनुष्य है, यह मुझे ज्ञात है तथा मनुष्य में श्रेष्ठ नारी है, अतः मुझे नारी रूप अगला जीवन मिले तो मुझे प्रसन्नता होगी। 

भगवान:तुमने सही कहा नारी सृष्टि की श्रेष्ठतम कृति है, किंतु उसकी दशा दयनीय है। इसे सुधारने के लिए नारी चेतना और सम्मान रक्षा के कार्य के लिए और जगत को उदाहरण प्रस्तुत करने की दृष्टि से, मैं पुनः तुम्हें पुरुष रूप मानव जीवन ही नीयत करती हूँ। 

इस तरह साक्षत्कार समाप्त होता है और तब नया जीवन यात्रा पर क्षणांश में ही मेरा जीव पुनः एक नारी गर्भ में स्थापित हो जाता है।


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