मेहमान नवाज़ी (वृद्धा)
मेहमान नवाज़ी (वृद्धा)


आज का दिन सुषमा के लिए किसी त्यौहार से कम न था। क्योंकी उसे आज अपनी रसोई कला दिखाने का भरपूर अवसर मिला था। वो भी संदिप के बाॅस की रीच फैमेली के समाने। संदिप के बाॅस सुषमा के हाथों का बना खाना खाने उसके घर आने वाले थे। संदिप ने इस बार सुषमा को फ्रि हेण्ड दे दिया था। उसे जो बनाना था वह बना सकती थी। वैसे सुषमा के हाथों से बने व्यंजनों की प्रशंसा उसके नाते-रिश्तेदारों के साथ-साथ पास-पड़ोसी भी किया करते थे। ससुर जी तो यह कहते-कहते स्वर्ग सिधार गये की 'मेरी बहू तो अन्नपूर्णा है।'
संदिप दौड़-दौड़कर किराना, सब्जी आदि बाजार से खरीद कर ला रहा था। इतनी बड़ी फ्रेक्ट्री के मालिक अपने एक छोटे से अकाउंटेट के यहां भोजन करने आने वाले थे। वह भी अपने परिवार के साथ। संदिप के साथ-साथ सुषमा के लिए भी यह बहुत ही गर्व की बात थी। अतएव वह कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी भोजन बनाने में। रबड़ी और रसमलाई बन चुकी थी। गैस चुल्हे पर काजू पनीर की सब्जी पक रही थी। दाल बाफले भी लगभग रेडी ही थे।
इसी बीच सुषमा कांचीवरम साड़ी पहनकर तैयार होने चली गयी। अलमारी से एक पुरानी साड़ी निकालकर उसने अपनी सास को भी दे दी और उनसे कहा की वे भी तैयार हो जाये। खाना बनने में अभी वक्त है, इसलिए उन्हें भी आज थोड़े विलंब से भोजन मिलेगा।
चमचमाती कार से उतरी जोशी फैमली की आवभगत के लिए लगभग मोहल्ले के प्रत्येक दरवाजे खुले थे। जहां से रहवासी समर्थ जोशी, उनकी पत्नि दिव्या और बेटी वैभवी का स्वागत कर रहे थे।
सुट बूट में अपने परिवार के साथ संदिप द्वार पर आगवानी हेतु तैयार खड़े थे। सुषमा ने हाथ जोड़कर जोशी दम्पति को नमस्कार किया। हाय-हॅलो के बाद सभी डायनिंग हाॅल में अनौपचारिक चर्चा में व्यस्त हो गये। संदिप के दोनों किशोरवय सुपुत्र घर आये मेहमानों की आवभगत बड़ी ही आत्मीयता से कर रहे थे।
चाय पर चर्चा अधुरी छोड़कर सभी डायनिंग टेबल पर भोजन ग्रहण हेतु बैठ गये। समर्थ जोशी हाथों में पानी से भरा गिलास लेकर बाहर आंगन की बगियां में हाध धोने जा पहुंचे। यहां-वहां नज़र दौड़ाई। शुध्द प्राकृतिक आवास की उचित व्यवस्था देखकर प्रसन्न हुये बिना न रह सके।
कुछ कदम पर एक रोशन दान खिड़की के अंदर युं ही झांकने का मन हुआ। समर्थ जोशी ने अंदर का दृश्य देखा तो पैर जड़ हो गये। आत्मा सिहर उठी और बरबस ही आंखों से नीर बहने लगा। अंदर की फर्श पर चटाई बिछी थी। जिस पर बैठी संदिप की वृध्द मां भोजन कर रही थी। उनके सम्मुख बड़ी-सी स्टील की थाली में रोटियां रखी थी। जो देखने भर से पिछले दिन की लग रही थी। थाली में लाल मिर्च और नमक का मिश्रण था। जिसके साथ रोटी का कोर लगा-लगा कर वह बूढ़ी मां रोटी खा रही थी। जब उनकी नज़र समर्थ जोशी पर पड़ी तब उनके ऐनक से झांकती आंखों में चमक आ गयी। वृद्ध माताजी अपनी पहनी साड़ी ऐसे दिखा रही थी जैसे कोई छोटा बच्चा नये कपड़े पहनकर दूसरों को दिखाकर इतराता हो। मांजी गिने-चुने दांत दिखाकर हंसती जाती और रोटी भी खाते जाती। वृद्ध मां जी के कमरे में दाखिल होने से समर्थ स्वयं को रोक न सके। कमरे में घुसकर उन्होंने आसपास देखा। वहां एक पानी का मटका एक कंबल और बिछावन थी। जिस पर मां जी बैठकर भोजन कर रही थी। दीवार में धंसी पत्थर की फर्सीयों से बनी एक छोटी अलमारी थी। जिसमे मां जी के उपयोगार्थ कुछ बर्तन रखे थे। वहीं एक स्टील का वृत्तनुमा डिब्बा रखा था। दो छोटी-छोटी रंग-बिरंगी प्लास्टिक की डिब्बियां रखी थी। समर्थ जोशी ने देखना चाहा। उन्होंने पास जाकर उनमें से एक डिब्बी हाथों में लेकर खोली। उसके अंदर नमक था। दुसरी डब्बी में लाल मिर्च पावडर था। स्टील का डब्बा खोलकर देखा था तो उसमें कुछ रोटीयां रखी थी। ये रोटीयां पिछले दिनों की थी।
जब बहुत देर तक समर्थ जोशी डायनिंग टेबल पर नहीं आये तब उन्हें ढुंढते हुये संदिप अपनी मां के कमरे बाहर आ खड़ा हुआ। संदिप के लिए ये किसी सदमे से कम न था। वह टक-टकी टगाये दुर खड़ा बस देखता रहा। पीछे से सुषमा भी आ पहूंची। जो दृश्य उसने देखा वह देखकर सुषमा की अंतरात्मा कांप गयी। दिव्या और वैभवी भी वहां आ पहुंचे थे। सभी मौन थे। किसी के पास बोलने को कुछ भी नहीं था। बुढ़ी मां समर्थ जोशी से बतियाने की कोशिश कर रही थी। वो अपने हाथ में रोटी का टुकड़ा पकड़े हुये थी। जिसे बीच-बीच में खाती भी जा रही थी। इतने में मांजी ने अपनी थाली में रखी रोटी का एक टुकड़ा उठाकर समर्थ जोशी के मुंह की ओर बढ़ा दिया। समर्थ जोशी भावोपेश में बंधे चुपचाप वह कोर खा गये। समर्थ जोशी की आंखे भीग चूकी थी। यह देखकर मांजी ने अपने आंचल से उनका चेहरा साफ किया। मां जी की स्वयं आंखें भीगो चुकी थी। इस अद्भुत दृश्य को देखकर उपस्थित सभी की आंखें नम हो गयी।
"माफ करना संदिप! मैं बिना बोले तुम्हारी मां के कमरे में आ गया।" समर्थ जोशी ने द्वार पर खड़े मेजबान संदिप से कहा।
"अरे नहीं सर! इसमें माफी मांगने की कोई बात नहीं है।" संदिप आगे बढ़कर बोला।
"मैं मां जी को खाना परोसने ही वाली थी, मगर खाना बनने में थोड़ी देर हो गयी।" सुषमा बीच में बोल पड़ी।
"और जब मां जी को अधिक भूख लगी तब उनसे भूख बर्दाश्त नहीं हुयी होगी, सो उन्होंने बांसी रोटीयां खाना ही उचित समझा।" समर्थ जोशी ने कहा।
सुषमा का सिर शर्म से झुक गया। संदिप भी पानी-पानी हो गया था। जिस सादगी, सद्विचार और सद्व्यवहार का परिचय सुषमा और संदिप जोशी परिवार को देना चाहते थे, वो सब धुमिल हो चुका था। मां जी के प्रकरण ने संदिप के प्रमोशन पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया था।
"आईये मां जी! आप भी हमारे साथ भोजन कर लें।" सुषमा ने अपनी सास का हाथ पकड़ कर कहा। वह स्थिति को संभालने का प्रयास कर रही थी।
"नहीं सुषमा! मां जी हमारे साथ भोजन नहीं करेगी।" समर्थ जोशी के स्वर कुछ कठोर थे।
"मगर सर....!" संदिप ने पुछा।
"मां जी हमारे साथ भोजन नहीं करेगी, हम सब मां जी के साथ भोजन करेंगे।" समर्थ जोशी ने मुस्कुराते हुये कहा।
सुषमा और संदिप ने मां जी के पैर छुकर माफी मांगी। दोनों अपने साथ उन्हें डायनिंग टेबल पर ले आये। समर्थ जोशी और दिव्या यह देखकर प्रसन्न थे। वैभवी और संदिप के दोनों बच्चें अपनी दादी के पास बैठकर खाना खाने लगे। उस दिन से मां जी के कक्ष से स्टील वाला रोटी का टीफीन और वो नमक-मिर्च वाली प्लास्टिक की डिब्बियां हटा दी गयी। मां जी को पुरी स्वतंत्रता दे दी गयी कि वे जब चाहे रसोईघर में जाकर कुछ भी खा सकती थी। उनके कक्ष में भी खाने-पीने की पर्याप्त चीजें रख दी गयी। ताकी मां जी भोजन बनने तक भूखा न रहना पड़े।