jitendra shivhare

Drama

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jitendra shivhare

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ट्यूशन फीस

ट्यूशन फीस

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*आदित्य* को सफल आदमी बनता हुआ देखकर उसके मां-बाबुजी की आंखें भर आयी। वह अब एक एमबीबीएस डाॅक्टर बन चूका था। उसकी सफलता के चर्चे बड़ी दूर-दूर तक फैले। अत्यंत ही निर्धनता में पले-बढ़े आदित्य के पास स्वयं की पुस्तकें खरीदने के लिए भी रूपये नहीं होते थे। मेहनत-मजदूरी कर अपना और अपने तीन-तीन बच्चों का पेट पाल रहे आदित्य के मां-बाबुजी नहीं चाहते थे की आदित्य कक्षा आठ के बाद पढ़ाई करे। शहर की मंहगाई में पांच-पांच सदस्यों का गुजर-बसर बहुत मुश्किल से हो रहा था। सरकारी विद्यालय में नौवीं तक आते-आते आदित्य की हिम्मत भी जवाब दे गयी। उसके पास न स्कूल बेग होता और न हीं काॅपी-किताबें। दोस्तों से पेन-पेन्सिल मांग-मांग कर वह थक चूका था। उसने निश्चय कर लिया था कि अब वह आगे पढ़ाई नहीं करेगा। बल्की मेहनत-मजदूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करने में मां-बाबुजी की मदद करेगा।

"क्या बात है आदि ! मैंने सुना है तुम स्कूल छोड़ना

चाहते हो।" आदि के गणित शिक्षक सदाकांत मिश्रा ने स्कूल लंच लाइम में आदित्य से पुछा।

"हां सर ! आपने सही सुना है और आप इसका कारण भी जानते है।" आदित्य ने कहा।

अर्थिक गरीबी ने आदित्य के अंदर रोष उत्पन्न कर दिया था। जो क्रोध की शक्ल में उसकी सुरत पर साफ देखा जा सकता था।

"तुम्हें क्या लगता है, पढ़ाई-लिखाई के लिए काॅपी-पेन और किताबों की अनिवार्यता है ?" सदाकांत मिश्रा ने पुछा।

"हां सर ! बिना किताबों और शिक्षण सामग्री के अभाव में कोई कैसे पढ़ सकता है ? मेरे सभी दोस्तों के पास सबकुछ है और मेरे पास कुछ भी नहीं। लगता है पढ़ना मेरे भाग्य में नहीं है।" आदित्य ने निराशा व्यक्त कि।

"तुमने सही कहा आदी ! पढ़ना-लिखना हर किसी के भाग्य में नहीं होता। और तुमने तो अभी नौवीं कक्षा में ही घुटने टेक दिये, आगे तो ऐसे बहुत से क्षण आयेंगे जहां तुम्हारी निर्धनता बहुत बड़ी बाधक सिद्ध होगी।" गुरूजी भी तैश में आकर बोल गये।

हमेशा शांत रहने वाले सदाकांत मिश्रा के मुख से ऐसी विषैली भाषा शैली सुनकर आदित्य के तन-बदन में सिरहन उत्पन्न हो गयी। उसने विचार किया की मात्र किताब और काॅपी के अभाव में वह पढ़ाई नहीं छोड़ सकता। लेकिन पढ़ाई के लिए शिक्षण सामग्री भी तो आवश्यक है। बहुत सोचने के बाद आदित्य ने तय किया की वह हर हाल में अपनी पढ़ाई जारी रखेगा। अपने गुरु के विषैले शब्द बाण उसे अंदर तक भेद चूके थे। जिसके असहनीय दर्द की कराहना से वह रात भर सो नहीं सका।

नौवीं कक्षा का गणित विषय कठिन था। जिसके लिए स्कूल के बहुत से बच्चें सदाकांत मिश्रा के घर ट्यूशन लेने जाते थे। आदित्य भी बड़ी ही हिम्मत कर उनके घर ट्यूशन लेने जा पहूंचा।

"क्या तुम ट्यूशन फीस दे सकोगे ? तीन सौ रूपये महिना। तुम्हारे पास तो काॅपी-पेन के भी पैसे नहीं होते। फिर मेरी ट्यूशन फीस कहां से भरोगे ?" सदाकांत मिश्रा ने आदित्य को व्यंगात्मक ताना कस कर कहा।

"भर दूंगा सर। मैं आपका पाई-पाई का हिसाब करूंगा। इस समय मुझे ट्यूशन की बहुत जरूरत है। आज नहीं तो कल मैं आपकी फीस के पुरे रूपये चूका दुंगा।" आदित्य ने कहा।

आदित्य की आंखों में गजब का आत्मविश्वास था। जिसे देखकर सदाकांत मिश्रा उसे उधार में कोचिंग पढ़ाने के लिए राजी हो गये। इतना ही नहीं, उन्होंने आदित्य को अपने यहां से कुछ पुरानी किताबे दी। जिनकी सहायता से वह घर पर भी स्व अध्ययन कर सकता था। उन्होंने आदित्य को वे काॅपीया उपलब्ध करायी जिसमें बहुत से पेज खाली बच जाया करते थे। आदित्य ने उन कापियों के खाली पेजों से कुछ काॅपीयां बनाई और उन्हें सूई धागे से सील लिया। अब वह इन्हीं कापियों पर लिखता और सदाकांत मिश्रा से मार्गदर्शन लेता। आदित्य की स्कूल नियमितता से हर कोई प्रभावित था। स्वयं प्रिन्सिपल सर उसका स्कूल उत्सवों में कई बार सम्मान कर चूके थे। सदाकांत मिश्रा के यहां ट्यूशन क्लास जाने में वह जरा भी कोताही नहीं बरतता। तेज धुप हो और या मुसलाधार बारिश अथवा हाड़ कपकपा देने वाली सर्दी। कोई भी मौसम उसका रास्ता कभी रोक नहीं सका।

देर रात फुटपाथ के विद्युत पोल पर लगे बल्ब के प्रकाश में पढ़ाई करते हुये आदित्य को पुलिस ने डरा-धमका कर कई बार घर भगाया। किन्तु आदित्य कहाँ मानने वाला था। वह तो प्रति रात्री में वहां पढ़ाई करने आ जाता। थानेदार महेन्द्र चौधरी आदित्य के क्रियाकलाप बहुत दिनों से देख रहे थे। एक रात वे वहीं फुटपाथ पर आ खड़े हुये जहां बैठकर आदित्य पढ़ाई कर रहा था।

"क्यों बच्चें ! तुझे कितनी बार मना किया है कि देर रात यहाँ न बैठा कर। यह अपराधिक क्षेत्र है। कहीं तुझे कुछ हो गया तो।" थानेदार महेन्द्र चौधरी बोले।

"ठीक है सर मैं जा रहा हूं।" आदित्य बोला।

"तु हर रोज़ यही बोलकर जाता है और फिर दौबारा यही पढ़ने को आ जाता है। अपने घर में क्यों नहीं करता पढ़ाई।" थानेदार गुस्से में बोले।

"सर ! मेरे घर की बिजली, बिजली बिल न भर सकने के कारण विद्युत विभाग वालों ने काट दी है। इसलिए यहां आकर पढ़ाई करता हूं।" आदित्य बोला।

"अरे ! तो तु क्या यहां फुटपाथ की बिजली भी कटवायेगा !" थानेदार ने हंसते हुये कहा।

पुलिस के अन्य जवान भी थानेदार साहब की इस बात पर हंस पढ़े।

"पुलिस अंकल ! यहां की बिजली मैं चाहूं तो भी कट नहीं सकती। मुझे पढ़ाई करने के लिए रोशनी की जरूरत है और इसलिए मैं यहा आकर पढ़ता हूं। आप सच कह रहे है। आपके जाते ही मैं यहां दौबारा पढ़ने आऊंगा। क्योंकि हमारे देश के बहुत बढ़े और प्रसिद्ध लोगों ने विद्युत पोल के नीचे बैठकर पढ़ाई की है। मैं भी करूंगा। मैं कोई गल़त काम नहीं कर रहा हूं इसलिए मैं कल भी यही पढ़ने आऊंगा।" कहते हुते आदित्य घर की ओर चल दिया। थानेदार और पुलिस के जवान उस किशोर के आत्मविश्वास के आगे कुछ पलों के लिए मौन हो गये थे।

अपने गुरूजी से मिलने के लिए आदित्य उत्साहित था। वह उनके पुराने घर गया जहां से पता चला की सदाकांत मिश्रा अब यहां नहीं रहते। रिटायरमेन्ट के दिनों में वे अपने पुश्तैनी गांव में थे। आदित्य ने उनका पता ढुंढ निकाला और सदाकांत मिश्रा के गांव की ओर अपनी कार दौड़ा दी। वह जान चूका था कि शिक्षक की उलाहना में भी शिष्यों के लिए वरदान होती है। यदि उस दिन सदाकांत मिश्रा, आदित्य के जम़ीर को झंझोड़ते नहीं तो आज आदित्य इस शिखर पर कभी नहीं पहूंचता। आदित्य ने अपने गुरू की बात मन से लगाई और खूब मेहनत से और मन लगाकर पढ़ाई की। फुटपाथ पर अर्द्ध रात्रि तक पढ़ाई करने वाले आदित्य की लगन को देखकर थानेदार महेन्द्र चौधरी प्रभावित हुये। उन्होंने आदित्य की यथासंभव मदद की। थानेदार महेन्द्र चौधरी से प्रोत्साहन पाकर आदित्य उत्साहित होकर और भी अधिक परिश्रम से अध्ययन करने लगा। उसकी मेहनत रंग लाई और वह कक्षा दर कक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होता गया। इन्हीं सफलताओं के बीच वह मेडीकल छात्रवृत्ति प्राप्त करने में सफल रहा। और मेडीकल एन्ट्रेस एक्जाम उत्तीर्ण कर एमबीबीएस की पढ़ाई पुरी कर डाॅक्टर बना।

अपने खेत में निंदाई-बुआई का कार्य कर रहे सदाकांत मिश्रा सम्मुख खड़े आदित्य को पहचान नहीं सके। चश्में की धूल साफ की तब जाकर उन्हें वह चेहरा कुछ-कुछ जाना पहचाना सा लगा।

"कौन हो बेटा तुम !" सदाकांत मिश्रा ने डाॅक्टर के सफेद कपड़े पहने आदित्य से पुछा।

"सर ! मैं आदित्य। आपका आदि। याद कीजिये। मैंने आपसे कहा था न की एक दिन मैं आपकी ट्यूशन फीस के रुपये जरूर चूका दूंगा।" आदित्य ने अपनी जेब से लिफाफा निकालकर कहा।

"अरे ! आदि ! तू ! तू तो डाॅक्टर बन गया। बधाई हो।" सदाकांत मिश्रा प्रसन्न होकर बोले।

"हां सर ! ये सब आपके आशीर्वाद और सहयोग से ही संभव हो सका है। यदि आप उस दिन मुझे कड़वे वचन न कहते तो मैं आज यहाँ नहीं होता। आपने न केवल मुझे प्रेरित किया बल्कि कठीन समय में मेरी सहायता भी की।" आदित्य ने सदाकांत मिश्रा के पैर छूकर कहा।

"मुझे तुम पर गर्व है आदी। तुमने बड़ी मेहनत की। ये तुम्हारे सतत लगन और कढ़ी मेहनत का ही परिणाम है।" सदाकांत मिश्रा ने कहा।

उन्होंने लिफाफा खोलकर देखा जिसमें छः महिने की ट्यूशन फीस के पुरे एक हजार आठ सौ रूपये थे। सदाकांत मिश्रा के जीवन की वास्तविक गुरूदक्षिणा आदित्य ने ही उन्हें दी थी। जिसे पाकर गुरू के नेत्र भीग गये। अपने गरूजी की आंखें नम देखकर आदित्य भी अपने आंसू रोक न सका। दोनों गुरू-शिष्य गले मिलकर कुछ पलों के लिए इसी मुद्रा में खड़े-खड़े आसूं बहाते रहे। इतने में सदाकांत मिश्रा की धर्मपत्नी पुजन की थाली ले आयी।

"आप कह रहे थे न की आज आपके जीवन की यह पहली ऐसी गुरू पुर्णीमा है जब कोई भी शिष्य आपसे मिलने नहीं आया। लीजिए ! देख लिजिए ! आज आपका प्रिय शिष्य आदित्य स्वयं आपसे मिलने आया है वह भी डाॅक्टर बनकर।" सावित्री ने अपने पति सदाकांत मिश्रा से कहा।

"सही कहा ! भाग्यवान ! आज मुझे गुरू पूर्णिमा पर अपने शिष्य से ऐसी गुरूदक्षिणा मिली है जिसे आजीवन मैं कभी भूल नहीं सकूंगा। आदित्य का गुरू होने पर आज मुझे गर्व है।" सदाकांत मिश्रा ने कहा।

आदित्य ने अपने आसुं पोंछकर गुरूजी की चरण वंदना की और उनका आशीर्वाद लिया।

इस बार की गुरू पूर्णिमा दोनों गुरू-शिष्य के लिए स्मरणीय बन गयी।


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