मैथिल बराह मन।
मैथिल बराह मन।


महाराज जी दरभंगिया हैं। बड़ी कठिनाई से और काफी रुपया पैसा खर्च कर शंकराचार्य का पद खरीदा है। पता नहीं, पिछले जन्म में क्या थे? कहने के लिए तो संन्यास एक नया जन्म था। अब तो कट्टर जातिवादी और जातीयता के प्रबल समर्थक हैं। कहते हैं जाति जन्मना होती है, कर्म से नहीं, जन्म से निर्धारित होती है। विद्वान होने के पर भी अन्य जाति में जन्मे लोगों को पूजा का अधिकार नहीं । बालाजी तिरुपति, पटना का हनुमान मंदिर और राम जन्म स्थान सभी स्थान पर ब्राह्मण पुजारी ही होना चाहिए। पूर्व जन्म की यादें अभी भी सताती रहती हैं। मसलन, मांसाहारी भोजन जब भी इनके नथुने से टकराती तो लार टपकने लगती थी। बड़े पापड़ बेलने पड़े हैं । ऐसे ही नहीं बने शंकराचार्य! लाखों तो शंकराचार्य है। गली मुहल्ले हर नुक्कड पर। बड़े गर्व से अपने अंतरंग सेवकों को बताते हैं कि कैसे उनके पहले पिता ने दरभंगा महाराज से मिलकर हरिजनों को देवघर और काशी के मंदिरों में जाने से रोका था। यदि वह पातकी बिहार का प्रधानमंत्री कृष्ण सिंह नहीं होता, तो आज भी हम उन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं करने देते। उनके भक्त उनसे जब पूछते कि कृष्ण सिंह भी तो बाभन ही थे , तो वे उन्हें समझाते कि वे नकली ब्राह्मण हैं। ये लोग पहले वैश्य थे, फिर अपने आप को क्षत्रिय कहने लगे और जब इतने से भी मन न माना तो आजकल अपने आप को ब्रह्मर्षि कहने लगे। परंतु अपने मनु महाराज का बनाया हुआ कानून ही यमराज के दरबार में चलता है। मैं निश्चित रूप से यह कह सकता हूँ कि हरिजनों को देवघर और काशी के मंदिरों में प्रवेश दिलवाने के कारण उसे नरकवास ही मिला होगा।
मार डाला रे । हिन्दू संन्यासियों को मार डाला। कहना तो चाहते हैं मरवा डाला। एक तो पहले ही गच्चा दे गए थे। अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। बता रहे हैं कि दोषियों को फांसी या आजीवन कारावास तो जरूर दिलवाएँगे। ऐसा यहाँ पहली बार नहीं हुआ है। चलती ट्रेन के डिब्बे से लोगों को बाहर फेक देना, गुनाह -उत्तर भारतीय होने का अपराध । यह क्षेत्रीय राजनीति की पहचान है । लुभावना नारा है। उत्तर भारतीय, छठ पुजा और हिन्दी विरोध इनका प्रिय विषय रहा है। विरोध और गुंडागर्दी से ही तो इनकी दुकान चलती है। लेकिन इस लॉकडाउन में वे वहाँ कैसे पहुंचे। बहुत सारे प्रश्न हैं । प्रधान मंत्री की अपील का कुछ लोगों पर असर ही नहीं होता । या जब पूरा देश प्रधानमंत्री की हर बात से प्रभावित है, उनकी हर बात गंभीरता से सुनता है तो इससे कुछ लोगों को बड़ी जलन हो रही है और फलस्वरूप अपनी राजनैतिक दुकान बचाए रखने के लिए विराध कर रहे हैं। कोई कोरोना फैला रहा है तो पहले अपने समुदाय का नुकसान कर रहा है। लेकिन दूसरे भी इससे प्रभावित होंगे। यहाँ भी पर-प्रांतीय संन्यासियों को मारा है। हत्या और हिंसा में भी कुछ लोगों को गुड फिलिंग होती है ।
हमारे महाराज जी अपने कुछ हथियार रखने वाले भक्तों को भड़का रहे हैं। कह रहे हैं , बदला लेंगे। किससे बदला लेंगे। किसी एक व्यक्ति से या उस दंगाई भीड़ से ? पुलिस चाहकर भी उन्हें नहीं बचा सकती थी। 1947 में बचाया था क्या, 84 के दंगों में बचाया था क्या? कैसा हृदय विदारक दृश्य था। जब नक्सली जन अदालत लगाकर लोगों की निर्दयतापूर्वक हत्याएँ कर रहे थे, क्या पुलिस लोगों को बचा रही थी ? 11 सितंबर, 2002। स्थान- पंचानपुर आउट पोस्ट, जनपद- गया। उस दिन भी दो नौसिखिए अपराधी अपराध को अंजाम देकर भागने की कोशिश कर रहे थे। घबराहट में वे अपनी मोटरसाइकल स्टार्ट ही नहीं कर पाये। भागकर उन्होने पंचानपुर पुलिस आउट पोस्ट में भागकर शरण ली। घबराकर पुलिस ने उन दोनों नौजवानों को नरभक्षी भेड़ियों या भीड़ के सामने मरने के लिए छोड़ दिये। भीड़ ने दोनों को अधमरा किया फिर टायर पर रख जला दिया। इस घटना की कहीं चर्चा नहीं होती। पुलिस नेआज तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया, न ही इस घटना की रिपोर्ट लिखी गयी। । कर भी नहीं सकती। आज अचानक पुलिस इतनी ज़िम्मेवार कैसे हो गयी। सारी पुलिस डिपार्टमेन्ट को दिल्ली पुलिस समझ रखा है क्या। बिना पैसा लिए तो ये रिपोर्ट भी नहीं लिखते, इनसे प्राण रक्षा की अपेक्षा करना मूर्खतापूर्ण व्यवहार है।
हमारे महाराज जी भी अपने आप को हिंदुओं की पुलिस समझ रहे हैं। अनाप शनाप बकवास कर रहे हैं। पूछने पर बता रहे हैं ऐसे ही नहीं शंकराचार्य बन सकते, आपको परिव्राजक का जीवन व्यतीत करना होता है, कुछ भोले भाले तरुणों को अपना शिष्य बनाना पड़ता है। संन्यासियों की पत्नियाँ तो होती नहीं, इनकी सेवा सुश्रुषा यथा पैर दबाना और रात में तेल लगाने का कार्य तो ये चेले चपाटी ही तो करते हैं। हाँ, विशेष परिस्थितियों में इन्हें नियोग का अधिकार है, लेकिन यह अनुलोम ही होना चाहिए, प्रतिलोम व्यवस्था तो उत्पन्न संताने चांडाल होती हैं, ये मैं नहीं कहता। हमारे बराह मन महाराज कह रहे हैं।