मैं जीत गया
मैं जीत गया
दोनों बंधु एक ही मार्ग पर चले जा रहे थे। दोनों ही विपुल गुणों की खान फिर भी जाने क्यों हताश और उदास नाम थे उनके विनोद और हास्य। एक दुनिया की पीड़ा सहकर भी आनंदी तथा दूसरा दूसरों की पीड़ा को देखकर आनंद लेने वाला जब दोनों ही आनंदी थे तो उदास क्यों थे क्यों बोझिल से चले जा रहे थे? क्यों वह सांसारिक विकारों से ग्रस्त थे? सत्य तो यह है कि जहां भी आनंद है वहां दुख कहां ?
आज उनके चेहरे विनिर्मल से विपथ को निहार रहे थे, जैसे उसी पथ पर अपना बहुत कुछ वह छोड़ आये हों। इन दोनों बंधुओं की यह दशा देखकर तो खुद शची भी रोने लगीं। उनके इन अश्कों पर सर्वसामर्थ्यवान मेघदूत भी बमुश्किल विजय प्राप्त कर पाए, फिर एक-एक सेकंड तो एक-एक कल्प के समान बीता। विजय की पताका लहराते हुए मेघदूत जैसे ही भ्रमण के लिए निकले तो सामने से हास्य व विनोद को आते देखा उनका रूप कोमल मुरझाये हुए कमल की तरह हल्का गुलाबी हो गया था हास्य और विनोद दोनों ही मानसिक सोचो की तरंगिकाओ से बोझिल हो रहे थे। जिनके रहने से कीर्ति में चार चांद लग जाया करते थे आज खुद उनकी कीर्ति मलिन हो गई। सृष्टि का सिक्तक सोचने लगा कि आखिर क्यों यह अपनी पहचान खोए हुए हैं ?
जिन की प्रशंसा खुद रुद्राणी करती हुई नहीं थकती आज वही सांसारिक चिंताओं के दास बनकर थकावट महसूस कर रहे थे। जिनका वैभव और यश केवल उन तक न था वरन उनके पितरों तक से भवत मान्य था। इनके पिता कौतुक ऋषि खुद में क्लिष्ट होते हुए भी संसार में भक्ति का प्रसार करते हुए कभी न थके। आज उनके पुत्र अल्पायु में अपने मन तक से विदीर्ण हो चुके थे। मुझ बनद को इनकी मदद करनी चाहिए। सत्य है समय चक्र अच्छे से अच्छे व्यक्तित्व को तोड़ देता है।
बनद इन बातों का रहस्य जानना चाहते थे और फिर बनद साधना पर बैठ गये पता लगाने की दोनों बंधुओं को आखिर कष्ट क्या है ? साधना कैसी साधना ? दुर्निवार युक्त कर्मों के प्रत्यर्पण की साधना या केवल सप्त चक्र की योग साधना ?
साधना प्रारंभ हुई प्रथम चक्र प्रकाशवान हुआ चिंताएं साधना में खो गई और पृथ्वी पर मानव ने देखा कि बादलों में एक प्रकाश, एक उन्मेष स्थापित हो गया है। हर पल चमक बढ़ती हुई। काया का स्वरूप परिवर्तित होता हुआ। धीरे-धीरे वायु प्राणों में स्थिर हो गई। वायु का राशि करण प्रारंभ हो गया। पवन खिंचे चले आए देखा तो दोनों बंधुओं के कारण आज बनद साधना पर बैठे हैं लेकिन विनोद एवं हास्य अब तक स्वर्ग में पहुंच चुके हैं। धीरे-धीरे पवन देव प्रविष्ट हो गए उस शरीर में जो देखने में विकृत लेकिन मन से कितना पवित्र। शारीरिक सौंदर्य किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की असली पहचान नहीं होती है।
अचानक दूसरा चक्र खुला वरुण एक जगह एकत्रित हो गए। वरुण देखने लगे बनद के त्याग को जिन्होंने अपनी यात्रा बंद करके विनोद और विनोद के अनुज हास्य के कष्ट को जानने के लिए प्राणायाम कर लिया है
अचानक नीचे से पवन को आते देखकर वरुण ने उन्हें रास्ता दे दिया और खुद भी पीछे चल दिए।
इसी प्रकार सातों चक्र खुले और सातों पूज्य एकत्रित हो गए। आत्मा ने देखा कि विशिष्ट स्थिति उत्पन्न हो गई है। सभी पूज्य ने आकर आत्मा का आलिंगन कर लिया। आत्मा को चिर परिचित आनंद की प्राप्ति हो गई। इतने दिनों से व्याप्त क्षुधा एक पल में ही मिट गई ऐसा लगा जैसे काली क्षिपा का नामोनिशान मिट गया हो। मस्त हाथी की तरह हाव-भाव लेकर आत्मा ने बनद के शरीर को त्याग दिया और देखने चली जहान में कि आखिर क्यों यह हास्य और विनोद उदास हुए जा रहे थे।
आत्मा पराभूत नहीं थी सर्वत्र स्वतंत्रता पूर्वक टहली। हर जगह उसे हाय दिखी। कोकिल की बानी तो हर जगह खाने को दौड़ती थी। वहां उसे दिखाई दिया रण, लड़ाई, वन, जंगल समुद्र, ताल, झील, पर्वत व पठार सब के सब सुने। हर जगह रक्तपात हर जगह सूनापन। कलयुग हर जगह प्रवेश कर चुका था। कलयुग के प्रकोप से पृथ्वी थर्रा रही थी। आत्मा अब और रभसयुक्त हो चुकी थी। वह अब और ज्यादा जानना चाहती थी। क्षिपा शुरू हो गई थी। राकेश दूर से सब को निहार रहा था। लेकिन राकेशनी का नामोनिशान न दिखता था। राकेश मलिन मुख कर अर्ध रूप में बैठा था। दैत्यों का साम्राज्य स्थापित हो चुका था।
कलयुग के प्रकोप के कारण ही मनुष्य हास्य और विनोद को भूल चुका था। जिस मनुष्य पर चौथापन आ गया था उसको सन्यास का निर्वाह करना चाहिए था वह अभी भी गृहस्थाश्रम में फंसा हुआ था जिसे हिंदुत्व की परिभाषा का ज्ञान नहीं था वह कलयुग में पंडित बना हुआ था। जो दिन-रात बुरे कर्मों में लिप्त था वह प्रत्यक्ष में महात्मा का वेश धारण किए हुए था। जिसने कभी न्याय शब्द का अर्थ नहीं जाना वह न्यायाधिपति बना हुआ था। हर जगह धोखा था। कोई कड़ी ऐसी नजर नहीं आती थी, जहां सदाचार का बास नजर आ रहा हो।
अचानक आत्मा की निगाह एक लम्बी नारी पर पड़ी जो अकेली किन्हीं ख्यालों में खोई हुई जा रही थी और एकदम से उसके सिकुड़े हुए होठ फैलने लगे जैसे की वह हंसना चाहती हो। आत्मा सोचने लगी कि हास्य और विनोद दोनों ही स्वर्ग पहुंच चुके होंगे फिर इसे हंसी कैसे आ रही है और ना ही कहीं मुझे कौतुक का पुनर्जन्म दिखता है जिससे यह पता चले कि हास्य और विनोद पुनः वापस लौट आए हों।
आखिर यह माजरा क्या है?
ये....
.कौन है ये ?...
यह मुस्कुराहट होगी। अवश्य ही यह मुस्कुराहट है। क्या इसे पता नहीं कि इसके दोनों भाई पृथ्वी छोड़ चुके हैं। इसे पता तो अवश्य होगी। यह शुरू से ही कुपथगामी रही है। यह नहीं जाएगी। इसी ने बिन ब्याह मोह जैसे पुत्र को जन्म दिया है यह अवश्य ही कलंकिनी है।
समय अधिक हो चुका था। आत्मा पुनः बनद के शरीर में प्रवेश कर गयी। बनद उठ खड़े हुए उन्होंने शिव के पास जाने का निश्चय कर लिया कैलाश पहुंचकर सबसे पहले मैं अपना स्वरूप बदलूंगा। आज तक मैंने सभी को समान रुप से सिंचित किया लेकिन अब.......
नहीं....
अभी बनद कुछ दूर ही चल पाये होंगे कि उन्हें भगवान शिव और विष्णु अपनी ओर आते हुए दिखाई दिए। नजदीक आते ही बनद के विष्णु मुस्कुरा दिए।
"हे बनद ! हम आपके पास ही आ रहे थे। " विष्णु बोले थे
"प्रभु मुझे बुला लिया होता। मैं तो खुद ही आपके पास आ रहा था। " बनद ने कहा।
'आज तक बनद आप एक समान सभी को सीचते रहे हैं लेकिन अब आप लोगों को कर्मों के अनुसार ही--।" विष्णु अपनी बात भी पूरी नही कर पाए तब तक बनद बोले।- "हाँ भगवन! इसी कारण मैं आपके पास आ रहा था।"
भगवान मुस्कुराने लगे बनद ने देखा प्रभु का तेज उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था। भगवान बोले बनद आप जानते हैं कि आज पृथ्वी पर जीवन कितना दुर्निवारयुक्त हो गया है इसलिए हमने एक निर्णय किया है कि हास्य और विनोद को पृथ्वी पर कलयुग रहने तक नहीं भेजा जाएगा और उनकी जगह पर उनके एक दूर के रिश्तेदार मजाक को भेजा जाएगा शिव बोले
"प्रभु क्या वही मजाक जिसने मुस्कुराहट के साथ गंधर्व विवाह किया और उसे छोड़कर चला गया।"
"हां यह वही मजाक है आज वह वापस ही नहीं लौट आया बल्कि मुस्कुराहट को अपनाने के लिए भी तैयार है।"
लेकिन विनोद ने कोई एतराज जाहिर नहीं किया।" बनद ने पूछा।
नहीं। हां हास्य ने अवश्य थोड़ा सा विरोध किया था लेकिन उसे हमने समझा दिया।"
तभी अचानक आवाज आई।
हा हा हा हा हा हा हा..
मैं जीत गया। मैं जीत गया।
"ये आवाज किसकी है भगवन।" बनद घबड़ाकर बोला।
"यह मेरी आवाज है।"
आवाज की दिशा में तीनों ने पलट कर देखा।
पीछे कलयुग खड़ा हुआ था।
कलयुग तुम !
हां ! मैं
तुम क्या समझते थे कि हास्य और विनोद को रोककर तुम जीत गए।
नहीं
जीत मेरी हुई है। मैं जीता हूं। अब वहां मेरे साथ मजाक आएगा तो उसकी बहन अश्लीलता भी आएगी फिर देखना मजाक, मुस्कुराहट और अश्लीलता के साथ मैं पृथ्वी पर कैसा खेल खेलूंगा।
तीनों देव चुपचाप चल दिए और कलयुग कहता रहा।---
मैं जीत गया।
हा हा हा---
मैं जीत गया।......
