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Pawanesh Thakurathi

Romance

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Pawanesh Thakurathi

Romance

मैं बारिश, तू धरती

मैं बारिश, तू धरती

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वह आज उसे नहीं भिगा पाई। भिगाती भी कैसे ! आज तो वह उसके घर के सामने से गुजरा ही नहीं। वह कभी घर की खिड़की से बाहर झांकती। कभी छत पर से उसकी राह तकती। कभी दरवाजे पर खड़ी हो जाती। बेचैनी में बाहर-भीतर, बाहर-भीतर भटकती रहती, लेकिन वह निष्ठुर नहीं दिखा तो नहीं दिखा। उसका मन हुआ कि उसे जी भर के गाली करे। वाकई में आज उसे बड़ा अजीब-सा लगा। उसे इतना अजीब-सा लगा कि बेचैनी और क्रोध के शांत होते ही वह मुरझाई हुई कमलिनी बन गई। उसे लगा कि उससे अधिक अभागा इस दुनिया में कोई और है ही नहीं।

नलिनी नाम था उसका। बला की खूबसूरत। दादी माँ के किस्सों में उतरने वाली किसी परी की तरह। उस दिन होली का पर्व था। होली गायकों की टोली उनके घर के आंगन में होली गायन कर रही थी-

"ब्रजमंडल देश दिखाओ रसिया, ब्रजमंडल हो।

तेरे बिरज में गाय बहुत हैं

पी-पी दूध भई पठिया, ब्रजमंडल हो...।"

ठीक उसी समय नलिनी ने होली गायकों को भिगाने के लिए छत से रंग से भरी बाल्टी उन पर उड़ेल दी, लेकिन उसका निशाना कहीं और जा लगा। रंग की चपेट में एक युवक आया। वह युवक रंग मिश्रित जल से पूरा भीग गया। युवक को पूरा लाल रंग से रंगीन हुआ देख नलिनी खिलखिलाकर हंस दी- "होली है !"

युवक ने छत की ओर दृष्टि दौड़ाई। नलिनी को लग रहा था कि वह लड़का ऊपर देखने की कोशिश कर रहा है, लेकिन देख नहीं पा रहा है। वह तुरंत छत से नीचे आई। उसने युवक से क्षमा मांगी- "आइ एम सारी ! कहीं रंग आपकी आंखों में तो नहीं चला गया ?"

"नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। मेरी आंखें ही कमजोर हैं। मुझे ठीक से दीखता नहीं है।" युवक ने आंखें मलते हुए कहा।

"ओह, आइ एम रियली सारी! मेरा मकसद आपके साथ होली खेलने का नहीं था। मैं तो होली वालों को भिगाना चाहती थी, लेकिन ऐन वक्त पर आप आ गये। चलिए मैं आपके कपड़े सुखा दूंगी।" नलिनी ने युवक की बांह पकड़ी और उसे कमरे में ले गई। वहाँ उसने पहले टावल से युवक के कपड़े पौंछे और फिर अपने हेयर ड्रायर से उसके कपड़े सुखाये। उसके बाद वह उसे दरवाजे तक छोड़ आई।

नलिनी तब से उस युवक को लगातार भिगाती आ रही है। उसे उस युवक को भिगाना अच्छा लगता है। पता नहीं क्यों ! पता नहीं क्यों उसे लगता है कि वह युवक भी उसके द्वारा की गई बारिश में भीगना चाहता है। इसीलिए तो वह प्रतिदिन नियत समय पर उसके घर के सामने से गुजरता है। वह भी ठीक तीन बजे छत पर जग में पानी लेकर उसका इंतजार करती रहती है। तीन बजकर दस मिनट के आसपास वह लड़का वहाँ से गुजरता है, तभी वह उसके ऊपर पूरा जग उड़ेल देती है। युवक उसकी हरकत पर जरा भी क्रोध व्यक्त नहीं करता। बस मुस्कुरा देता है। और फिर स्टिक के सहारे अपने गंतव्य की ओर चल देता है। पिछले बीस दिनों से यह सिलसिला लगातार चल रहा था। नलिनी उसे भिगाती और वह युवक भीगता जाता।

उस दिन आसमान में काले बादल छाये हुए थे। हमेशा की तरह नलिनी ने एक जग पानी युवक के ऊपर उड़ेल दिया, लेकिन आज युवक मुस्कुराया नहीं। उसने आंखों में अंगारे भरकर नलिनी की ओर देखा- "दिखता नहीं तुम्हें, जो इतनी ठंड में पानी फेंक रही हो। बेवकूफ कहीं की..!" ऐसा कहकर वह चलता बना।

नलिनी सन्न रह गई। उसने कल्पना में भी नहीं सोचा था कि उसे ऐसा जवाब मिलेगा। वह एकटक युवक को देखती रही। उसने देखा कि कुछ दूर जाकर युवक ने पीछे मुड़कर देखा और वह हल्के से मुस्कुराया। नलिनी की आंखों ने उसके चेहरे को गहराई से पढ़ा। नलिनी खिलकर कमलिनी बन गई। उसने मन ही मन कहा- "अच्छा बच्चू ! कल मैं भी चखाऊंगी तुझे मजा।"

दूसरे दिन नलिनी पानी लेकर छत पर नहीं गई। जैसे ही तीन बजे, वह पैर पकड़कर जमीन पर बैठ गई। युवक को लगा कि शायद कल की घटना से नाराज हो गई है। उसने घर के दरवाजे की ओर कदम बढ़ाये। भीतर से हल्की सी 'आह' की आवाज आई। कुछ देर युवक स्टिक के सहारे से वहीं पर खड़ा रहा। फिर कुछ सोचकर वह उस जगह पर खड़ा हो गया, जहाँ पर अनायास हुई बारिश से वह भीग उठता था।

भीगने में कितना आनंद है। इस बात का एहसास उसे आज हो रहा था।

कुछ देर इंतजार करने के बाद भी उसे नलिनी के आने का एहसास नहीं हुआ, तो वह रूंआंसा होकर जाने लगा। अभी वह चार कदम आगे बढ़ा ही था कि छपाक से पानी उसके ऊपर आ गिरा। वह रोमांचित हो उठा। उसे लगा कि वह खुशियों के समंदर में जा गिरा है। वह वहीं पर खड़ा रहा। उसका मन किया कि काश, कुछ बूंदें और उसके ऊपर गिरतीं ! क्यों न वह लड़की ही बारिश बन जाती और मैं धरती बनकर भीगता रहता जी भरकर।

उसी समय नलिनी उसके पास आई और एक जग पानी उसने फिर से युवक के ऊपर उड़ेल दिया-

"जाओगे कहाँ मुझसे बचके, मैं बारिश हूँ।"

"अच्छा, तो मैं भी पृथ्वी हूँ। जितना भिगा सकती हो भिगा लो।"

"पागल !" ऐसा कहते ही नलिनी दौड़कर भीतर भाग गई और वह युवक भी मुस्कुराता हुआ चला गया।

आज नलिनी बहुत उदास है। चार बज चुके हैं। वह युवक आज नहीं आया, लेकिन उसे अब भी उम्मीद है। असल में, उम्मीद में ही जीवन का वास्तविक आनंद है। और यह आनंद परम आनंद में तब बदला, जब नलिनी को दूर से आता हुआ वह युवक दिखाई दिया-"आज तो छोड़ूंगी नहीं। पूरी बाल्टी उड़ेल देती हूँ। बहुत तड़पाया है...!"

ऐसा सोचकर वह भीतर जाकर पानी की भरी बाल्टी ले आई और उसने पूरी बाल्टी युवक के ऊपर उड़ेल दी। युवक की स्टिक जमीन पर गिर गई। वह हाथों से उसे तलाशने लगा। नलिनी दौड़ती हुई आई और स्टिक युवक को थमा दी। युवक ने भी स्टिक छोड़कर नलिनी का हाथ थाम लिया और घुटनों के बल खड़ा हो गया। उसने जेब से अंगूठी निकाली और युवती को पहना दी-"अब तुम सचमुच बारिश बन गई हो।"

अच्छा, और तुम भी सचमुच पृथ्वी बन गये हो।


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