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Prabodh Govil

Abstract

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Prabodh Govil

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मैं और मेरी जिंदगी

मैं और मेरी जिंदगी

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यदि कल्पना या सुनी सुनाई बातों का सहारा न लेना हो तो मुझे केवल पैंसठ साल पहले की बात ही याद है। अपने देखे हुए से दृश्य लगते हैं पर धुंधले।

धूप थी, रस्सी की बुनी चारपाई थी, खपरैल से ढके कच्चे बरामदे से सटा छोटा सा आंगन था। चारपाई पर एक हिस्से में बिछी पतली सी दरी, और पास ही नम, गुनगुना सा पड़ा एक तौलिया। खाट पर खुला पड़ा एक पाउडर का डिब्बा। और मुझे नहला कर बाहर धूप में लेटा कर तैयार करते दो चपल से हाथ।

शिशु शरीर पर पाउडर लगाने के बाद एक पतली सी अंगुली भी मुझे याद है जो हाथ पर काला काजल लिए मेरे माथे पर छोटा सा टीका लगाने के लिए बढ़ी थी। पहले टीका, फ़िर तेज़ी से मेरी आंख में रगड़... और मेरा एकदम से मचल कर उससे बचने की कोशिश में मुंह दूसरी ओर घुमाना और आंखों में हल्की जलन महसूस करते हुए मुंह बनाना।

हल्के से हरे रंग की छींटदार कोई झबलानुमा कमीज़, मेरी याद दाश्त में मेरे जीवन की पहली पोशाक।

इसके बाद पतले से सफ़ेद कपड़े का कोई अधोवस्त्र!

बस,मेरी बेचैनी यहीं से शुरू होती है। अधोवस्त्र में बांधने के लिए उसी कपड़े की पतली सी सिली हुई पट्टी।

अब तक मैंने किसी बात पर असुविधा या प्रतिरोध दर्ज़ नहीं कराया, लेकिन ये बंधन, ये कसाव, ये हल्की सी जकड़न मेरी बेचैनी का लगातार चलने वाला कारण है।

शायद मेरे छोटे छोटे हाथों ने इस बेचैनी को ज़ाहिर भी कर दिया है, इसलिए उठाए गए कदम के रूप में अब ये पट्टीनुमा बंधन अदृश्य है, मुझे दिखाई नहीं दे रहा।

एक दूध भरी कांच की बोतल भी मुझे याद है, इसमें गुनगुना दूध है जो मुझे अच्छा लग रहा है पर इस बोतल पर रबर का जो निपल है, वो फ़िर मेरी असुविधा का कारण है। लेकिन इस बार मेरी भूख मेरी असुविधा पर भारी है, और मैं दूध पी रहा हूं।

अब मैं कच्चे मकानों की एक तंग सी गली में किसी गोद में घर से बाहर घूम रहा हूं, जहां हल्की धूप मुझे अच्छी लग रही है।

गली में घूमते हुए जो बात मुझे चौकन्ना करती है, वो ये कि किसी भी दूसरे व्यक्ति, जो संभवतः लड़कियां ही हैं, या कभी कभी कोई महिला (मेरे जेहन में कपड़ों के आधार पर ही ये वर्गीकरण है, क्योंकि लड़की मतलब फ्रॉक, महिला मतलब साड़ी) के रास्ते में मिलते ही कठोर सी अंगुलियों से मेरे गाल खींचे जाते हैं।

असुविधा के बावजूद मैं ये तो सहन कर लेता हूं किन्तु कभी कभी जब किसी के द्वारा मुंह पास लाकर मेरे गाल चूमने की कोशिश होती है तो मुझे अच्छा नहीं लगता। यदि चूमने वाली के मुंह से हल्का गीला पन मेरे गालों पर लग गया तब तो मुझे रोना पड़ता है। वैसे मैं रोना नहीं चाहता लेकिन किसी के मुंह से थूक की हल्की सी लकीर बन जाए तो मुझे बेहद घिन आती है। लकीर चाहे कपड़े की हो, चाहे गीलेपन की, मुझे बेचैन करती है।

दिन बीतने लगते हैं, पर मैं गोद से बहुत कम उतारा जाता हूं।

कुछ महीने बीतते हैं कि घर में हर समय देखने के लिए एक और कौतूहल भरा दृश्य है, अब मेरी ही तरह एक और छोटा भाई भी हर समय घर में मेरे साथ, मेरे सामने है।

मेरा घर से बाहर रहना अब पहले से ज़्यादा हो गया है। लेकिन गोद में। एक से दूसरी गोद में।

मैं जब भी सोने के लिए बिस्तर पर लेटाया जाता था, मुझे हमेशा तुरंत ही नींद आ जाती थी। किन्तु मेरी यादों में एक दृश्य अभी भी ऐसा है जो सोने से पहले नींद गहराने के समय आया करता था।

इस दृश्य में मैं किसी भी पालने जैसी किसी चीज़ में होता था और ये ज़मीन पर, पानी में या हवा में तेज़ी से दौड़ती हुई दिखाई पड़ती थी। और इसमें कभी कभी कोई मेरे साथ भी होता था। कोई भी, कभी देखा हुआ सा कोई चेहरा, या फ़िर अस्पष्ट सा कोई बुत।

मैं आज भी कुछ दृश्यों को अपने दिमाग में ठहरा हुआ पाता हूं जो मेरे उस दौर के देखे हुए हैं।

मुझे हल्की सी याद मेरे पहले विद्यालय की भी है। मेरी कुछ शिक्षिकाएं अब भी मेरे दिमाग़ में उसी तरह जीवंत हैं।

एक बात आपको बता दूं कि घर से स्कूल जाने के रास्ते में गली पार करके एक गेट से गुजरना पड़ता था जिस पर एक महिला के बहुत सुंदर और कलात्मक चित्र के साथ कुछ ऐसा लिखा था कि औरत का सम्मान करने से भगवान खुश होते हैं। वस्तुतः भगवान वहीं रहते हैं जहां नारी का वास हो।

मेरी पहली शिक्षिकाओं में मंजु गांधी, कृष्णा जोबनेर, शांति आनंद मुझे अब तक याद हैं।

इनमें से मंजु गांधी से मैं थोड़ा भयभीत रहता था। इसके दो कारण थे- पहला कारण तो ये था कि वो बहुत छोटी थीं, मुझे हर समय लगता था कि बच्चों की भीड़ को वे कैसे संभालेंगी, कहीं गुस्सा होकर वो किसी बात पर डांट न दें। दूसरे, एक दिन मेरे छोटे भाई ने उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे गोद में लेने पर उनकी चोटी ज़ोर से खींच दी थी। मैं सोचता था कि कहीं वे उस के बदले मुझे डांट न दें।

पर मैं उनसे डरते हुए भी किसी न किसी तरह उनके पास ही बना रहता था क्योंकि उनके सामने रहने पर लड़कियां मेरे गाल नहीं खींचती थीं।

एक और साल बीतते बीतते तो मेरी टीचर कृष्णा जोशी, अन्नपूर्णा गौड़ और अरुणा तिवारी भी हो गई थीं।

मुझे शांति आनंद बहुत स्नेह करती थीं क्योंकि मैं उन्हें चित्र बनाते हुए ध्यान से देखा करता था। वो बहुत सुंदर चित्र बनाती थीं। उनका पक्षियों के पंजे बनाना मुझे आज भी याद है। ब्रश हाथ में लेकर कमल की पंखुड़ी में कलात्मक ढंग से गुलाबी रंग भरना मेरे प्रयास को भी चुनौती देता था। वे कहती थीं कि चित्र बनाते समय कभी किसी की नकल नहीं करनी चाहिए, पर मैं वही बनाने की कोशिश किया करता था जो वे बनाती थीं।

सब कहते थे कि मैं बहुत सुंदर चित्र बनाता हूं।

यहीं से मैं अपने आसपास वालों और अपने में एक अंतर महसूस करने लगा।

मैं देखता था कि सभी बच्चे चित्र बनाते समय लगभग एक से पहाड़ बना रहे हैं, एक सी चिड़िया, एक सी नदी और एक से पेड़ बना रहे हैं, पर मेरे पहाड़, नदी, चिड़िया, पेड़ सबसे अलग होते। मैंने कभी अपने साथ वाले बच्चों की नकल करके चित्र नहीं बनाया, पर मैं देखता था कि मेरे पास बैठने वाले बच्चे चित्र बनाते समय बार बार मेरे चित्र को देखते, फ़िर अपना चित्र बनाते।

मैं अच्छा बना रहा हूं,इस बात की पुष्टि इस तरह भी होती थी कि कोई भी बच्चा जब टीचर के पास जाकर कहता कि चित्र पूरा हो चुका है, उसे नया काग़ज़ दिया जाए, तो शिक्षिका हमेशा यही कहती थीं कि अभी और बनाओ, जो जगह खाली बची है उसे भी भरो।किन्तु मेरे अपना चित्र उनके पास लेकर जाते ही वे उसे रख लेती थीं और मुझे दूसरा काग़ज़ दे दिया जाता था, जबकि कई बार मैं देखता था कि काग़ज़ पर अभी बहुत सी जगह बाक़ी है।

दो तीन बार इस तरह का अनुभव होने के बाद एक दिन मैंने जानबूझ कर ये जानने की कोशिश की, कि सचमुच जीजी (हम अपनी शिक्षिका को जीजी ही कहते थे, जिसका अर्थ था बड़ी बहन) क्या मुझे और बच्चों की तरह पूरा काग़ज़ भरने के लिए नहीं कहती हैं ? वे नया काग़ज़ लेने के मेरे निर्णय को आसानी से मान लेती हैं?

सब बच्चे काग़ज़ पर जंगल या गांव के दृश्य बना रहे थे जिनमें घर, पेड़, जानवर आदि सभी थे और काग़ज़ का कोना कोना भरा जा रहा था। मैंने अपने काग़ज़ पर केवल पीपल का एक पत्ता बनाया और बहुत सारी जगह ख़ाली छोड़ दी। फ़िर भी जब सबने अपने काग़ज़ लौटाए और उन्हें नया काग़ज़ दिया गया तो जीजी ने मुझसे ये नहीं कहा कि काग़ज़ को पूरा भरो। बल्कि मेरा चित्र हाथ में उठा कर सभी बच्चों को दिखाया और तुरंत मुझे दूसरा काग़ज़ दे दिया। कई बच्चों को इससे अचंभा हुआ कि मुझसे काग़ज़ पूरा भरने को क्यों नहीं कहा गया।

मैंने देखा कि कुछ बच्चे अब मेरे चित्र की नकल करके चित्र बना रहे थे।

कुछ समय बाद मैंने देखा कि मेरे लिए बाज़ार से रंग और काग़ज़ भी सबसे अच्छे और अलग लाए जाने लगे। जब कक्षा के और बच्चे पेंसिल से लिखते मैं स्केच पेन भी मांगता तो मुझे मिल जाता। मुझे वो मोटा काग़ज़ भी मिलने लगा जो बड़े बच्चों को दिया जाता था।

धीरे धीरे कभी कभी ऐसा भी होने लगा कि जीजी से छिपा कर कोई बच्चा चुपचाप मुझसे कहता कि मैं उसके काग़ज़ पर कुछ चित्र बना दूं। मैं ऐसा कर देता।

कुछ दिन बाद मैंने ध्यान दिया कि मैं पक्षियों को बहुत गौर से देखता हूं। मुझे उनके नाम, रंग, आकार आदि याद भी होने लगे। सबसे ज्यादा मैं इस बात पर ध्यान देता कि किस पक्षी के पंजे कैसे हैं, और बारीकी से देख कर उनके चित्रों में मैं बिल्कुल वैसे ही पंजे बनाने की कोशिश करता।

वैसे ही मैं पक्षियों की चोंच भी वास्तविक आकार की बनाने की कोशिश करता। मोर, तोता, मैना, कबूतर, बतख आदि मैं आसानी से बनाने लगा।

मैं विभिन्न जानवरों को भी उनके हाव भाव देख कर वैसा ही बनाने की कोशिश करने लगा।

इन दिनों की और जो बातें मुझे याद हैं उनमें एक ये भी है कि मेरी रुचि खेल में बिल्कुल नहीं होती थी।

खास कर के शाम के समय जब ज़्यादातर बच्चे खेलने के लिए घर से निकलते तो मैं उनके साथ निकलता तो था, पर मेरी रुचि खेलने में नहीं रहती थी। कई बार केवल खेल को देखता था या फ़िर मैं खेल के समय कहीं इधर उधर घूमना पसंद करता था।

खेल देखते समय मुझे एक अनुभव और हुआ जो मुझे आज तक याद है।

अक्सर खेलते खेलते बच्चों में किसी न किसी बात पार विवाद,बहस या झगड़ा हो जाता था। ऐसे में वे अपनी टीम या दोस्ती के आधार पर एक दूसरे का पक्ष लेते। मैं, क्योंकि खेल नहीं रहा होता था, मुझे किसी एक पक्ष में नहीं माना जाता था और प्रायः विवाद की स्थिति में मुझसे पूछ कर निर्णय लिया जाता। ये बात अंदर ही अंदर मुझे बहुत अच्छी लगती और मुझे बहुत मज़ा आता था।

बच्चों के क्रिकेट आदि खेलते समय इसी कारण से मुझे अंपायर भी बना दिया जाता था।

किन्तु खेल में मेरी रुचि न होने के कारण मुझे खेलों के नियम भी अच्छी तरह मालूम नहीं होते थे और इसलिए अंपायर बनने से मैं एक तनाव में आ जाता था। इसलिए मैं अंपायर बनने से भी बचा करता था।

खेल के समय जब बच्चे टीम बना रहे होते, तब यदि संख्या के आधार पर किसी ओर खिलाड़ियों की कमी होती तो कभी कभी मुझे भी टीम में शामिल कर लिया जाता था।

पर मुझे खेलते समय कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता था। जो बच्चे कैच छूट जाने पर एक दूसरे को बुरी तरह कोसा करते थे, वे मुझसे कैच छूटने पर कुछ न कहते। मुझे किसी कठिन काम के लिए केवल तभी कहा जाता था, जब काम बहुत ज़रूरी हो और उसे करने वाला और कोई न हो।

इस तरह के खिलाड़ी को बच्चे "कच्ची रेडी" वाला खिलाड़ी कहते थे। अर्थात ऐसा खिलाड़ी, जिससे किसी को कोई उम्मीद न हो।

लेकिन मेरे खेल को लेकर कभी कोई दोस्त या दूसरा खिलाड़ी किसी तरह की टीका टिप्पणी नहीं करता था।इसका कारण ये था कि वे सभी,स्कूल की अन्य सभी बातों में मुझे अपने से आगे मानते थे।

दूसरा कारण ये भी था कि मैं हम तीन भाइयों में बीच का था, जिसका एक बड़ा भाई और एक छोटा भाई वहां हमेशा मौजूद होता। तीन भाई होने से मोहल्ले में हमारे दोस्त भी ढेर सारे होते थे।

हमारे चौथे,सबसे बड़े भाई काफ़ी बड़े होने के कारण पढ़ाई के लिए अक्सर बाहर ही रहते थे।

स्कूल में मैं अपनी कक्षा का सबसे तेज़ छात्र माना जाता था। केवल पढ़ाई ही नहीं, बल्कि अन्य कई बातों में मुझे आगे रहने का अवसर मिलता। मैं अपनी क्लास का हमेशा मॉनिटर भी रहता।

विद्यालय में प्रार्थना के समय के बाद अख़बार से पढ़ कर समाचार सुनाने का प्रचलन था, मुझे याद है कि मुझे इसका मौका किसी भी अन्य विद्यार्थी की तुलना में अधिक मिलता था।

मेरे विद्यालय में लड़के बहुत ही कम संख्या में होते थे, क्योंकि ये लड़कियों का ही स्कूल था। हर क्लास में पच्चीस तीस लड़कियों के बीच में दो तीन लड़के ही होते थे। संयोग से मैं तो कई बार अपनी कक्षा में लड़कियों के बीच अकेला छात्र भी रहा।

ये एक महिला विश्वविद्यालय के अहाते में बना स्कूल था, जहां केवल वही लड़के होते थे, जिनके माता पिता विश्वविद्यालय में काम करते हों। जबकि लड़कियां देश भर से आकर छात्रावास में रहती थीं। कुछ छात्राएं भी स्टाफ की होती थीं।

ये एक ऐसा स्कूल था जहां काम करने वाले लोगों के कुछ लड़के भी अपनी पढ़ाई के लिए दूसरे शहरों में बाहर चले गए होते थे,और इसके उलट विभिन्न परिवारों में पढ़ाई की सुविधा के चलते दूर दूर के रिश्तेदारों की लड़कियां भी आकर परिवारों में रहा करती थीं।

हम देखते थे कि हमारे साथ पढ़ने वाली लड़कियों में देश के कई राज्यों से आई हुई लड़कियां होती थीं। पंजाबी, बिहारी, बंगाली से लेकर दक्षिण और उत्तर पूर्व तक के राज्यों की।

हम शुरू में एक दूसरे की भाषा, रीति रिवाज और खानपान पर एक दूसरे को आपस में चिढ़ा कर परिहास करते, पर जल्दी ही एक दूसरे से परिचित होकर आत्मीय और घनिष्ठ मित्र भी हो जाते।

लड़कियों का शिक्षा परिसर होने के कारण हम लोगों को एक अनुशासन में रहना पड़ता था और ज़्यादातर लड़के भी संकोची स्वभाव के बन जाते थे।

मुझे अपने प्राथमिक विद्यालय की एक बात और याद है। मैं लड़कियों में शारीरिक ताक़त को देख कर ही उनसे प्रभावित होता था। आज आप मुझसे पूछें कि मेरे विद्यालय की सुन्दर लड़कियां कौन कौन थीं तो शायद मैं न बता पाऊं,परन्तु मंजु हांडा, कुलजिंदर कौर, शकुन्तला जालान, विक्रम वीर ढिल्लन जैसी लड़कियां मुझे याद हैं जो लंगड़ी टांग, कबड्डी, लंबी कूद आदि में हमेशा हम लोगों से जीत जाती थीं। लड़के उनके सामने निरीह से दिखाई देते थे।

इसी तरह मैं उन लड़कियों से भी बहुत प्रभावित होता था जो पढ़ने में बहुत तेज़ होती थीं। उषा खन्ना, सरिता,चंद्रकिरण आदि बहुत अच्छी हिंदी लिखती थीं और भाषा में त्रुटियां नहीं करती थीं।

हमारे गणित के अध्यापक उपाध्याय जी होते थे,जो बहुत वयोवृद्ध थे। वे बहुत धीरे धीरे चलते हुए स्कूल आते थे, और कभी कभी उनके हाथ में एक छड़ी भी हुआ करती थी। वे मुझे बहुत पसंद करते थे और मुझे हमेशा अपना प्रिय छात्र मानते थे। मैं भी दूर से उन्हें विद्यालय आता देख कर बाहर निकल कर रास्ते पर चला जाया करता था और फ़िर उनकी छड़ी अपने हाथ में लेकर उन्हें अपने साथ स्कूल में लाया करता था।

सच कहूं, मुझे गणित विषय केवल तभी तक अच्छा लगा जब तक उनका हाथ मेरे कंधे पर रहा।

वे कक्षा में आते ही बैठ कर हमें सवाल बोल कर लिखवाया करते थे, फ़िर जो विद्यार्थी उसे हल करले, उसी से अन्य विद्यार्थियों के लिए बोर्ड पर उसे लिखवाया करते थे।

अधिकतर ऐसा होता था कि मैं ही सबसे पहले सवाल हल करता था,किन्तु यदि कभी ऐसा हुआ कि मैं सवाल को हल नहीं कर पाया तो वे स्वयं खड़े होकर सवाल को बोर्ड पर दोबारा समझाते थे। ऐसे में उन लड़कियों को अचंभा होता ही होगा जो मुझसे पहले सवाल हल कर लें।

उपाध्याय जी बहुत लंबे और वृद्ध थे और हमेशा खादी के हल्के पीले, बादामी, भूरे रंग के वस्त्र पहना करते थे। पुराने ज़माने के आदर्श शिक्षक की छवि जैसी बताई जाती, उस पर वे खरे उतरते थे।

हिंदी से भी मेरा संबंध बहुत छोटी अवस्था से बनने लगा। शिवरानी भार्गव, शीला माथुर मेरी हिंदी की शिक्षिका थीं।

एक और बात जो मुझे अच्छी तरह याद है,एक बार "मिल" शब्द को लेकर हमारे विद्यालय में बहस छिड़ गई। इसका कारण ये था कि स्कूल में खादी के कपड़े पहनना अनिवार्य था। विद्यार्थी दो ही किस्मों के बारे में बात करते थे, खादी के कपड़े या फ़िर मिल के कपड़े।

इसी मिल के कपड़े को अधिकांश लोग बोलचाल में मील के कपड़े कहते थे। मगर एक दिन "श्रुतलेख" की परीक्षा में ये शब्द बोला गया। मैंने इसे इसी तरह लिखा था - मिल।

किन्तु कक्षा की अधिकांश छात्राओं द्वारा "मील" लिखे जाने के कारण अध्यापकों में भी ये बहस छिड़ गई कि सही शब्द क्या है। यहां तक कि एक टीचर भी ज़्यादा लड़कियों के लिखने के कारण मील को ही सही बताने लगीं पर शिवरानी जी ने दृढ़ता से मेरा पक्ष लिया और मेरे लिखे को सही ठहराया। आज छप्पन साल बाद भी नाक में चमकती लौंग पहनने वाली मेरी प्रिय अध्यापिका का वो चेहरा मुझे याद है जिसने मेरे भाषा ज्ञान पर इतना भरोसा जताया।

तबसे मुझे भाषा को लेकर भी अपने सामर्थ्य पर कुछ अतिरिक्त भरोसा होने लगा।

मुश्किल से एक दशक भर ही तो हुआ होगा तब मुझे दुनिया में आए।

विश्व विद्यालय के इस परिसर में रहते हुए कई मशहूर लोगों को समय समय पर देख पाना तो सुलभ होता ही था, कई विख्यात चित्रकार, संगीतज्ञ, अध्यापक भी हमारे यहां होते थे।

देश के एक नामी चित्रकार देवकीनंदन शर्मा मेरे एक मित्र के पिता थे, और संयोग देखिए कि वे मेरे पिता के मित्र भी थे।

चित्रकला के प्रति बारीक बातों को समझने के लिए मेरे आदर्श वही थे। मैं उनके पास बहुत देर तक बैठ कर उनकी चित्रकारी देखा करता था।

एक बार मुझे याद है कि मैं और मेरा छोटा भाई बैठ कर ख़ाली काग़ज़ पर अपने अध्यापकों के हस्ताक्षर बनाने की कोशिश कर रहे थे। तभी अचानक मेरे पिता के साथ नज़दीक के कॉलेज के प्रिंसिपल,और कुछ और लोग आए। हमारे उन्हें नमस्कार कहते ही उन्होंने मुझसे पूछा- बच्चो क्या कर रहे हो?

मैंने कहा- सभी अध्यापकों के साइन बनाने की प्रैक्टिस कर रहे हैं।

वे बोले - गलत बात!

पर उन्होंने ग़लत बात इतने लय से कहा कि मुझे अच्छा लगा। मुझे इस बात का ज़रा भी अहसास नहीं हुआ कि मुझे किसी बात से रोका गया है।

किन्तु उनकी बात का असर मुझ पर जीवन भर रहा। मेरे हाथ आज भी किसी और के हस्ताक्षर बनाते समय कांप जाते हैं।


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