मैं और मेरी जिंदगी -5
मैं और मेरी जिंदगी -5
जिस समय मैं अपनी ज़िंदगी के इस तीसरे स्कूल में पढ़ने आया, मेरी उम्र बारह वर्ष थी।
बड़ा शहर था, राज्य का तत्कालीन सबसे बड़ा कहा जाने वाला विद्यालय।
इस स्कूल की बात करूंगा, लेकिन पहले बात माता पिता से दूर होने के इस पहले अवसर की।
मेरे माता पिता दोनों ही शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत होने के कारण मुझे माता पिता से ऐसी विदाई नहीं मिली, कि अब मैं क्या खाऊंगा, मेरा ध्यान कौन रखेगा, कहीं घर से दूर जाकर बिगड़ न जाऊं, बीमार न हो जाऊं...! उनका एक ही सोच था कि मुझे बड़े अवसरों वाला अच्छा स्कूल मिलना चाहिए ताकि मैं जीवन में अपने किसी लक्ष्य को पा सकूं।
दूसरे, मैं न तो किसी हॉस्टल में रहने वाला था, और न ही अकेला कोई कमरा लेकर, या किसी रिश्तेदार- पारिवारिक मित्र के घर... बल्कि मेरे बड़े भाई और भाभी भी रहने के लिए वहीं आ रहे थे और हम चार भाई और भाभी एक साथ रहने वाले थे।
पढ़ने वाले तीनों भाइयों में मैं बीच में था,एक मुझसे बड़ा और एक मुझसे छोटा।
विद्यालय के पास ही एक अच्छी कॉलोनी में मकान लेकर हम लोग रहने लगे।
मेरे दोनों भाई भी साधारण विद्यार्थी थे, उन्होंने नई जगह के बारे में क्या सोचा होगा ये मैं नहीं कह सकता,किन्तु मैं ये सोचता था, कि नए शहर के हज़ारों बच्चों वाले इस स्कूल में अब अपना "सबसे अच्छा, सबसे होशियार" छात्र का तमगा मुझे छोड़ना ही पड़ेगा।
यहां तो बस अच्छे अंक मिल जाएं यही कोशिश करनी होगी।
कॉलोनी से आठ-दस बच्चे सुबह सुबह बैग कंधे पर लटका कर बातें करते हुए एक साथ स्कूल जाते।
एक साथ तीन भाई होने से अकेलापन तो लगने का सवाल ही नहीं था, बल्कि हमारे ढेर सारे नए नए दोस्त बनने लगे।
यहां ये साफ़ नजर आता था कि छोटे भाई के मित्रों में खिलाड़ियों की संख्या ज़्यादा होती, बड़े भाई के मित्रों में बाहर घूमने फिरने के शौकीन लड़कों की, और मेरे मित्रों में पढ़ने पर ध्यान देने वाले पढ़ाकू लड़कों की। पर तीनों को ही आपस में एक दूसरे के मित्रों का साथ भी मिलता था।
बड़ा परिवार होने के कारण मेरे मौसेरे, चचेरे भाई भी संख्या में पर्याप्त उसी शहर में, और कई तो उसी स्कूल में भी थे।
ऐसे में नए स्कूल में अपनी जगह बनाने में कोई खास दिक्कत कभी नहीं आई और मैं धीरे धीरे क्लास में लोकप्रिय होने के साथ साथ अन्य गतिविधियों में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने लगा।
इन्हीं दिनों कुछ खास बातें भी हुईं जिन्होंने मेरे आने वाले जीवन पर अच्छा खासा असर डाला।
एक बात तो ये हुई कि दो तीन महीने बीतते ही हमारी लंबी छुट्टियां हुईं और हम माता पिता के पास अपने घर गए। वहां जाते ही छोटे भाई ने ऐलान किया कि उसका मन नए स्कूल और नए घर में नहीं लगा है और वह वहां वापस नहीं जाएगा। सबसे छोटा होने के कारण उसकी बात मानी गई और संयोग से पास ही एक ग्रामीण स्कूल भी क्रमोन्नत होकर मिडल स्कूल बना।
पिताजी ने उसका दाखिला उसी ग्रामीण सरकारी स्कूल में करवा दिया और वह वहीं रह गया।
हम बाक़ी लोग छुट्टियां बिता कर वापस आ गए।
मैं अब घर में सबसे छोटा सदस्य रह गया।
छोटे भाई के यहां न रह पाने से शायद सबसे बड़े भाई और भाभी भी मन ही मन ये सोचने लगे कि उन पर छोटे भाइयों को अच्छी तरह न रख पाने का आरोप न लगे,और वे हम दोनों का और भी अच्छी तरह ध्यान रखने लगे।
इधर मैंने देखा कि कुछ पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने भी बहती गंगा में हाथ धोने की दुनियादारी में दोनों मुझसे बड़े भाइयों के बीच अकारण संदेह पैदा करने शुरू कर दिए।
मैं देखता था कि वे बड़े भाई भाभी से कहते थे, - देखो, शादी करके आते ही तुम्हारे घूमने फिरने के दिनों में तुम पर तीन तीन भाइयों का बोझ आ पड़ा। भाभी को कितना काम करना पड़ता है।
उधर हमसे कहते थे कि भाई भाभी घूमने फिरने शॉपिंग करने में ही रहते हैं कि कुछ तुम्हारा ध्यान भी रखते हैं? तुम्हारे पढ़ने लिखने के दिन हैं, तुम्हें खाना पीना समय पर अच्छी तरह मिलना चाहिए।
मैं लोगों की इस फितरत को समझ जाता था और लोगों की बात अनसुनी कर देता था।
लेकिन मेरा भाई कभी कभी ऐसी बातों से सचमुच उखड़ जाता और बड़े भाई भाभी से सवाल- जवाब तलब भी करता तथा मिलने पर माता पिता को भी उनकी छोटी छोटी बातें बढ़ा चढ़ा कर बताने लग जाता।
वे मुझसे उन बातों की पुष्टि करते तो मैं सोचता कि ऐसी बातों से क्या फायदा, दोनों ही और से सहन शीलता व धैर्य रखवाने की कोशिश करता।
धीरे धीरे मेरे भाई के मन में ये बात घर करती चली गई कि मैं उसका पक्ष नहीं लेता, और माता पिता मेरी बात को ज़्यादा तरजीह देते हैं। मुझसे बड़ा भाई लगातार मन से मुझसे दूर होता चला गया।
भाइयों के इस खेल में कभी कभी कैसी रुचिकर स्थितियां बनतीं, आपको ये भी बताता हूं।
भाई और भाभी दोनों नौकरी में होने से घर पर नाश्ते का सामान रखते, ताकि वक़्त ज़रूरत काम आ सके। कई बार मंहगा नाश्ता, मेवा आदि होता,तो भाभी उसे किफायत से लंबे समय तक चलाने की कोशिश करतीं।
मेरी आदत थी कि मैं अपने आप कभी कुछ नहीं मांगता था,जब भैया भाभी दें,तभी लेता था। क्योंकि मेरे मन में हमेशा ये बात रहती कि ये हमारे माता पिता नहीं, बल्कि भाभी भैया हैं। ये हमारे लिए जो कर रहे हैं,वही बहुत है। वरना हम सब भाइयों को हॉस्टल में जाकर रहना पड़ता।
जबकि भाई अधिकार से मांग लेता।
तो एक दिन भाई ने भाभी से कहा, मुझे जल्दी जाना है, खाने में देर होगी, मुझे काजू बादाम या मिठाई आदि कुछ हो तो वही दे दें।
भाभी ने शायद सोचा कि इन्हें कोई ज़रूरी काम से तो जाना नहीं, खाने के लिए थोड़ी देर रुक ही सकते हैं, उन्होंने कह दिया, अभी सब खत्म हो गया, नाश्ता है नहीं, खाना खाकर ही चले जाना।
अगले दिन जब बड़े भाई और भाभी काम पर गए हुए थे, स्कूल से आकर भाई ने रसोई और स्टोर की तलाशी लेकर सब ड्राई फ्रूट्स ढूंढ़ लिए।
मुट्ठी भर भर के खुद भी खाए और मुझे भी देने लगे।जो बाक़ी बचे, छिपा कर रख लिए।
शाम को आकर शायद भाभी ने चाय के साथ नाश्ता निकालने के लिए उन्हें ढूंढा होगा पर न मिलने पर वो न तो किसी से कुछ पूछ सकीं और न ही बोल पाईं।
मैं चुपचाप देखते रहने के सिवा कुछ न कर सका, क्योंकि मेरे भाई की पहले ही ये शिकायत रहती थी कि मैं उसका साथ क्यों नहीं देता?
पर मुझे ऑफिस से थके हारे अाए भैया भाभी पर बहुत तरस आया।
क्लास में लगातार हुए टेस्टों में मेरे बहुत अच्छे नंबर आए और मैं अपने सेक्शन में सबसे आगे ही चलता रहा।
लेकिन गणित जैसा विषय मुझे बहुत ही कठिन लगता था। मेरे उसमें नंबर भी कम आते। जहां दूसरे लड़के गणित में स्कोर करके अपनी परसेंटेज सुधारते, मैं सोचता कि गणित में किसी तरह पास हो जाऊं, डिवीजन तो मेरे मनपसंद दूसरे विषयों से बन जाएगी।
यहां उपाध्याय जी जैसा कोई शिक्षक नहीं था, जो अकेले मुझ पर ध्यान देकर मेरी कमजोरी दूर करे।
घर पर रहने के दौरान पहले मेरे पिता जो कभी कभी मुझे गणित पढ़ा दिया करते थे, यहां ऐसा भी कोई नहीं था।
अध्यापक कहते थे कि तुम चित्रकला, डिबेट, निबंध, भाषण आदि प्रतियोगिताओं में इतना भाग लेते हो, इनाम भी जीतते हो, यदि सब छोड़ कर ध्यान दोगे, तभी फिजिक्स केमिस्ट्री मैथमेटिक्स जैसे विषयों में अच्छा प्रदर्शन कर पाओगे।
मुझे ये सलाह अपने सिर पर किसी पत्थर के बोझ की तरह लगती थी। यदि इंजिनियर बनने के लिए ये सब छोड़ना पड़ेगा तो क्या फ़ायदा? क्या मैं खुश रह सकूंगा ये सब गतिविधियां छोड़ कर?
ये सवाल मैंने अपने आप से किया,और बिना किसी के पूछे,किसी की सलाह लिए बिना खुद मैंने ही ये फ़ैसला कर लिया कि मैं नवीं कक्षा में अगले साल फिजिक्स केमिस्ट्री और बायोलॉजी लूंगा।
उस समय स्कूलिंग ग्यारहवीं कक्षा तक ही होती थी और कैरियर चुनने वाले विषय नवीं कक्षा से ही लेने होते थे।
मुझसे किसी ने कुछ नहीं कहा। केवल मेरे पिता ने ये कहा कि यदि तुमने गणित से डर कर विषय बदलने का निश्चय किया है तो ये याद रखना कि आगे जाकर फिजिक्स में भी गणित आयेगी और अच्छे अंक तभी आयेंगे जब गणित की पुख्ता तैयारी हो।
इस बात से मुझे थोड़ा भय ज़रूर लगा। मेरे पिता ने भी तरह तरह से मेरी रुचि गणित में पैदा करने की कोशिश की, वे तरह तरह से मुझमें गणितीय एप्टीट्यूड पैदा किया करते थे। कई बार सवाल, हिसाब, जोड़ बाक़ी आदि देते और देखते कि मैं उन्हें कैसे हल करता हूं।
एकबार काफ़ी सारी संख्याओं का जोड़ लगाते देख कर उन्होंने मुझसे कहा कि मैं एक एक संख्या को न जोड़ कर एक साथ दो तीन संख्याओं को जोड़ रहा हूं। ये हड़बड़ी ऐसी ही है जैसे कोई एक साथ दो दो तीन तीन सीढ़ियों को पार करते हुए नीचे या ऊपर जाए। उनका कहना था कि इसी हड़बड़ी के कारण मुझसे गलती हो जाती है और सवाल गलत हो जाता है।
लेकिन गणित पढ़ते हुए शायद मेरी मायूसी और बोरियत को उन्होंने भांप लिया था। एक दिन उन्होंने कहा कि विषय बदल लेना, पर फिजिक्स पर ध्यान देना, यह गणित की भांति ही स्कोरिंग विषय है।
मेरे मित्रों को भी धीरे धीरे पता चलने लगा कि मैं अब इंजीनियरिंग में जाने का ख़्याल छोड़ रहा हूं।
एक दो निकट मित्रों ने मुझसे सवाल किया, तो क्या अब जीवन भर फिल्में नहीं देखेगा?
मैंने अपनी उसी कुटिल बुद्धिमत्ता से काम लिया, जिसके लिए मैं साथियों में पसंद किया जाता था।
मैंने कहा कि इंजीनियरिंग से मेरा आशय यही था कि अपने कैरियर को बनाने की दिशा में प्रवेश मिलने तक मैं फिल्में देखना छोड़ रहा हूं।अब मैं डॉक्टर बनने का ख़्वाब देख रहा हूं, तो फ़िल्म तभी देखूंगा जब मेडिकल कॉलेज में प्रवेश हो जाए।
मैंने क्योंकि अभी तक कोई असफलता नहीं देखी थी, और विषय बदलने का निर्णय मेरा अपना था, इसलिए किसी ने भी इस पर अविश्वास नहीं किया। इसे किसी ने मेरी विफलता भी नहीं माना, और घर वाले भी मुझे इस निर्णय से खुश ही दिखाई दिए।
बल्कि मेरे कुछ शिक्षक और सीनियर मित्र तो ये कहने लगे कि मेरी ड्राइंग बहुत अच्छी होने से मुझे बायोलॉजी जैसे विषय में बहुत सहूलियत होगी और अच्छे अंक मिलेंगे।
मेरा आत्मविश्वास जस का तस कायम रहा,और मैं चित्रकला की अपनी अभिरुचि के प्रति और सजग हो गया। फ़र्क केवल इतना हुआ कि मैं पेंटिंग की जगह ड्राइंग में ज़्यादा वक़्त देता।
ढेरों साथियों की फ़ाइलों में मैंने चित्रकारी करके वाहवाही बटोरना
जारी रखा।
इसी वर्ष मुझे अपने स्कूल में एक अच्छा अवसर मिला।
यूनाइटेड स्कूल्स ऑर्गनाइजेशन की ओर से एक अखिल भारतीय चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन दिल्ली में हुआ। इसमें चित्रकला, निबंध, संगीत, भाषण,फैंसी ड्रेस में नेशनल स्तर पर भाग लेने के लिए राजस्थान से कुल पंद्रह विद्यार्थियों का चयन हुआ,जिनमें मेरा भी चयन अपने शहर से हो गया।
मुझे वो चयन प्रतियोगिता आज भी याद है जिसमें शहर के चालीस विद्यालयों के लगभग तीन सौ बच्चों ने चित्र बनाया और पहले स्थान पर मेरा चित्र चुना गया।
मुझे छात्रों के दल और शिक्षक के साथ दिल्ली जाकर प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिला।
ये स्कूल की ओर से ही सब व्यवस्थाओं वाली यात्रा थी,जिसने बहुत अच्छा अनुभव दिया।
इसी यात्रा में कई राज्यों से आए बहुत से छात्रों से मिलने और दोस्ती करने का अवसर भी मिला। मुझे वहां कोई पुरस्कार तो नहीं मिला,किन्तु सीखने जानने को बहुत कुछ मिला।
लौटने के बाद एक दिन हम लोग स्कूल के बाहर मैदान में बैठे थे, कि हमारी दिल्ली यात्रा की बात छिड़ गई। एक सीनियर दोस्त बोला- तुम कितने लड़के गए थे?
मैंने कहा- अपने शहर से पांच !
एक लड़का बोला - कौन कौन सी क्लास के थे?
मैं बताने को ही था, कि पहले वाला दोस्त बोल पड़ा- अरे क्लास का क्या करना है, तू तो ये बता दे, कितने शेर थे और कितने बब्बर शेर?
सब लड़के हंस पड़े!
लेकिन मैं उसकी बात का मतलब नहीं समझा और मुंह बाए उसकी ओर ताकता रहा। मुझे ये भी समझ में नहीं आया कि शेर और बब्बर शेर से उसका आशय क्या था !
बाद में एक लड़के ने अकेले में मुझसे कहा, तू जानता है कि वो लड़का क्या पूछ रहा था?
- क्या? मैंने कहा।
वह बोला- ये बड़े लड़के बाथरूम में घुस कर एक दूसरे को अपने गुप्त अंग दिखाते हैं। जिनके गुप्तांग पर बाल नहीं होते उन्हें शेर बोलते हैं और जिनके बाल होते हैं उन्हें बब्बर शेर!
- धत ! हम सब क्या वहां पर नंगे होकर घूम रहे थे? मैंने कहा।
लड़का हंसने लगा। बोला - ये बड़े लड़के तो यही समझते हैं कि जो भी टूर्नामेंट या कॉम्पिटिशन आदि में बाहर घूमने गया वो ये सब करके ही आया होगा।
मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आया कि खेलकूद और कॉम्पिटिशन से इस सब का क्या वास्ता? क्या एक दूसरे को नंगा देखना कोई खेल है? क्या सब ऐसा ही करते हैं?
मैं इन बातों में उलझ कर रह गया।
इस अखिल भारतीय प्रतियोगिता में जाने के बाद मेरी रुचि इन गतिविधियों में और भी बढ़ गई।
एक बात सुन कर आपको ज़रूर अचंभा होगा कि बचपन से ही धागे, डोरी,रस्सी, रबरबैंड आदि जैसी चीज़ों से मुझे भारी परेशानी होती थी। मैं उन्हें देख नहीं पाता था। उन्हें छूने में मुझे संकोच होता था। और उन्हें बांधने में तो किसी एलर्जी की हद तक मैं परेशानी महसूस करता था। न जाने ये क्या था? ये बंधन से पूर्वजन्म की सी दुश्मनी थी, या शरीर की कोई कमी अथवा एलर्जी। या फ़िर कोई मनोवैज्ञानिक ग्रंथि। लेकिन इस ग्रंथि ने मेरे जीवन में बहुत बड़ी भूमिका निभाई।
पहली बात तो ये हुई कि मैं जूते बहुत कम पहनता। यदि पहनता तो फीते,डोरी वाले कभी नहीं,बिना तस्मे वाले,या फ़िर सैंडल,चप्पल अथवा जूतियां।
स्कूल की अन्य गतिविधियों में डूबा रहने वाला मैं, कभी भी स्काउट, एन सी सी, एथलेटिक्स या स्पोर्ट्स में भाग नहीं ले पाया। और इसका कारण केवल यही था कि इन सबमें जूते पहनने पड़ते थे। उन दिनों बिना डोरी के जूते किसी यूनिफॉर्म में नहीं आते थे। अपनी इस निजी समस्या के चलते मैं अपनी पसंद की इन कई गतिविधियों से दूर ही रहा।
रबर से तो मुझे एलर्जी की हद तक चिढ़ थी। यहां तक कि स्कूल में मेरे ज्योमेट्री बॉक्स में कभी रबर नहीं रहा। बहुत कम मित्र इस बात को जानते थे कि मैं चित्र बनाते समय भी कभी रबर इस्तेमाल नहीं करता था।चित्र बनाते समय रेखाएं,वृत्त आदि भी मैंने सदैव बिना रबर के प्रयोग के ही बनाए हैं। ये ऐसा ही है,जैसे अपंग व्यक्ति हाथ न होने पर पैर से भी लिख पाता है। मैं अपने बैग में रबर को कभी जगह नहीं देता था।
दूसरे लड़के भी रबर से मिटाते थे तो मैं चुपचाप ये देखता रहता था कि वे मिटाने के बाद रबर से निकले काले, मैलनुमा, रेशों को कहां गिरा रहे हैं। यदि ऐसे रेशे मेरे आसपास भी हों,या मुझे दिखाई देते रहें तो मैं सहज नहीं रह पाता था।
मुझे ये कहने के लिए माफ़ किया जाए कि रबर, रबरबैंड, डोरी,धागा जैसी चीज़ों को मुंह में लेकर खिलवाड़ करते रहने वाले लड़कों से मेरी दोस्ती कभी पनप ही नहीं पाती थी,चाहे वे कितने ही योग्य हों,या मुझसे आत्मीयता का व्यवहार रखें।
मैं कुरूप,काले,दिव्यांग दोस्त सह सकता था, स्मार्ट, गोरे,साफ़ सुथरे,सुन्दर ऐसे लड़के नहीं,जो इन वस्तुओं को मुंह में लेकर खेलते रहते हों। मुझे इलास्टिक या मुंह में रखी च्यूइंगम, बबलगम आदि से भी ऐसी अरुचि होती थी।
मुझे कई ऐसे भोले,प्यारे,निर्दोष लड़के आज भी याद हैं जिन्हें ये समझ में नहीं आया कि मैं उनसे उखड़ा उखड़ा सा व्यवहार करके दूर क्यों हो रहा हूं !
पर मेरे पास किसी को बताने के लिए कोई कारण नहीं होता था।
मेरे जो मित्र व्यवहार से मेरी इस ग्रंथि को भांप लेते थे वे मुझे सलाह देते थे कि इन चीज़ों को ज़्यादा से ज़्यादा प्रयोग करने से ही मुझे इनका अभ्यास होगा और इनके प्रति मेरी नफ़रत कम होगी,परन्तु इनके प्रयोग से मैं तनाव में आ ही जाता था।
लगभग यही हाल मेरा गुब्बारों के प्रयोग को लेकर भी होता था।जब तक वे फूले हुए रहें,तब तक तो ठीक,किन्तु ही फूटते ही जब वे रबर के टुकड़े के रूप में आ जाते तो उनका ये गिलगिला स्वरूप मुझे बिल्कुल भी नहीं सुहाता था।
और इन टुकड़ों को मुंह में लेकर खेलने वालों को देखकर तो मुझे उबकाई ही आने लगती। मैं किसी न किसी बहाने से उनसे दूर हट जाता था।
मेरी ये समस्या धीरे धीरे समय के साथ कम ज़रूर हुई किन्तु बचपन और किशोरावस्था में ये मेरे लिए एक ऐसी विचित्र कठिनाई बन कर रही जिसका असर बहुत सारी बातों पर पड़ा।
मैंने फ़ाइलों में भी हमेशा डोरी की जगह धातु के बंध ही चुने, चाहे वे महंगे सिद्ध हुए हों।
उन छोटे बच्चों से भी मैं क्षमा मांगता हूं जिन्हें मैं मुंह में गुब्बारे का टुकड़ा लेकर खेलने के कारण बिना बात ही अपनी गोद से उतार दिया करता था।
