Nisha Singh

Inspirational

4.6  

Nisha Singh

Inspirational

मै इश्क़ लिखना भी चाहूँ- 4

मै इश्क़ लिखना भी चाहूँ- 4

5 mins
149


“अच्छा... नमस्ते जी, मेरा नाम सुखदेव थापर और मैं भगत का दोस्त हूँ।”

“और मैं वीर मराठा शिवराम हरि राजगुरू...”

“हाँ हाँ बस ठीक है। बता दिया मैंने पहले ही तुम लोगों के बारे में।”

आ गये शैतान। अब कोई बात नहीं होने देंगे। देख लेना आप लोग।

सुखदेव: वैसे क्या बता रहा था तू ?

भगत: कुछ खास नहीं। बस कुछ बचपन की बातें।

सुखदेव: तो तेरे बचपन वाला वो मिट्टी वाला किस्सा सुना ना। सुना दिया क्या ?

भगत: नहीं अभी नहीं।

राजगुरू: बताने वाली बात तो बताई नहीं। कौनसी यादें ताज़ा की जा रहीं हैं तब से...

भगत: तू कुछ देर चुप बैठे तो मैं बोलूँ।

राजगुरू: हाँ तो बोल, मैंने कब मना किया है ?

चलिये तो अब आपको लेकर चलता हूँ 13 अप्रैल 1919 के दिन। हमारे यहाँ पंजाब में 13 अप्रैल का दिन बहुत खास होता है। पूरे पंजाब में बड़े धूम धाम से वैसाखी मनाई जाती है। लेकिन 1919 के बाद ये दिन सिर्फ़ वैसाखी तक सीमित नहीं रहा।

दिन 13 अप्रैल 1919। जगह थी जलियाँवाला बाग। सभा चल रही थी। अमृतसर का हर स्वतंत्रता प्रेमी आंदोलनकारी हज़ारों की तादाद में वहाँ मौजूद था। ‘वंदेमातरम’ के उद्घोष से पूरा आसमान गूंज रहा था कि एक राक्षस ने आकर सब कुछ तहस नहस कर दिया। 1600 से ज्यादा राउंड फ़ायर किये गये। भागने या बचने की कोई जगह नहीं थी। पलक झपकते ही पूरा बाग लाशों से भर गया। रात भर लाशें वहीं पडीं रहीं और घायल भी।

जब ये सब हुआ उस वक़्त मैं करीब 12 साल का था। ठीक दूसरे दिन की बात है। मैं स्कूल से वापस घर ज़रा देर से पहुँचा। घर में सब मेरी फिक्र और इंतज़ार में थे। ख़ास तौर पर अमरो (मेरी छोटी बहन अमर कौर)। पके हुए आमों के साथ काफ़ी देर से वो मेरा इंतज़ार कर रही थी। देखते ही दौड़ के आई और कहने लगी कि वीर जी आम पक गये हैं चलो चल के खाते हैं। पर मेरा मन तो कहीं और ही था।

“चल तुझे कुछ दिखाता हूँ।” कहते हुए मैं उसे अपने साथ ले गया। और अपने बस्ते से एक स्याही की शीशी निकाल के टेबल पर रख दी।

“इसमें क्या है वीर जी ?”

“इसमें उन महान लोगों के खून से सनी मिट्टी है जो सच्चे देश भक्त थे। जिन्हें कल एक राक्षस ने अपनी गोलियों से भून डाला।”

मैंने बताया उसे कि किस तरह मैं स्कूल के बहाने से अमृतसर पहुँचा। कैसे जलियाँवाला बाग तक बचते बचाते गया और कैसे वहाँ का माहौल देख के मेरा खून खौल गया। कई दिनों तक हम दोनों रोज़ उस शीशी पर फूल चढ़ाते रहे। 

राजगुरू: सच कहा तूने। राक्षस ही था। भोली भाली जनता पे 1600 से ज्यादा राउण्ड फायर किये थे। काश कि मैं वहाँ होता ऐसा बदला लेता कि...

सुखदेव: हाँ तो तू क्यों मन छोटा करता है, बदला तो ले ही लिया ना। वो भी अपने ही भाई ने। थोड़ा वक़्त लगा पर घर में घुस के मारा। दुश्मन को घर में घुस के मारने का मज़ा ही अलग होता है।

भगत: हाँ ये तो है। सरदार ऊधम सिंह उस वक़्त करीब 20 साल के रहे होंगे। जिस वक़्त ये सब हुआ वो अपने साथियों के साथ वहीं मौजूद थे। अपनी आँखों में उस खतरनाक मंज़र को 20 साल सम्भाल के रखा और 1939 में जलियाँवाला बाग का बदला लंदन जा कर लिया।

सुखदेव: आपको पता है... इन महाशय की जेब में एक छोटी सी गीता और एक फोटो हमेशा रखी रहती थी। इसका राज़ तो पूछिये ज़रा इनसे।

राजगुरू: फोटो ? किसका फोटो भाईसाब ? ज़रा हमें भी तो बताओ कि जिस 5’10” के सरदार को हम लड़कियों से बचाते बचाते शहीद हुए जाते थे वो चोरी छिपे किसका फोटो रखे घूम रहे थे ?

सुखदेव: हाँ तो भगत सिंह संधू जी बताइये... कुछ पूछा जा रहा है आपसे...

भगत: बस इसीलिये मैं नहीं चाहता था कि तुम दोनों यहाँ आओ।

सुखदेव: अच्छा... जब दूसरों की टांग खींचता है तब तो बड़ा मज़ा आता है तुझे। अब अपने लिये बुरा क्यों लग रहा है ?

भगत: बुरा इसलिये लग रहा है क्योंकि ये सारी बेबुनियादी बातें हैं। ऐसा कुछ भी नहीं था जैसा तुम दोनों बता रहे हो।

राजगुरू: हाँ तो तू बता दे ना कि सच क्या है...

भगत: तो सच ये है कि जैसा तुम बता रहे हो वैसा कुछ नहीं था। इस बात की शुरुआत हुई थी 1921 से। 1920 में गांघीजी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की थी। जिसमें कि सरकार की दी हुई उपाधियाँ और सम्मान लौटाना, स्कूल, कॉलेज, अदालत, विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करना, शरब की दुकानों पर धरना देना जैसी चीज़ें शामिल थीं। इसी सिलसिले में सन 1921 में गांधीजी एक बार लाहौर आये थे। उस वक़्त मैं नवमीं में था। अपने दोस्तों जयदेव और झन्डासिंह के साथ मैं भी गांधीजी का भाषण सुनने पहुँच गया था।

गांधीजी से उस वक़्त मैं इतना प्रभावित हुआ कि उसी वक़्त फैसला कर डाला की अब इन अंग्रेज़ों के स्कूल में कदम नहीं रखूंगा। बापू से डरता था तो जयदेव से कहलवा दिया कि मुझे स्कूल नहीं जाना। अच्छी बात ये हुई कि बापू भी मेरे साथ हो लिये। बस फिर क्या था मैं भी अपने साथियों के साथ मैदान में कूद पडा। रोज़ घर घर जा के लोगों को समझाते और रोज़ विदेशी कपड़ों की होली जला के वंदेमातरम के नारे लगाते। फिर अचानक ही ये सिलसिला खत्म हो गया। 1922 में चौरीचौरा में हुई हिंसा के चलते गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया। बस यहीं से मेरे विचार और रास्ते गांधीजी से अलग हो गये। अब इतने बड़े देश में एक आध जगह उपद्रव हो भी गया तो कौनसी इतनी बड़ी बात हो गई कि पूरा का पूरा आंदोलन ही वापस ले लिया जाये। ये बात मेरी समझ के बिल्कुल बाहर थी। गांधीजी के विचारों से मैं सहमत नहीं था उनके साथ जा नहीं सकता था, क्या करूँ क्या ना करूँ दिन रात बस यही सोचता रहता था कि एक दिन मेरी आँखों के सामने एक चेहरा घूम गया। और वही मेरे लिये सबसे बड़ी प्रेरणा साबित हुआ। वो चेहरा था शहीद सरदार करतार सिंह सरावा का (19 साल के सरदार को अंग्रेज़ों ने सशस्त्र गदर की तैयारी में पकड़ा और फ़ांसी दे दी। हंसते हंसते वो देश के लिये कुर्बान हो गया।) तभी से मैं अपनी जेब में सरदार करतार सिंह का फोटो रखने लगा।

अब ठीक है ?

देखा आपने कैसे कहाँ की बात कहाँ ले जा के पटकी इन लोगों ने।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational