"मारी मौसी मामा से कम है के"
"मारी मौसी मामा से कम है के"
चारों तरफ खुशी का माहौल है। घर में मेहमानों की चहल पहल है। सुधा सभी मेहमानों का खुश होकर खूब ख्याल रख रही है। आखिर आज सुधा के बेटे की शादी है, वो बहू से सास बनने जा रही है। इस खुशी में बस एक कमी लग रही है उन्हें, उनके मायके की इकलौती रिश्तेदार उन की छोटी बहन अभी तक नहीं आई है।
तभी सुधा की सास ललिता जी ने उन्हें आवाज़ दी....
"बहू..... ओ बहू.....
"जी मम्मी जी" सुधा अपने पल्लू से हाथ पोंछते हुये, ललिता जी के पास आकर बोली।
ललिता जी ने सुधा को हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा लिया और प्यार से सर पर हाथ रख बोली "बेटा शादी में भात पहनाने की एक रस्म भी होती है। जो आज ही होगी पर तुम्हारा कोई भाई तो है नहीं। मैंने कहा था कि अपने चाचा के बेटों को बुला ले। तो तेरी छोटी बहन ने उन्हें भी नहीं बुलाने दिया। अब वो रस्म कैसे होगी मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। बेटा मेरा कोई इरादा नहीं है तुम्हारा दिल दुखाने का, पर ऐसे मौकों पर ही भाइयों की कमी महसूस होती है। अब क्या करना है। क्या नहीं ये तू सोच के बता दे।"
कहते हुए सर पर हाथ फिराती हुई मम्मी जी उठ कर चली गई। और सुधा को विचारों के भंवर में छोड़ गई।
सुधा और मीता दोनों अपने माँ पापा की लाड़ली बेटियां थी। उनके माँ पापा ने उन्हें कभी ये एहसास ही नहीं होने दिया कि उनके बेटा नहीं है। दोनों के लाड़ प्यार में कभी कोई कमी नहीं होने दी।
जब रक्षाबंधन पर दोनों बहने चाचा के बेटों को राखी बांधने जाती उससे पहले माँ दोनों से एक दूसरे को राखी बंधवा देती। और समझाती तुम दोनों हमेशा एक दूसरे का साथ देना। चाहे कोई साथ हो या न हो पर तुम्हें हमेशा साथ रहना है। तुम दोनों का साथ ही तुम्हारी ताकत है।
पापा ने भी हमें हमेशा अपने पैरों पे खड़े होने पर जोर दिया। उनका कहना था कि "एक दूसरे का साथ देने के लिये आत्मनिर्भरता बहुत जरूरी है। और इसलिये जब हम दोनों की नौकरी लग गई तभी उन्होंने हमारी शादी की। दोनों बहने अपने - अपने घरों में खुश थी।
फिर कुछ सालों में पहले माँ और फिर पापा का स्वर्गवास हो गया।
माँ पापा के जाने के बाद जब पापा की प्रॉपर्टी का हिसाब हुआ तो दोनों बहनों ने इस आस में खेत चाचा जी को दे दिये की उनके बेटों से उनका रिश्ता बना रहेगा। पर घर दोनों बहनों ने अपने नाम करा लिया ताकि जब मन हो दोनों बहने मायके आकर अपने बचपन की यादें जिन्दा कर सके। और मायके आने के लिये चचेरे भाइयों का मुँह न देखना पड़े।
अभी कुछ दिन पहले ही चाचा जी के छोटे बेटे की शादी थी। जिसमें हम दोनों बहने गये थे। तभी चाचा जी के बेटों ने हम लोगों से वो घर उनके नाम करने को कहा। उनके हिसाब से हम लोग तो वहाँ रहते नहीं है। तो वो घर उन्हें दे दिया जाये ताकि वो दोनों अलग - अलग अपनी गृहस्थी बसा सके।
मैं तो देने को तैयार भी थी पर मीता ने साफ मना कर दिया। जब मीता ने न कहा तो मेरी भी न ही होनी थी।
न सुनते ही चाची जी ने हम दोनों को खूब खरी खोटी सुनाई और ये ताना भी दे डाला कि "जब तुम्हारे बच्चों की शादी होगी तो मेरे बेटे ही आएंगे भात पहनाने। तुम्हारे भाई होते तो क्या ये घर तुम उन्हें नहीं देती। अगर तुमको ये घर नहीं देना है, तो फिर भाइयों से कोई उम्मीद भी मत रखना।
मीता और मैंने बहुत कोशिश की उन्हें ये समझाने की कि हमने सारा कुछ तो दे दिया। एक घर ही तो लिया है। जिसमें हम दोनों बहनों का जब मन होता है मिलने का तो बिना किसी बंधन के आके मिल लेते है। अगर ये घर भी उन्हें दे दिया तो मायके आना भी उन्हीं के रहमों करम पर हो जायेगा। जब वो बुलाएंगे हम तभी आ पायेंगे। पर उन लोगों पर हमारे समझाने का कोई असर नहीं हुआ। और रिश्ता टूट गया।
तब हम दोनों बहनों ने रोते हुए एक दूसरे से वादा किया था कि दोनों ही एक दूसरे के बच्चों की शादी में भाई के भी सारे फर्ज निभायेगी । उस दिन ये भी समझ आ गया कि क्यूं माँ ने हमें एक दूसरे को राखी बँधवाई थी। और पापा ने आज के दिन के लिये ही हमें आत्मनिर्भर बनाया था।
सुधा ओ सुधा कुछ सोचा है क्या करना है?? पूछते हुए ललिता जी उसके पास आ गई।
"जी मम्मी जी भात की रस्म तो होगी ही न।
सुधा ने मुस्कराते हुए जवाब दिया।
" पर बेटा वो भाई..... ललिता जी थोड़ा सकुचाते हुए बोली।
जी मम्मी मीता का फोन आया था वो बस पहुँचने वाली होगी।
तभी दीदी..... दीदी....... कहाँ हो???
चिल्लाते हुए मीता अपने बच्चों और पति के साथ आ गई।
"अरे यही तो हूँ, कहते हुये सुधा ने बहुत ही गर्मजोशी से सब का स्वागत किया।
स्वागत सत्कार के बाद भात की रस्म की तैयारी की गई।
जिसमें मीता ने सुधा की सास, ननद के साथ हर छोटे बड़े का मान रखा।
जिसने भी इस भात की रस्म को देखा। वो ही दोनों बहनों के साथ उन के माँ पापा के दिये संस्कारों की तारीफ कर रहा था। जिन्होंने अपनी बेटियों को हर परिस्थिति में संग रहने के लायक बनाया था।
पूरी शादी में मीता और उस के पति ने एक भाई की तरह ही अन्दर बाहर के हर काम को हर रस्म को बहुत ही जिम्मेवारी से निभाया।
शादी के बाद जब मीता वापिस जा रही थी तो दोनों बहने एक दूसरे से भारी मन से विदाई ले रही थी। तभी सुधा की सास ललिता जी ने मीता को गले लगा कर सर पर प्यार और ममता का हाथ फिराते हुए कहा .....
बेटा तुमने तो बहन हो कर भी भाइयों की तरह सारे फर्ज निभाये हैं।
तो वही खड़ा सुधा का बेटा तपाक से बोला........
"मारी मौसी मामा से कम है के!"