मानो या न मानो
मानो या न मानो
मैं प्रेत-पिशाच मे विश्वास नहीं रखती थी। दस साल की बच्ची थी, जहाँ मेरा जनम हुआ उत्तरप्रदेश में। मेरे घर के पास एक कब्रिस्तान था। हम उन कब्र पर बैठते समझते घोडा है। चार पाँच बच्चों का समूह था। बस दिन रात भागना-दौडना, वहाँ हमारे लिए एक मैदान था बस। कभी कभी तो स्कूल से आना, खाना खाया और बस दौडकर कब्रिस्तान में।
एक दिन दोपहर में हमने वहाँ एक मिट्टी की पतीली देखी, ऊपर से ढक्कन था और ढक्कन में उडद की दाल, नींबू थे। नींबू हमने गेंद बना कर उछलने लगे और खुश हो रहे थे फिर सोचा पतीली खोलकर देखे खाने का सामान होगा।
बाप रे बाप। पतीली हटाते ही तीन मुर्गी के चुजे जैसे पकडने को हाथ बढाया वो तो पैरो से लंबे होते जा रहे थे।
हम चीखने लगे और भागने लगे और वो चूजे हमारे पीछे। न जाने कौन शक्तिशाली ताकत ने हमें घर तक भेजा। गनीमत की हमने पीछे मुडकर न देखा।
मैं एक हफ्ते बीमार रही, मौलवी साहब ने ताबीज दिया। फिर कभी भी मैंने कब्रिस्तान का रुख नही किया। आप मानो या न मानो पर ये सच है।