Ram Binod Kumar 'Sanatan Bharat'

Abstract Inspirational

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Ram Binod Kumar 'Sanatan Bharat'

Abstract Inspirational

'मां'

'मां'

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    शेखर की आधी उम्र बीतने को थी, परन्तु आज भी वह अपनी मां को समझ नहीं पाया था। वह जाने-अनजाने कभी अपनी मां का दिल दुखा देता, फिर आत्महीनता और आत्मग्लानि से भर जाता था। पर मां तो 'मां' ही थी, वह ममता से भरी हुई, गलतियां माफ करने वाली या फिर बुढ़ापे के कारण मजबूर समझ लें, दुःखी होती तो कुछ पल रोकर, फिर सामान्य हो जाती थी।

       यह सब देख कर शेखर का कलेजा कांप उठता था। उसकी बातों से मां को दु:ख होता ,तो वह स्वयं को कई दिनों तक धिक्कारता, फिर ध्यान रखता कभी भी उसकी बातों से मां को ठेस नहीं पहुंचे। फिर भी कभी-कभी ऐसी परिस्थितियां बन जाती कि वह फिर न चाहते हुए भी खीझ और गुस्से में कुछ कह देता था।

        फिर सोचता, उसने गलत किया। आखिर उसने स्वयं पर नियंत्रण क्यों नहीं रखा। उसको अपनी कमी मालूम होती पर तब तक देर हो जाती थी। वह अपने बीते दिनों की याद करता तो उसका दिल रो पड़ता था। जब वह छोटा था,। मां उसका कितना ख्याल रखती थी। बहुत सारी बातें तो उसे याद भी नहीं है।पर जब शेखर अपने बच्चों की परवरिश में समय देता है ,तब सोचने पर मजबूर होता ,कि हाय! मेरी मां ने भी मुझे इतने ही यतन और कष्टों से जूझकर पाला होगा न? न जाने कितने रातों की नींद उसने मेरे लिए खराब की होगी। कितनी बार वह मेरे द्वारा गीला किए गए बिस्तर पर ही सोई होगी। अपनी गरीबी के दिनों में भी किस तरह अपना पेट काटकर मुझे खिलाया और बड़ा किया होगा ।

      उसे वह दिन बखूबी याद है, जब वह कुछ बड़ा था उसके अलावा उसके दो भाई और एक बहन हैं। वह तीन भाई, एक बहन और उसके माता-पिता ,इस तरह शेखर का छ: लोगों का परिवार था। उसके परिवार का ग्रामीण जीवन कितना दु:खद और कष्टमय था, उसे आज भी याद है। उसके पिता की गांव में अधिक जमीनें न थी, बस एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा था। जिसे फावड़े आदि से कोड़(खोद)कर फसल बो दिया जाता था। उस जमीन के टुकड़े पर उतना भी अनाज नहीं हो पाता था, जिसे सालों भर परिवार का पेट भर सके।

        उसकी मां ने उसके पिता को कहकर थोड़ी और जमीनें बंटाई पर लिया था। अब समस्या खेतों को जोतने की थी, हल-बैल तो थे नहीं। फिर उसके माता-पिता दूसरे बैल रखने वाले किसान के खेतों में काम करते , और वह किसान अपनी दया दृष्टि से उनकी खेतों की जुताई करवा देता था।

       ऐसे ही कुछ वर्षों तक चलता रहा, पशु न होने के कारण घर में जलावन का भी अभाव रहता था। उसकी मां धुएं से लड़ते हुए अनाज की डंठल और भूसे से परिवार के लिए भोजन बनाती थी। जब वह किशोरावस्था में छोटा था, उसे यह समझ नहीं थी की धुएं से आंखें लाल करके, भोजन बनाने में उसकी मां को कितना कष्ट होता है।

        फिर एक समय ऐसा आता जब भूसे और अनाज के डंठल भी खत्म हो जाते थे। उसकी मां खेतों और जंगलों में जाकर झाड़ियां काट कर लाती ,तब जाकर उसके परिवार को चावल-माड़(कांझी)और नमक का स्वाद मिल पाता था।

        वह अपनी मां की त्याग-तपस्या और बलिदान को याद कर आज भी द्रवित होता रहता है। उसकी मां अक्सर खुद भूखा रहकर भी उसके बहन-भाइयों और पिता को सब कुछ खिलाकर खुश हो जाती थी। अब इतनी मात्रा में भोज्य सामग्री तो होती नहीं थी, कि वे सभी भाई-बहन भोजन का भरपूर आनंद ले सकें। फिर भी उसकी मां कभी एहसास नहीं होने देती थी, कि दाल-सब्जी या चावल-रोटी अब खत्म हो गया है।

         वह अपने हिस्से की भोजन भी खुशी से परोस देती थी, और कहती-बेटा! आज तो मुझे भूख नहीं है, मैंने दोपहर में सत्तू खा लिया था न, जो अब तक वो हजम नहीं हुआ है। तुम लोग खा लो। इसपर जब उसके पिता कातर नजरों से उसकी मां की ओर देखते तब वह उनसे चुप रहने का इशारा कर देती थी। मानो कह रही हो ,आप चिंता न करो जी, बच्चों ने खा लिया तो समझो मैंने भी खा लिया।

       फिर कुछ वर्ष बाद जैसे-तैसे पैसे जोड़, कुछ उधार लेकर एक बैल खरीद लिया गया। पर अब एक बैल से खेती कैसे हो, फिर ऐसे ही एक बैल वाले किसान से साझी की गई। फिर दोनों बैलों से बारी-बारी से दोनों की खेतों की जुताई होती थी। मां का काम और बढ़ गया था ,वह सुबह-शाम और खेतों की जुताई से आराम मिलने पर दोपहर में बैल को सानी-पानी देती और उसका भी अपने बेटों सा ख्याल रखती थी।

       प्रत्येक सुबह बैल के गोबर के उपले बनाने की भी अब उसकी दिनचर्या बन गई थी। इसी तरह दिन गुजरते रहे। फिर भी अनाज की कमी बनी ही रहती थी , खेतों से मिला अन्न वर्ष भर पूरा नहीं पड़ता था। क्योंकि आधे भाग तो खेत वाले को दे दिया जाता था। फसल तैयार नहीं होते की मां को अन्न की आश लग जाती थी।

       धान की फसल पकने को शुरू होता तभी से ही उसे काट-पीटकर चावल निकालना शुरू हो जाता था। बैल के भूसे और चारे का भी वही हाल होता था। मां को इस अंदेशे में धान के पानी भरे खेतों की मेढ़ से चारा काट कर लाना होता ,जिसे कि समय से पूर्व ही बैल का चारा खत्म न हो जाए।

          शेखर की मां उसके लिए मदर इंडिया से कम नहीं थी। जब भी वह मदर इंडिया फिल्म के दृश्यों को देखता उसके आंखों से आंसू रुकने का नाम नहीं लेते थे। समय गुजरता गया, उसकी मां ने उसे और उसके बहन-भाइयों की पढ़ाई-लिखाई में भी कोई कमी नहीं रखी थी। क्योंकि मां शिक्षा के महत्व को बखूबी जानती थी। भले ही उसे खुद प्राथमिक कक्षाओं से आगे की पढ़ाई करने का मौका नहीं मिला था। पर वह अपने बेटी-बेटों को शिक्षा से वंचित नहीं करना चाहती थी। खुद कष्ट कर लेती थी, सब काम खुद ही संभालती थी पर बेटी-बेटों को पढ़ाई के लिए पर्याप्त समय देती थी। शेखर के नाना जी खुद एक शिक्षक थे फिर भी सामाजिक रूढ़ियों से बंधकर अपनी बेटियों को प्राथमिक से आगे की शिक्षा नहीं दिलवाया। मिडिल और हाई स्कूल गांव से थोड़ी दूर थी। अपने भतीजे को तो उन्होंने पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बना दिया ।

                पर बेटियों के लिए यह कहते थे। " बेटा थोड़ी न है ,जो इतनी दूर पढ़ने जाएगी ?"

     उसकी मां पंख कटी चिड़िया की तरह छटपटाती रह गई थी, पर आगे विद्यालय नहीं जा सकी थी। जबकि आज उसकी सहेलियां जो ऊंचें-खुले विचारों के परिवार से ताल्लुक रखती थी , वे सभी आज शिक्षिकाएं हैं।

        समय के साथ शेखर का बड़ा भाई सागर अब बारहवीं पास कर गया। भावना में भावुक होकर वह मां को बोला " मां ! अब मैं पढ़ाई नहीं करूंगा, मैं शहर जाकर काम करना चाहता हूं। मुझसे तुम्हारा और परिवार का यह हाल देखा नहीं जाता है।"

     मां ने भी उसे इस आस में आज्ञा दे दी, कि परिवार की हालत बेहतर हो सके।

       सागर अब शहर चला गया। पर गया तो उसी दुनिया में खो गया, वह शहर की चकाचौंध के आगे अपने घर और परिवार को भूल गया। अब वह अपने खर्चे पूरे होने भर काम करने के बाद फिर ऐश करता, या उधार लेकर अपना दिन काटता रहता था ।अब उसे अपनी ड्यूटी और घर की जिम्मेदारी से कोई मतलब नहीं होती थी। कमाकर घर पर पैसे भेजने की बात तो दूर ,वह न तो घर में कभी खत भेजता न कोई संदेश देता । शेखर के माता-पिता को लगा की वह कहीं खो तो नहीं गया ? पर कभी-कभी उसके कारनामों की खबरें किसी परदेसी के द्वारा घर मिलती रहती थी। मां ने शेखर के बड़े भाई सागर का ब्याह भी कर दिया, कि शायद उसे परिवार की जिम्मेवारी से कमाने में मन लगा सके। परन्तु फिर भी सागर में कोई सुधार नहीं हुआ।

        मां इस आशा में थी कि बहू घर में रहकर बुढ़ापे में उसका कुछ हाथ बंटाएगी और फिर बेटा कमाकर घर में कुछ सहयोग करेगा।

            लेकिन सागर को अपने घर-परिवार और मां से कोई मतलब नहीं था। वह शादी के कुछ ही दिनों बाद ही जिद करके अपनी पत्नी को अपने साथ लेकर परदेश चला गया। उसके बाद तो घर को भूल ही गया। फिर मां सागर के लिए चिंतित और परेशान रहती थी। पर उसे अपनी मां की कोई चिंता नहीं थी। सागर के लिए रोते-धोते कई वर्ष बीत गए। अब धीरे-धीरे मां ने सब्र कर लिया था। इसी तरह समय बीतता गया।

         शेखर भी बड़ा होकर जैसे-तैसे कुछ पढ़ कर अपने घर की हालात दुरुस्त करने, छोटे भाई-बहनों को पढ़ाने-लिखाने एवं अपने परिवार की बेहतर जीवन के लिए घर से निकल पड़ा। अपनी श्रम साधना में लगे हुए उसे कई वर्ष बीत गए, आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई। उसके भाई-बहन की पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ उसका परिवार का स्तर आम जन से बेहतर हो गया।

     कुछ दिनों बाद शेखर की छोटी बहन अनीता की विवाह एक अच्छे परिवार में हो गयी। फिर शेखर की और कुछ दिनों बाद उसके छोटे भाई मदन का विवाह भी संपन्न हुआ। अब शेखर ने अपना व्यापार करना शुरू कर दिया था ,और उसके छोटे भाई मदन को अच्छी नौकरी भी मिल गई थी। शेखर सपरिवार हंसी-खुशी से अपना जीवन गुजार रहा था। अब सागर ,शेखर, मदन और अनिता सबके बच्चे बड़े हो रहे थे ,और पढ़ाई-लिखाई कर रहे थे।

             इसी बीच एक बार सागर सपरिवार गांव आया। सागर के दोनों भाई उससे नाराज ही थे, पर अपने बच्चों की सारी गलतियां माफ कर, उसे भूल जाने वाली मां अपने बेटा-बहू तथा पोतें-पोतियों को देख कर बहुत खुश हुई और उन्हें अपने घर में स्थान दिया।

         फिर सागर का इसी तरह कई-कई वर्षों बाद घर में आना-जाना शुरु रहा, पर वह अब भी किसी भी मौके पर अपने परिवार को कोई आर्थिक सहायता नहीं करता था। अब सागर की बेटी विवाह योग्य हो गई थी। पर सागर ने उसके शिक्षा पर भी उचित ध्यान नहीं दिया था, जिसके कारण उसकी शिक्षा भी पूरी नहीं हो पाई थी। पर उम्र बढ़ जाने के कारण उसका समय रहते विवाह करना आवश्यक था।

           सागर अपनी कामचोरी के कारण अपनी बेटी सरला के विवाह के लिए भी पैसे नहीं जोड़ पाया था। उसने मां के आगे अपना दुखड़ा रोया, तो मां ने जमीन के थोड़े से बचे टुकड़े को भी बेचकर सरला की शादी में देने को तैयार हो गई। पर दोनों छोटे भाइयों ने विद्रोह किया और सागर से पूछा- आखिर आपने सरला के विवाह के लिए क्या धन जोड़ रखा है? अगर आप थोड़ा सा बचा हुआ ,यह जमीन का टुकड़ा भी बेच देंगे, तो फिर हमारे बच्चे अपना सिर छुपाने के लिए घर कहां बनाएंगे? सागर के भाइयों के पास भी जमा पूंजी न थी। उन्होंने भी अपनी सारी जमा पूंजी व्यापार और अन्य अचल संपत्ति खरीदने में लगा रखा था।

         परन्तु मां अपनी बात पर ही अड़ी रही, उसने शेखर और मदन को कहा - अब चाहे तुम दोनों जो भी करो ,मगर सरला के विवाह के लिए पैसे तुम दोनों को ही व्यवस्था करनी है। या तो अपने व्यापार से पैसे निकालो, उधार ले लो या फिर जमीन बेच दो। मां को शेखर के विरोधों का भी सामना करना पड़ा, फिर भी वह अपनी जगह पर डटी ही रही।

             अंत में सारे परिवार ने मिलकर विवाह में अपनी सहभागिता निभाई। एक मां ही है जो खुद सूत्र बन कर सारे मोतियों को झेलते हुए, परिवार को एक माला की तरह एक सूत्र में बांधे हुए रहती है। मां की ममता को नमन है जो बिना भेदभाव के अपने सभी बच्चों के लिए सदा ही छलकती रहती है। पर शेखर ,मदन, सागर या अनिता को आज भी कभी-कभी लगता है ,कि मां अपनी ममता में भेद करती है। परंतु यह उसकी ममता में भेद नहीं ,बस अपनी कमजोर और बेचारा पड़ रहे संतान के लिए एक सहानुभूति मात्र है, जिसे उन्हें सरकार की आरक्षण की तरह ही समझना चाहिए। जिसमें वह वंचितों को उनका हक दिलाने का प्रयास करती है। धन्य है 'मां' और उसकी ममता।

    इति।

      



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