Ram Binod Kumar 'Sanatan Bharat'

Inspirational

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Ram Binod Kumar 'Sanatan Bharat'

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प्रेम (लव इन लाइब्रेरी)

प्रेम (लव इन लाइब्रेरी)

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लव- प्यार ,प्रेम-मुहब्बत आदि ऐसे कुछ शब्दों पर चर्चा करना, लिखना - पढ़ना, सुनना तक हमारे समाज में कुछ अलग अर्थ में ही ले लिया जाता है।

                   यद्यपि किसी न किसी रूप में यह इंसान के जीवन के सुखद एहसास का सुनहला भाग है। परंतु फिर भी शायद इसकी चर्चा करना अनैतिक माना जाता है। क्योंकि इसका सीधा संबंध हम युवक-युवतियों के बीच आकर्षण से ले लेते हैं।

                 शायद कभी वह कोई घड़ी आएगी, जब हम इसकी व्यापकता और अपने जीवन में इसके महत्व को समझेंगे । और इसे एक नैतिक अर्थ में भी देखेंगे।

              बात वर्ष 1992 की है। मैं 12वीं कक्षा में पढ़ता था। वैसे तो उस जमाने में हमारी उस कक्षा में बहनों की संख्या पांचवीं भाग के करीब ही था।

              उस समय भी हमें अपने समाज में ऐसा सुनने को मिलता था, की समान उम्र के बालक- बालिकाओं में बालिकाओं का शारीरिक और मानसिक विकास प्राय: बालकों से अधिक होता है । फिर उन दिनों हम सभी अपने अधिकांश सहपाठियों को अपने कद और बुद्धि के हिसाब से भैया - दीदी कह कर ही संबोधित करते थे।

                उस समय हमारे गांव में अधिकांश बहनों का विवाह हाई स्कूल या बारहवीं तक कर दिया जाता था। कोई विरले बहनें ही कुंवारी अवस्था में उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती थी।

     कम उम्र से पढ़ाई शुरू करने और अपनी कक्षा में कम उम्र के होने से मेरा शारीरिक विकास उसी अनुपात में हुआ था। मैं अपनी कक्षा में छोटा विद्यार्थी था।

                 हमारी कक्षा की सारी बहनें, बड़ी बहनों के सामान ही थी। कभी सपने में भी मेरे मन में कोई दूर्विचार या दुराव नहीं फटक सकता था।

           मैं इतना शर्मीला था, की जरूरत से ज्यादा किसी से विशेष बातें नहीं कर पाता था।

हमारे महाविद्यालय के पुस्तकालय में विभिन्न विषयों की पुस्तकें होती थी। शुरुआत के दिनों से मुझे साहित्य और महापुरुषों की जीवनियां पढ़ना अच्छा लगता था ।

             किसी नियत समय पर ही पुस्तकालयाध्यक्ष हम विद्यार्थियों को पुस्तकें दे पाते थे। एक नियत समय होता था, जिसे वह हमें बताते थे , हम कुछ विद्यार्थी इकट्ठे हो करके ,अपना एवं पुस्तकों का नाम दर्ज करा कर अपनी पुस्तकें लेते थे।

                  एक दीदी भी साथ होतीं जब भी मैं अपनी पुस्तकें लेकर निकलता वह मुझसे मांग कर मेरी पुस्तकें अवश्य ही देखतीं थी। पर मैं कभी नहीं संकोच बस उनकी पुस्तकें मांग कर नहीं देख पाता था।

             लेकिन फिर भी शायद मेरी मन की बात जान कर, वह बिना बोले ही मुझे अपनी पुस्तकें दिखाती थी। मैं देखता यह वही पुस्तक होता था , जो मैंने पूर्व में पुस्तकालय में पढ़ कर जमा कराए होता था।

 ऐसा वर्षों तक चलता रहा। दीदी मुझसे घुल मिल गई। मुझे उनकी मुझमें रुचि स्पष्ट नजर आती थी। कभी कुछ खाने को ले आती तो मुझे अवश्य ही पूछती थी। कभी अनुपस्थित या चेहरे पर मुस्कान ना होने पर मुझसे अवश्य ही पूछती थी।

           "कल कहां थे? कॉलेज क्यों नहीं आए?"

               "आज मुझे तुम उदास नजर आ रहे हो? आखिर क्या बात है?"

             " अगर तुम मुझे अपनी बड़ी बहन मानते हो? तुम्हें अपनी बातें मुझसे शेयर करना चाहिए ?"

       फिर मैं जो बातें होती थीं उन्हें बताता था।

 इस तरह वह भी मुझे अच्छी लगने लगी । मैं उनसे घुल- मिल गया। अब हम दोनों अपनी सारी बातें एक दूसरे से शेयर करते थे। मेरे मन मंदिर में उनके लिए अपनी बड़ी बहन की छवि अमिट रूप से बन गई थी।

                   रक्षाबंधन की त्योहार आया । दीदी ने उस दिन मुझे अपने घर बुलाया था। मैं उनके घर गया।

                      वहां उन्होंने अपने माता-पिता से मेरा परिचय कराया। उनके परिवार में उनके माता-पिता के अलावा और कोई भी नहीं था। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं। उनके माता-पिता भी मुझे अपने पुत्र की तरफ प्रेम करते थे।

         जब हम स्नातक के प्रथम वर्ष के छात्र थे। दीदी ने एक दिन बताया । उनका विवाह तय हो गया है। लड़का फौज में है। कुछ दिनों बाद उनका विवाह हो गया।

                  पर उनकी शिक्षा जारी रही। स्नातक तक की शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने शिक्षक प्रशिक्षण की डिग्री ली।

कुछ दिनों बाद उन्हें सरकारी विद्यालय में शिक्षक की नौकरी मिल गई।

                 आज अट्ठाईस वर्ष बाद भी हम दोनों  , भाई -बहन का प्रेम कम नहीं हुआ है। आज भी मेरी दीदी मुझे अपने बच्चों जैसा ही ख्याल रखती है।

      



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