Sunita Shukla

Tragedy Classics

4.8  

Sunita Shukla

Tragedy Classics

माँ चली गई...!!

माँ चली गई...!!

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पिछली सारी बातों को सोच-सोचकर उसकी आँखों से आँसुओं की अनवरत धार बहे जा रही थी। कुछ भी तो न कर सका वो अपनी माँ के लिये...अपराध बोध की भावना उसे अशक्त किये जा रही थी। जलती चिता की तेज उठती लपटों की तरह उसके मन में पश्चाताप की अग्नि धधक-धधक कर उसकी आत्मा को झुलसा रही थीं, और वह खोया था गहन स्मृतियों में....

माँ......जिसने बहुत जतन और मशक्कत से पाला था मुझे। खुद अभावों में जीती रही पर मुझे कभी किसी बात की कमी नहीं होने दी। और मैं पढ़-लिखकर बड़ा हुआ तो भाग आया इस शहर में आगे बढ़ने की फिराक में। शायद माँ की दुआओं का ही असर था ज्यादा भाग दौड़ नहीं करनी पड़ी और मेरी नौकरी लग गई। फिर क्या था तरक्की की राह में मैं आगे बढ़ता गया और जो पीछे रह गई तो वो थी माँ। पहले तो दो चार महीने में एक बार मिल भी आया करता था पर धीरे-धीरे ये सिलसिला भी बंद हो गया। 

शहरी आबोहवा में पली बढ़ी एक जीवन संगिनी भी मिल गई सो समय पंख लगाकर उड़ने लगा और हम दो बच्चों के माता-पिता भी बन गए। वहाँ बड़ी दूर.... माँ थी एक आस में कि हम सब उसके पास आयेंगे। पर मैं जानता था इसमें न तो पत्नी साथ देगी और न ही बच्चे, सो मैं माँ को ही ले आया अपने साथ। अब मैं निश्चिंत था, मैंने अपना कर्तव्य जो पूरा कर लिया था और फिर अपनी जिंदगी की दौड़ में शामिल हो गया। 

पर माँ उसे क्या मिला, गाँव की खुली आबोहवा को छोड़कर ये छोटा सा कमरा जिसमें शायद ही कभी कोई आता हो उससे बातें करने। कभी वो कमरे से बाहर निकल भी आती तो देखती सब खोए हैं अपने-अपने कामों में और फिर उसने कमरे से बाहर आना भी बंद कर दिया। कभी किसी ने सोचा ही नहीं कि उनकी भी कुछ जरूरतें होंगी, वो क्या सोचती हैं, खाना खाया कि नहीं, दवाइयाँ खत्म तो नहीं हो गई, किसी से कोई मतलब नहीं।

आज की एडवांस लाइफ में वो फिट नहीं थी सो उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया।

और वो घुटती रहीं, छटपटाती रहीं, भरे-पूरे परिवार में नितांत अकेली और फिर एक दिन माँ चली गई....!!

दोनों घुटनों के बीच सिर को झुकाए वह बड़बड़ाते जा रहा था....दूध पिलाया जिसने छाती से निचोड़कर.....मैं निकम्मा, कभी उसे एक गिलास पानी न पिला सका । मैं उसके बुढ़ापे का सहारा, हूँ ये अहसास आज तक मैं उसे कभी दिला ही नहीं पाया।

मुझे पेट पर सुलाने वाली मेरी माँ को मखमल तो बड़ी दूर की बात है एक नर्म बिस्तर पर सुला न सका । आज वो चली गई छोड़कर सिर्फ अपनी यादें, और पीछे रह गया एक गीत जो वो अक्सर गुनगुनाती थी....

"अंचल घेरे कालिमा, तिमिर भरे दिन रात,

विकल नयन पथ देखती, अंधकार उत्पात,

अंधकार उत्पात , विरह में नैना तरसे,

यादें प्रिय गतिमान , नेह बन आँसू बरसे".....

मैं कभी समझ नहीं पाया कि वो यह गीत किसके लिए गुनगुनाती थी। क्या उस पति के लिये... जो उसे छोड़ कर कहीं चला गया वो भी तब जबकि वो माँ बनने वाली थी, और आज वही बेटा उसे कभी समझ ही नहीं पाया।

वो भूखी ही सो गई, जाने किसके डर से, एकबार खाना मांगकर दुबारा तो कहने की भी हिम्मत नहीं हुई। सुननः वाला भी कौन था, सब तो व्यस्त थे जिंदगी की दौड़ में...आखिर क्यों... मैं उसे सुकून के दो निवाले भी न खिला सका। शायद इसीलिए मैं अपनी नजरें उन बूढ़ी आंखों से कभी नहीं मिला पाया ।

वो दर्द, सहती रही और खटिया पर तिलमिलाती रही पर मुझे आभास भी न हुआ। जो हरपल, जीवनभर ममता, के रंग पहनाती रही मुझे, उसे दिवाली पर दो जोड़ी कपड़े न सिला सका । वो बीमार, अशक्त चारपाई में चिपकी रही, मैं उसका इलाज न करा सका। ज्यादा खर्च के डर से उसे बड़े अस्पताल भी न ले जा सका।

माँ के बेटा कहकर दम तोड़ने के बाद से अब तक सोच रहा हूँ, दवाई, इतनी भी “महंगी...न थी के मैं ला नहीं सका..वक्त इतना भी कम नहीं था कि मैं दो घड़ी उसके पास बैठ न सका....। 

माँ तो माँ होती है वो कभी कुछ नहीं कहती उसकी आँखों में सिर्फ और सिर्फ प्यार होता है और हाथ हमेशा दुआओं के लिये ही उठते देखा है। मैं अभागा कभी उसके दुख-दर्द को समझ ही नहीं पाया या शायद कभी कोशिश ही नहीं की और समझ आया तो माँ ही नहीं रही। काश.... तुम मुझे एक और मौका देती माँ.....!


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